अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कुन्ती बेचारी नहीं

 

कहानी में कुन्ती उस दिन मुखर हुई जिस दिन उस के पति रह चुके कुन्दन के रजिस्टर्ड पत्र कस्बापुर पहुँचे। एक साथ। नयी देहली के रेलवे स्टेशन की मोहर लिए। वहाँ पड़ी तारीख़ के पाँचवें दिन। 

एक पत्र उन की मकान मालिकिन, सुश्री स्वर्णा प्रसाद के नाम था जो अपनी बहन प्रमिला के साथ वहाँ के नत्थूलाल तिराहे पर बने प्रसाद भवन में सिस्टर्ज़ खानपान सेवाएँ चलाती थीं। 

एक पत्र वहाँ के मॉडल टाउन स्थित मोहन और्थो सेन्टर के मालिक, डॉ. सतीश मोहन, हड्डी विशेषज्ञ, के नाम था, जिन के इसी सेन्टर में कुन्दन एक्स-रे का काम देखता रहा था। 

एक पत्र कुंती के चाचा, किशोरी लाल के नाम था जो उसी सेन्टर के बिलिंग काउन्टर पर बैठते थे। 

 

(1) 

 

किशोरी लाल के पत्र में कुंदन और कुंती के चित्र तथा हस्ताक्षरों के साथ उनके तलाक़ की अर्ज़ी की एक कॉपी के साथ पत्री थी:

पिता-तुल्य चाचा जी, 

चरण-स्पर्श। 

जब तक आपको मेरा यह पत्र मिलेगा मैं वैनकूवर पहुँच चुका होऊँगा। आप जानते रहे अपने एक दोस्त के अस्पताल में मैंने अपने लिए एक नौकरी पक्की कर रखी थी। वीसा मिलने की देर थी। वीसा मिला तो मुझ से देरी बरदाश्त नहीं हुई। सो चल पड़ा। 

तलाक़ की हमारी यह संयुक्त अर्ज़ी आप को चौंकाएगी। कुंती को भी। जिस पर मैंने उसे पासपोर्ट की अर्ज़ी बतला कर उसके हस्ताक्षर लिए थे। अपने हिसाब से मैं उसे आज़ाद करना चाहता था। मेरा अब भारत लौटना हो न हो, इस लिए। 

मुझे विश्वास है आप कुन्ती को सम्भाल लेंगे। इस बेर भी। 

आप का शुभांकाक्षी,
कुन्दन। 

 “बेचारी कुन्ती,” किशोरीलाल ने आह भरी, ”पिता भगौड़ा। पति भगौड़ा।”

किशोरीलाल को अपना भाई याद हो आया जो तपेदिक के अस्पताल में हुई अपनी पत्नी की मृत्यु वाले दिन कुन्ती को उनके सुपुर्द करने के बाद लापता हो गया था और अब यह कुन्दन था जो कुन्ती को स्थायी लंगड़ेपन से बचाने हेतु डॉ. सतीश मोहन द्वारा सुझाए गए महँगे ऑपरेशन की रक़म का जुगाड़ करने की बजाए देश ही छोड़ गया था। 

कुंती को पैर में चोट उन्हीं के घर पर लगी थी। छत का पंखा साफ़ करते समय जो गिरी तो फिर पैर पकड़ कर बैठी की बैठी रह गयी। 

यहाँ उसे वह सेन्टर पर लिवाए तो एक्सरे ने उसके टखने में भयंकर टूटन दिखायी थी। 

कुन्ती की टाँग की लम्बी शिनबोन, टिबिया, और निचली छोटी हड्डी, फ़ाइबुला, टखने की टैलस हड्डी के सिरे पर जिस जगह जुड़ती थीं वह जोड़ पूरी तरह उखड़ गया था। वे लिगामैन्टस, अस्थिबंध, भी चिर चुके थे जिन से हमारे शरीर को अपना भार वहन करने हेतु स्थिरता एवं मज़बूती मिलती है। 

डॉ. सतीश मोहन ने एक्सरे जाँचने के बाद कुंती की टाँग पर छह सप्ताह का पलस्तर दिलवा कर उसे पूरा आराम देने पर ज़ोर दिया था। 

जभी कुन्दन ने आगे बढ़ कर कुंती का हाथ माँग लिया था, “मैं इसे पूरा आराम दे सकता हूँ . . .” 

कुंती से स्नेह रखने के बावजूद किशोरीलाल उसे अपने परिवार में छह सप्ताह तक पूरा आराम दिलवाने की अपनी असमर्थता जानते थे। 

अठारह पार कर चुकी कुंती को उन्होंने कहीं न कहीं तो वैसे भी ब्याहना ही ब्याहना था और फिर कुन्दन देखने-भालने में भला था। उम्र भी उसकी सही थी: बाइस वर्ष। 

 

(2) 

 

डॉ. सतीश मोहन की चिट्ठी एक गुहार भी लिए थी, तलाक़ की अर्ज़ी की कॉपी के साथ। 

देवता-तुल्य डॉ. साहब, 

चरण-स्पर्श। 

आप के अहसानों के नीचे दबा हूँ, डॉ. साहब। 

अनाथ था। माँ-बाप लम्बी बेरोज़गारी से तंग आ कर आत्महत्या कर चुके थे। मामा लोग की लानतों और गालियों के बीच अपनी पढ़ाई जारी करने हेतु छुटपुट कई काम पकड़ रखे थे। सुबह अख़बार बाँटने का, पड़ोस के कुत्तों को नहलाने का, परचून की दुकान का सामान ढोने पहुँचाने का। वह तो क़िस्मत अच्छी थी जो अख़बार ने मुझे आप से मिलवा दिया वरना मुझे अपनी दसवीं पास करने के बाद एक्सरे के टैकनीशियन का कोर्स करने के लिए कोई न बताता। 

और आज भी जो मैं वैनकूवर के लिए रवाना हो रहा हूँ तो वह भी आप ही के उस अनुशंसा पत्र की बदौलत, जो वहाँ के अस्पताल को आप ने भेजा था। 

जाते-जाते एक और एहसान माँग रहा हूँ। कुंती के टखने की औरिफ़। 

वह ग़रीब अनाथ लँगड़ी रह गयी, तो इतना लम्बा जीवन कैसे बिताएगी? 

आप देख ही रहे हैं, इस चिट्ठी में मैंने आपको तलाक़ की एक संयुक्त अर्ज़ी की कॉपी भी भेज रखी है जो आप जान जाएँ मैं उसे आज़ाद कर रहा हूँ ताकि वह अपना नया घर बसा कर किशोरीलाल चाचा के परिवार की ग़ुलामी से दूर जा सके। लँगड़ी रह गयी तो कौन उस से शादी करना चाहेगा? बिना दहेज़ के? 

आशा है आप की साख और सामर्थ्य का लाभ उसे ज़रूर मिलेगा। आप करुणावतार हैं। उसे लँगड़ेपन से ज़रूर बचा लेंगे। 

उसे औरिफ़ का दान देंगे। 

ढेरों शुभ कामानाओं के साथ, 

आप का सेवक तथा कृपा-पात्र, 
कुन्दन। 

”बेचारी कुन्ती,” डॉ. सतीश मोहन सुरसुराए। कुन्दन मूर्ख था जो सोच बैठा था चापलूसी भरा उसका पत्र उनकी व्यावहारिक बुद्धि को डाँवाँडोल कर देगा और किसी आदर्श दया-भाव के अधीन वह लाख डेढ़ लाख की लागत वाला औरिफ़ ख़ैरात में कर देंगे। 
औरिफ़ उन्हीं ने सुझाया था:

ओ.आर.आइ. एफ़. (ओपन रिडक्शन एंड इंटरनल फ़िक्सेशन) जिस के अन्तर्गत चिकित्सक क़ीमती धातु की तारें, प्लेटें और स्क्रू काम में ला कर खंडित हड्डियों को वापस उन की मूल स्थिति में ले आता है। 

कुंती के पैर का पलस्तर जब काटा गया था और उस के नए एक्सरे लिए गए थे तो उन्होंने देखा था, ऊपर से आ रही टिबिया के अगले और पिछले दोनों मैलेओलाए और फ़ाइबुला के माल्योलस ठीक से जुड़ नहीं पाए थे और टखने की रिपोसिशनिंग, उस का पुनः अवस्थापन, केवल औरिफ़ के माध्यम ही से अब सम्भव था। 

”उस नाज़ुक हालत में लड़की को पूरा आराम चाहिए था न कि दूल्हा, ”उन्हों ने किशोरीलाल और कुन्दन, दोनों, को लताड़ा था,” साफ़ मालूम देता है पलस्तर का कोई लिहाज़ नहीं रखा गया . . . अब औरिफ़ के बिना कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा . . .”

किशोरी लाल और कुन्दन हकबका कर एक दूसरे को देखने लगे थे। 

कुंती बुत की बुत बनी रही थी। 

पहले ही की तरह, दुबली-पतली अपनी काया में सिमटती हुई। खुरदुरे अपने हाथों की कटी-फटी उँगलियों के टूटे-फूटे नाखूनों को अपनी भिंची मुट्ठियों में बाँधे। 

 

(3) 

 

सुश्री स्वर्णा प्रसाद के नाम की चिट्ठी में कुंदन और कुंती के तलाक़ की संयुक्त अर्ज़ी की कॉपी के साथ एक आग्रह था:

आदरणीया स्वर्णा दीदी, 

सादर प्रणाम। 

आप की आज्ञा लिए बिना मुझे वैनकूवर के लिए निकलना पड़ा, इस लिए क्षमा चाहता हूँ। नहीं मालूम रहा मुझे वीज़ा इतनी जल्दी मिल जाएगा। 

जानता हूँ मुुझे कमरा देते समय जो शर्तें आप ने र्निधारित की थीं, वह मैं निभा नहीं पा रहा। न ही जाने से पहले सात दिन का नोटिस दिए हूँ, न ही उसे ख़ाली किए हूँ। न ही अब मेरी एक्सरे की नौकरी के पहले के घंटे और बाद के घंटे आप की केटरिंग के लिए उपलब्ध रहेंगे। 

मगर यह भी जानता हूँ, दीदी, आप विशालहृदया हैं। बरसों पहले परचूनी का सामान आप को पहुँचाने जब भी आता, आप के हाथ से बिल के इलावा कुछ ज़्यादा ही पा कर लौटता। और देर-सवेर अपनी आठवीं और दसवीं के सालों में जो कभी आपकी रसोई में हाथ भी बँटाता तो एवज़ में पूरा मेहनताना पाता। आधा-पौना नहीं। पूरा। मुझे पूरा विश्वास है, दीदी, आप मुझे अवश्य ही माफ़ कर देंगी जब मेरी मुश्किल आप के सामने खुलेगी। 

आपको बताना ज़रूरी है कि जिस तलाक़ की संयुक्त अर्ज़ी की कॉपी आपको इस चिट्ठी में भेजी है, उस की मूल कॉपी यहाँ, कस्बापुर, के कोर्ट के फ़ैमिली कोर्ट में जमा कर रखे हूँ। 

तलाक़ का जो कारण, इनकम्पैटिबिलिटी, असामांजस्य, यहाँ दिया गया है, वह सच है। 

जब तक कुंती का पलस्तर बँधा था, वह धैर्य रखे रही। मेरी सुनती रही। लेकिन जब पलस्तर खुलने के बाद डॉक्टर ने कहा उस का टखना ठीक जुड़ा नहीं और उसे ऑपरेशन की ज़रूरत है, उस का धैर्य उस से छूट गया। उसके दिल-ओ-दिमाग़ पर उस ऑपरेशन की बात ने ऐसा घर आन जमाया कि वह मुझ से बेगानी हो गयी। मुझ से ज़्यादा अपनी फ़िक्र करने लगी। मेरे पास आती भी, तो बेतान, बेदम, बेज़ुबान। 

जानती भी रही परिवार के नाम पर जो मामा लोग हैं भी, उन्हें मैं पीछे छोड़ आया हूँ। नौकरी के नाम पर जो तनख़्वाह पाता हूँ, उस में से धेला नहीं बचता। मगर फिर भी मुझे वह अपना अपराधी ही मानती। 

ऐसे में मुझे उस से दूर जाना ज़रूरी लगा। और जा रहा हूँ। 

इस आशा और प्रार्थना के साथ कि आप उसे इस कमरे में रहने देंगी। उसके चाचा के पास उसे देने को बेआरामी के सिवा कुछ नहीं। 

यहाँ बेशक मेरी तरह न तो वह बाज़ार और दावतें सम्भाल पाएगी और न ही आपके स्टाक रजिस्टर का हिसाब रख पाएगी मगर इतना ज़रूर है वह पहले की तरह अब भी रोटी-परांठे सेंक सकती है, सब्ज़ी फल काट-छाँट सकती है। 

सच पूछें तो कमरा छोड़ने का मुझे उतना ही दुख है जितना कुंती को छोड़ने का। लेकिन मजबूर हूँ। 

मेरी क्षमा और प्रार्थना आप ज़रूर स्वीकारेंगी, इस आशा के साथ, 

आप का सेवक तथा कृपा-पात्र, 
कुन्दन। 

”बेचारी कुन्ती,” सुश्री स्वर्णा प्रसाद असंमजस में पड़ गयीं। 

कुन्दन यदि पाँच दिन पहले न गया होता तो जान लेता वह पिता बनने वाला था। 

कुंती की गर्भावस्था की पुष्टि उन्हींने करवायी थी। कुंदन के लापता होने के दूसरे दिन। 

उस दिन जब वह उनके पास अपने र्निधारित समय पर नहीं पहुँचा था और उसका मोबाइल भी नाकाम रहा था तो उन्होंने अपनी महरिन के हाथ उस दिन काम में आने वाले प्याज़ और लहसुन छिलवाने के लिए उस के कमरे में भिजवाए थे। 

और महरिन उसी पैर लौट आयी थी, ”कुन्दन कल रात से ग़ायब है और कुंती कै पर कै करे जा रही है . . .”

 

(4) 

 

उधर चिट्ठी मिलते ही उसी पाँचवें दिन किशोरीलाल अपने और्थो-सेन्टर की घड़ी में एक बजने का इंतज़ार करने लगे। 

सेन्टर में एक से दो बजे तक काम ठप्प रहा करता। 

एक बजते ही वह नत्थू लाल तिराहे की ओर निकल पड़े। प्रसाद भवन। 

अपने कमरे में कुंती कच्ची अमिया छील रही थी। 

पट्टी बँधे टखने वाली अपनी टाँग को दो ईंटों के सहारे टिकाए। 

उसके आगे एक थाली में ढेर सी अमिया धरी थी: आधी छिली। आधी अनछिली। 

अपने झोले में से किशोरी लाल ने कुंदन की चिट्ठी निकाली और बोले, ”जानती हो यह क्या है?”

”हाँ,” कुंती ने सिर हिलाया, ”स्वर्णा जीजी के पास भी यही काग़ज़ आए हैं . . .”

 ”फिर तुम ने क्या सोचा? मेरे साथ चलोगी?”

किशोरीलाल सज्जन व्यक्ति थे। कोमल हृदय के स्वामी। कुंती को अपनी ज़िम्मेदारी भी मानते थे, भले ही उनका परिवार कुंती के प्रति निर्मम था। 

”नहीं,” कुंती ने अपने हाथ की कच्ची अमिया पर अपनी छुरी चलानी जारी रखी, ”मैं यहीं रहूँगी . . .”

”कैसे?”

”स्वर्णा जीजी से सब तय हो गया है। मुझे वह काम देंगी। दे रही हैं। रोज़ाना। अपनी किसी भी ज़रूरत का। बीनने-सँवारने का। सीने परोने का . . .”

”तुम कर लोगी? इस टखने के बावजूद?”

”क्यों नहीं? कर तो रही हूँ। एक पैर नहीं। मगर दूसरा पैर और दोनों हाथ तो सलामत हैं . . .”

”मगर अकेली कैसे रहोगी?” किशोरीलाल की चिन्ता मिटी नहीं। 

”अब मैं अकेली नहीं हूँ। अपने गर्भ के साथ हूँ,” कुंती ने अपनी गरदन को एक बल खिलाया, “जो मेरा साथी बनेगा। साथी रहेगा।”

”कुन्दन जानता था?” किशोरीलाल सकपका गए। 

”नहीं,” कुंती का सुर ऊँचा हो आया, ”अच्छा हुआ जो जानने से पहले चला गया। अपनी सारी साझेदारी ख़त्म कर गया . . . अब यह सिर्फ़ मेरा बनेगा। मेरा रहेगा।”

”तुम्हें पति के जाने का कोई मलाल नहीं,” कुंती की इस भंगिमा, इस तान से वह अजान रहे थे, ”कोई ग़ुस्सा नहीं . . .”

“रत्ती भर नहीं,” कुन्ती ने एक झटके के साथ अपना चेहरा एक सिरे से दूसरे सिरे तक हिलाया, ”वह यहाँ रहता तो मुझे हरदम खपाए रखता। बहुत खपती रही हूँ मैं। हर दूसरे तीसरे के लिए। बचपन से ले कर जब तक। अब मुझे और नहीं खपना . . .”

“और यह जो अमिया तुम छीलती जा रही हो, यह खपना नहीं?” किशोरीलाल ने उसे अपने धरातल पर खींच लाना चाहा। 

“नहीं,” कुन्ती ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, ”यह खपना नहीं है। यह मेरी आजीविका है। मेरी अपनी चुनी हुई । जो मेरी मेहनत का लौटान लाती है। इस कमरे में मुझे बने रहने का दम देती है। यह कमरा अब मुझे छोड़ना नहीं है। अपनी सन्तान को इसी कमरे में जनना और पालना है। आज़ादी में। आज़ाद . . .”

”ईश्वर करे,” किशोरीलाल का गला भर आया, ”तुम्हारा यह हौसला बना रहे। फिर भी यह ज़रूर याद रखना मैं तुम्हारे साथ हूँ। हमेशा रहूँगा। सीमाएँ मेरी सीमित सही, लेकिन तुम उन से बाहर नहीं हो।”

”जानती हूँ, चाचा। आप ही के दम पर पली-बढ़ी हूँ। लेकिन अब और नहीं। अब मुझे अपने दम पर रहना है, अपने दम पर जीना है और अपने ही दम पर अपनी सन्तान का पालन-पोषण करना है . . .”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं