बाबूजी की ज़मीन
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा15 Nov 2022 (अंक: 217, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
”हमारे पास ज़मीन क्यों नहीं है?” बाबूजी की ज़मीन की बात पहली बार मैंने अपने सातवें वर्ष में उठाई थी जब मेरे ज़मींदार ताऊ हमारे घर पर बासमती, मूँग और उड़द की तीन बोरियाँ पहली बार लाए थे, “मेरी ज़मीन की सौग़ात है . . .”
मेरे दादा की मृत्यु उस समय हाल ही में हुई थी जो अभी तक हमारे लिए अनाज और दालें लाते रहे थे, “तुम्हारी ज़मीन की हैं . . .”
”क्योंकि हमारे पास अपनी प्रिंटिंग प्रेस है,” एक थपकी के साथ बाबूजी ने मुझे अपने कंधे पर उठा लिया था।
उस समय उनके कंधे ख़ूब चौड़े थे और काठी भी ख़ासी मज़बूत।
“वह ज़मीन है?” ताऊ हँसे थे, “जो फ़सल उगाने की बजाय काले काग़ज़ उगलती है?”
”काग़ज़ काले नहीं करती,” बाबूजी नाराज़ हो गए थे, “उन पर मोती उकेरती है . . .”
“भाई नुक़्सान की बात बहुत करता है . . .”
ताऊ तब नहीं जानते थे बाबूजी का वह छापाखाना पैंतीस साल बाद इतनी ऊँची क़ीमत पर बिकेगा। सौ गुना लाभ के साथ।
♦ ♦ ♦
”सारी क़ीमत तो ज़मीन की है,” छापेखाने और उसके ऊपर बने मकान की ख़रीद का भाव बताते समय प्रॉपर्टी डीलर बोला था।
“ज़मीन की?” मैं ठिठका था।
“और क्या? ऊपर मकान एकदम ख़स्ताहाल है और छापेखाने की मशीनें बहुत पुरानी। आज की ऑफ़सेट और रोटो ग्रैव्यूर प्रिंटिंग और मल्टी कंप्यूटराइज़्ड टाइपसेटिंग के ज़माने में यह लेटर-प्रेस सिस्टम वाली टू-कलर शीट फ़ेड-फ़्लैटबेड वाली सिलंडर प्रेस के कोई क्या दाम देगा?”
“हूँ . . . हूँ . . .” मैंने सिर हिलाया था। बाबूजी की ज़मीन की धरातल उसकी समझ से बाहर थी। जिस ज़मीन को बाबूजी आख़िर तक पकड़े रहे, वह ज़मीन न कभी बेची जा सकती थी, न ख़रीदी। उसकी लंबाई-चौड़ाई भी माप के बाहर थी।
वह अब मेरे अंदर घर किए बैठी है। लेकिन अफ़सोस, मैंने उसे घर दिया उन्हें खोने के बाद।
उन्हें खोने के दिन . . .
♦ ♦ ♦
“मैं डॉ. दुर्गादास बोल रहा हूँ,” उस दिन ग्यारह बजे मुझे मेरे पोलिटेक्निक पर फोन आया।
“बाबूजी आपके पास हैं?” माँ की मृत्यु के बाद ही से मुझे खटका था। बाबूजी की तकलीफ़ मुझसे पहले इन्हीं डी-थ्री अंकल (डॉ. दुर्गादास का उल्लेख हम इसी नाम से करते हैं) के पास पहुँचेगी।
“हाँ, उन्हें दिल का दौरा पड़ा है। मैंने अपने नर्सिंग होम में दाख़िल कर लिया है। आई.सी.यू. के केबिन नं. पाँच में। तुम्हें फ़ौरन आ जाना चाहिए . . .”
“मैं पहुँच रहा हूँ . . .”
मेरे पोलिटेक्निक से छापेखाने की दूरी बीस किलोमीटर से कुछ ऊपर ही थी। बल्कि इसी दूरी का हवाला देते हुए मैंने बाबूजी का मकान सन् 1992 ही में छोड़ दिया था। उसी साल मुझे इस पोलिटेक्निक में अध्यापन-कार्य मिला था और यहाँ के छात्रावास का एक कमरा मुझे सहज में मिल गया था। मेरे विवाह के उपरांत फिर यहाँ के आवास-क्षेत्र का एक फ़्लैट ही मुझे नियमानुसार अलॉट कर दिया गया था। और माँ और बाबूजी से पारस्परिक दूरी बनाए रखने का यह दोहरा कारण बन गया था।
असली कारण कुछ और था।
असल में अपनी किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते माँ और बाबूजी के प्रति मेरी बचपन की आस्था लड़खड़ाने लगी थी।
माँ के ग़ैर-हिंदू होने के भेद को समझ लेने के कारण।
और यह समझ मेरे कुछ परिचित ठाकुर-परिवारों और बाबूजी के परिवारजन के माँ के प्रति अलगाव-भरे व्यवहार से उपजी थी और साल दर साल बढ़ती चली गई थी . . .
एक नए भय के साथ, ईसाई धर्म की माँ के बेटे होने के नाते विशुद्ध यह ठाकुर लोग कहीं मुझे अलग न छिटक दें?
एक नए क्रोध के साथ, बाबूजी ने उन्हें मेरी माँ बनाकर क्यों मुझे वंशागत कुलीनता से वंचित कर दिया?
एक नई वितृष्णा के साथ, बाबूजी के निरीश्वरवाद के प्रति, माँ के यीशु मसीह को अपना ईश्वर मानने के प्रति . . .
फिर माँ और बाबूजी से विमुख होकर मैं अपने ताऊ-ताई की ओर घूम पड़ा था। अपने विवाह की व्यवस्था और आयोजन के लिए भी मैंने उन्हीं को आगे किया था। मेरी पत्नी उन्हीं की देखी-भाली विशुद्ध प्रजनित ठाकुर-परिवार से रही, जिसे माँ को एक गृहस्वामिनी के अधिकार देने स्वीकार्य नहीं थे।
नर्सिंग होम के आई.सी.यू. के बाहर सबसे पहले मुझे अपना पुराना नौकर कुंदन दिखाई दिया और बाद में बाबूजी के छापेखाने के पाँचों कर्मचारी।
सभी सकते में थे।
“बाबूजी कैसे हैं?” मैंने पूछा।
“कुछ मालूम नहीं,” कुंदन ने कहा।
मैं केबिन नं. 5 में बढ़ लिया।
डी-थ्री अंकल एक समूह के साथ वहाँ बाबूजी का ब्लड-प्रेशर माप रहे थे।
मैंने उनकी दिशा में अपने हाथ जोड़ दिए।
उन्होंने अपना सिर हिला दिया। चिंतित मुद्रा में।
बाबूजी अचेत थे। मगर उनके हाथ और पैर सिहर रहे थे। शायद अपने से संबद्ध ई.सी.जी. मशीन के कारण जिसकी स्क्रीन पर एक ग्राफ निरंतर उछल रहा था।
“ब्लड-प्रेशर अभी क़ाबू में नहीं आ रहा,” डी-थ्री अंकल ने अपनी ब्लड-प्रेशर की मशीन समेटते हुए कहा, “अगले चार घंटे पूरी चौकसी रखनी होगी . . .”
“क्या रीडिंग है?” मैंने पूछा।
“220/140। लगता है इधर अपनी ब्लड-प्रेशर की दवा ठीक से नहीं लेते रहे।”
”शायद,” मैं झेंप गया। बाबूजी के ब्लड-प्रेशर की मुझे अभी तक कोई जानकारी नहीं रही थी। इधर उन्हें मिले हुए मुझे कई महीने हो चले थे। फोन पर यदा-कदा जब उनसे बात होती भी थी, तो उनकी आवाज़ में मैंने हमेशा पहले वाला दम, पहले वाला जीवट और पहले वाला आक्रमण ही पाया था।
“मेरे साथ आओ,” डी-थ्री अंकल ने मुझे अपने पीछे आने का संकेत दिया।
“जी, अंकल,” मैंने कहा।
“जब तक मेरे ये दो डॉक्टर और यह नर्स बने रहेंगे,” उन्होंने पीछे रह गए अपने समूह की ओर संकेत दिया।
“यस सर . . .” समूह ने हामी भरी।
“बाबूजी बचेंगे तो?” जैसे ही हम केबिन से बाहर हुए मैं पूछ बैठा।
“मालूम है?” उन्होंने अपनी बाँह से मेरी पीठ घेर ली, “जब तुम्हारी माँ के बारे में मैंने उन्हें कहा, शायद वे अब बचेंगी नहीं तो वे क्या बोले? . . .बचेगी कैसे नहीं। वह मेरे अंदर हमेशा बची रहेगी। उन्हीं की बात दोहराऊँगा, वे ज़रूर बचेंगे। तुममें। मुझमें। उनका हौसला बचा रहेगा। तुम्हारे साथ। मेरे साथ। मालूम है? उनका हौसला कैसा हौसला था? सिविल सर्विस में बैठे। नहीं आए। आगे बढ़ लिए। छापाखाना ख़रीदा। नहीं चला। मगर वे उसे चलाते चले गए। बिना झुके। ईसाई लड़की से प्रेम हुआ तो उससे शादी कर ली। परिवार ने विरोध किया तो कचहरी में जाकर रजिस्ट्रार से शादी का सर्टिफ़िकेट हासिल कर लिया। पूरी ज़िम्मेदारी के साथ। कैंसर उसे लील ले गया तो उसे उसकी इच्छानुसार क़ब्र दी। पूरी धज से। दुनिया की ऐसी की तैसी। हौसला है, हौसला। अटूट और मज़बूत। कोई कितने भी हथियार खड़खड़ाए आप अपने हथियार सीध में मिलाते चले गए . . .”
डी-थ्री अंकल बाबूजी के गाँव के थे और अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई के दिनों तक मेरे दादा के आश्रित-राज्य के लाभ-भोगी भी रह चुके थे। बेशक अपनी पढ़ाई ख़त्म करते ही वे अपने भावी ससुर के संरक्षण में चले गए थे जो उन्हें स्थानीय मेडिकल कॉलेज में पढ़ा चुके थे और रिटायर होने के बाद अपना यह नर्सिंग होम खोल लिया था। यहीं से सन् 1966 में डी-थ्री अंकल ने इस छापेखाने के बिकने की सम्भावना की सूचना बाबूजी को दी थी। छापेखाने का पुराना मालिक इसे बेचकर टीवी की एजेंसी ख़रीदना चाहता था। इधर बाबूजी भी उस साल के आते-आते स्थानीय यूनिवर्सिटी में एम.ए. कर लेने के बाद सिविल सर्विस परीक्षा में तीन बार विफल हो चुके थे और उन दिनों अपने लिए कोई विकल्प खोज रहे थे। ऐसे में इस छापेखाने को चलाने का प्रस्ताव उन्हें भा गया था। मेरी माँ से भी बाबूजी इसी नर्सिंग होम में मिले थे जहाँ वह एक नर्स का काम करती थीें।
“दौड़कर यह दवा और एंजेक्शन ले आओ। फिर ऑक्सीजन का प्रबंध करना होगा . . .”
“जी, अंकल . . .”
♦ ♦ ♦
“बाबूजी कैसे हैं?” आई.सी.यू. के बाहर डेरा डाले छापेखाने के आदमी और कुंदन मुझे देखते ही मेरी ओर बढ़ आए।
“कुछ पता नहीं,” मैं एक शून्य में विचर रहा था, “अभी तो कुछ सामान लाना होगा . . .”
“आप हमें बताइए,” सभी लगभग एक साथ बोल पड़े, “हम सब कर लेंगे। आप बाबूजी के पास बैठिए . . .”
“और ख़रीद के रुपए?” अपनी जेब से मैंने अपना बटुआ निकालकर खोल लिया।
“अभी कुछ मत दीजिए, भैया जी,” कुंदन ने कहा, “इस इलाक़े का चप्पा-चप्पा बाबूजी को जानता है। मानता है। हम रामप्रसाद के साथ विंध्याचल को भेज देते हैं और ये सारा सामान अभी लाए देते हैं . . .”
डी-थ्री अंकल की पर्ची मैंने न बढ़े हाथों में थमा दी।
“आज सुबह ही से बाबूजी का जी अच्छा नहीं था,” कुंदन ने मुझे स्निग्धता दिखाई, “अम्मा की आलमारी खोले बैठे थे। चाय नहीं पी। नाश्ता नहीं किया। नहाए नहीं। आठ बजे हमें फूल लिवाने भेज दिए। हम समझ लिए, अम्मा की समाधि पर आज फिर जाएँगे। पत्नी के ऐसे भक्त हमने बिरले ही देखे हैं . . .”
“साढ़े आठ के क़रीब हमारे पास आए हैं.” एक प्रेसमैन भी शुरू हो लिया, “हाथ का मेक-रेडी फार्म हमें थमाए हैं, फिर चेस में जब हम ले-आउट जमाने लगे हैं तो हमसे बोले हैं, लॉक-अप करते समय कलर वाले फार्म की अंडर-ले का ज़रूर ध्यान रखना, कोई तस्वीर आउट ऑव रजिस्टर न होने पाए, इस फार्म की तैयारी में मैंने बहुत घंटे खपाए हैं। और हम हँसे हैं, मेक-रेडी का यह चक्कर अब छोड़िए, नई मशीनें लाइए और इलैक्ट्रोनिक पेज मेकअप शुरू करवाइए . . .”
“और बाबूजी ने क्या जवाब दिया?” मैं उत्सुक हो लिया। दो-तीन साल पहले जब मैंने उन्हें यह सुझाव दिया था तो वे मुझ पर झपट पड़े थे, “जब यह छापाखाना मेरे साथ ख़त्म ही होने वाला है तो तुम इसकी फ़िक्र क्यों रखते हो?”
“जवाब वही पुराना,” वह प्रेसमैन गंभीर हो गया, “ये मशीनें मुझे पहचानती हैं और मैं इन्हें। इस जवाब पर सिलंडर का प्लेट लगा रहे विंध्याचल भी हँस दिए हैं, नई मशीनें भी पहचान लेंगी। आप उन्हें लाइए तो। शहर के प्राइम कमर्शियल एरिया पर आपका छापाखाना खड़ा है। इसका एक-चौथाई हिस्सा भी बेचेंगे तो उन मशीनों की ख़रीद निकल आएगी। और बाबूजी झल्लाए हैं, चलो, अभी तो काम शुरू करो . . .”
“फिर करीम रबर रोलर पर इंक लगाए हैं,” दूसरा प्रेसमैन बोला, ”और रशीद फाउंटन को एडजस्ट करने में लग गए हैं। और इधर हम ग्रिपर्ज से डिलीवरी करने को अपनी ट्रे तैयार किए हैं और सोच रहे हैं, बाबूजी प्रेस का बटन अभी दबाए कि दबाए, कि तभी देखते हैं वे एकाएक फ़र्श पर बैठ लिए हैं और डॉ. साहब का नाम पुकारे हैं, ‘डी.डी.’ और रामप्रसाद नर्सिंग होम की तरफ़ दौड़ पड़े हैं . . .”
“और हमसे जो अम्मा की समाधि के लिए फूल मँगवाए हैं, हम वे फूल लिए हक्के-बक्के खड़े हैं,” कुंदन ने कहा, “जब डॉ. साहब अपने नर्सिंग होम से बाबूजी के लिए स्ट्रैचर मँगवाए हैं . . .”
♦ ♦ ♦
तीसरे घंटे जब बाबूजी की चेतना लौटी तो उस समय मैं उनके साथ था। अकेला।
इस बीच ऑक्सीजन का प्रबंध भी मुझसे सुलह करनी होती वे ऐसी ही अँग्रेज़ियत दिखाया करते।
“डी-थ्री अंकल को बुलाऊँ?” आगे बढ़ा हुआ उनका हाथ मैंने अपने दोनों हाथों से ढाँप लिया।
“नहीं, अभी नहीं,” उनका स्वर बहुत धीमा, बहुत कमज़ोर था, “एलिस की आज बरसी है . . .पहली बरसी . . .”
माँ का नाम एलिस था।
“हाँ,” मैंने कहा।
माँ के अंतिम संस्कार पर हुई अपनी बहस मुझे याद आ गई। मैं माँ का दाह-कर्म करना चाहता था। मगर बाबूजी उन्हें क़ब्रिस्तान में दफ़नाने पर अड़े रहे थे, “एलिस अपने आख़िरी दम तक यीशु को अपना ईश्वर मानती रही है, और मैं सिर्फ़ उसी के लिए जवाबदेही रखता हूँ, किसी भी दूसरे जन के लिए नहीं . . .” फिर मेरी ताई ने आगे बढ़कर मुझे मेरी पत्नी और बच्चों के सामने याद दिलाया था, “अपनी शादी के समय भी इन्होंने अपने मन की मानी थी, पूरे परिवार की अवमानना करते हुए कचहरी में जा शादी रचाई थी।” और मैं ज़मीन में गड़ गया था। मेरी बेटी उस समय अपने चौदहवें साल में दाख़िल हो रही थी और बेटा ग्यारहवें साल में।
“एलिस के लिए तुम्हें आज कुछ करना होगा,” बाबूजी फुसफुसाए, “उसे तुम्हें अपने दिल में जगह देनी होगी। अपने अंदर तुम्हें अपना बचपन बचा रखना होगा . . .”
बिना मुझे कोई चेतावनी दिए बाबूजी की दिशा से एक उछाल मेरे कलेजे में आन उतरा। मेरी समूची देह में एक थरथराहट, एक तड़पड़ाहट दौड़ता हुआ।
मेरे अंदर कुलबुला रही सुबकियाँ बाहर निकल भागीं।
और मैं रोने लगा . . .
माँ के लिए . . .
बाबूजी के लिए . . .
अपने लिए . . .
“क्या हुआ?” बग़ल वाली केबिन से एक नर्स वहाँ आ पहुँची।
“बाबूजी को देखिए,” मैंने अपने को सँभाला।
नर्स ने स्क्रीन पर अपनी नज़र दौड़ाई।
वहाँ तरंगें कलैया मार रही थीं।
नर्स उसी पैर लौट ली।
अगले ही पल डी-थ्री अंकल केबिन में अपने समूह के साथ चले आए।
“ऑक्सीजन मास्क लगाना होगा,” उन्होंने अपने समूह को संबोधित किया।
ऑक्सीजन के बावजूद बाबूजी लौट नहीं पाए।
प्राणविहीन उनकी देह के साथ वह रात मैंने छापेखाने वाले मकान पर बिताई।
कुंदन ने दो-एक बार कहा भी कि सुबह तक वह भी बाबूजी के पास रहना चाहेगा मगर मैंने उसे नीचे बने उसके कमरे में वापस भेज दिया।
मेरे मोबाइल पर मेरी पत्नी ने भी मेरा वहाँ साथ देने का प्रस्ताव मेरे सामने रखा परन्तु उसे भी मैंने टाल दिया।
मुझे वह रस्सी अकेले में उस खूँटे से बाँधनी थी जिसे इतने साल मैं दाँव पर रखे रहा था।
एक सतही खूँटे के बल उछलने के लोभ में।
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