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दोहरा लेखा

 

(1)

रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रुकने से पहले ही मैं जान लिया था इन चार सालों में मेरा कस्बापुर बदल लिया है। पिछली बार अपने पिता के देहावसान पर आए रहा था। 

यह नया पॉलिटेक्निक, यह नया रैज़िडेंट स्कूल, नई गाड़ियों के ये नए शो-रूम तब कहाँ दिखाई दिए थे? 

और रेलवे स्टेशन का तो ख़ाका व स्थाप्त्य तक बदल दिया गया था। 

शहर से एकदम बाहर इस नई जगह पर इस का यह नया आकार और रूप-विधान यह किस ने निश्चित किया था? 

कस्बापुर के नगर निगम ने? 

अथवा केन्द्र या प्रदेश की नई सरकार ने? 

स्टेशन से बाहर निकल कर टैक्सी या औटो-रिक्शा लेने की बजाए मैं अपने क़दम रिक्शा स्टैंड की ओर बढ़ा ले गया। 

उनकी क़तार देखी तो ध्यान आया चार वर्ष पूर्व मेरे पिता के जेल डॉक्टरों ने मुझे बताया था, अपनी मृत्यु से कोई चार-छह दिन पहले से वह अक्सर अपने को रिक्शे वालों से या तो घिरा हुआ पाते थे—एकदम बीचों-बीच, अभिमन्यु की भाँति–या फिर उन्हें एक साथ अपनी ओर दौड़ते हुए देखा करते थे। मानो वह उन का लक्ष्य-स्तंभ रहे हों। 

“फ़व्वारा घर?” मैंने हवा में अपना पता लहराया। जानते हुए भी भाई अब वहाँ नहीं रहते। उधर फ़ैक्ट्री के पास एक नया मकान ख़रीद लिए हैं। 

“हम चलेंगे,” क़तार तोड़ कर एक रिक्शा वाला अपना रिक्शा मेरी ओर बढ़ा लाया। 

“अब वहाँ न फ़व्वारा है, न घर,” छोटे शहर के रिक्शे वाले सब जानते हैं क्या? 

“क्यों? कैसे?” अनजान बन कर मैंने उड़ती ख़बर छान लेनी चाही। 

“जिनके हाथ उनके वह पिछले मालिक बेच गए हैं, उन लोगों ने वहाँ नई बिल्डिंग बनाने की ख़ातिर उसे तोड़ डाला है।” 

“फिर भी तुम मुझे वहीं ले चलो।” 

स‌न्‌ उन्नीस सौ सत्तर के दशक में जब शीशे, धातु, चमड़े और लकड़ी के बदले में प्लास्टिक का इस्तेमाल बढ़ने लगा था तो मेरे दादा चादरी लोहे की ढलाई का अपना काम छोड़ कर नायलोन के पत्तर तैयार करने लगे थे। 

निर्माण प्रक्रिया की प्रगति शुरू में बेशक ढीली रही थी किन्तु आगामी दस वर्ष उन्हें इतनी समृद्धि अवश्य दे गए थे कि वह हमें कस्बापुर की अँधेरी गली के तंग मकान से बाहर निकाल कर इस ‘फ़व्वारा घर’ में ले आए थे। 

बेशक उन्होंने इसे ख़स्ताहाल में ख़रीदा था लेकिन इस की मरम्मत पर उन्होंने दिल खोल कर ख़र्चा किया था। और इसे इस के पुराने रईसी रूपरंग में लौटाने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाही थी। हालाँकि उनके भाग्य में यहाँ ज़्यादा दिन रहना बदा न रहा था। हमारा नया-पुराना सामान इस में अभी लगाया ही जा रहा था कि वह मृत्यु को प्राप्त हो लिए थे। 

“आप देहली से आ रहे हैं?” मेरे हाथ से मेरा सूटकेस लेते समय उस का दायाँ हाथ मुझ से टकरा गया और मेरी नज़र वहीं जम गई, “वही गाड़ी अभी आई है।” 

उस के हाथ में एक नहीं दो अँगूठे थे। 

अ बाए-फ़िड थम्भ। एक बड़ा अँगूठा और हथेली से जुड़ा हुआ दूसरा छोटा अँगूठा। 

जिस एकल रिक्शेवाले से बचपन में मैं व बहन अपने अपने स्कूल जाया करते थे, उस के भी दो अँगूठे रहे थे। सुभागा नाम का। अपने नाम के बारे में वह बताया करता कि उस के माता-पिता ने उसे यह नाम उस आम धारणा के अंतर्गत दिया था जिस के अनुसार दो अँगूठे वाले लोग बहुत भाग्यशाली व बुद्धिमान होते हैं जब कि बाद में मैंने अपनी पढ़ाई के दिनों में जाना था कि विज्ञान के अनुसार यह गर्भ के विकास के दौरान किसी एक विसंगति अथवा आनुवांशिक कारण से होती है। 

वही सुभागा था वह? 

लेकिन कैसे? 

पीठ उसकी क्यों आगे की तरफ़ झुक आयी थी? 

और गाल मानो खाल और हड्डी! 

चेहरा भी कितना निस्तेज और कुम्हलाया हुआ!! 

बहन उसे इस हालत में देखती तो क्या बोलती? क्या करती? 

कमबख़्त रिक्शा ढोने के वास्ते कस्बापुर लौट आया था? अपने कस्बापुर? 

“फ़व्वारा घर मेरे एक दोस्त का पता है,” मैंने अपने को अज्ञात रखना चाहा। 

मैं नहीं चाहता था, वह मुझे पहचाने। 

यों भी मेरे पुराने दोस्त मुझे जल्दी पहचान नहीं पाते। इधर कुछ वर्षों से दूरदर्शन की मेरी नौकरी मुझे कई आर्टिस्टों के निकट लाती रही है और मैं भी उन्हीं की तरह ‘अलग’ और ‘विशिष्ट’ दिखाई देने के चक्कर में अपनी दाढ़ी घटाता-बढ़ाता रहता हूँ। इन दिनों मेरी दाढ़ी से मेरी ठुड्डी ही नहीं, मेरे गाल भी ढँके हुए हैं। 

“मेरा दोस्त जानना चाहता है कितने रुपयों में सौदा तय हुआ . . .” टेलीफ़ोन पर भाभी ने मुझे गोल-सी सूचना दी थी, “अभी दो लाख पेशगी मिला है। बाक़ी रक़म मिलने में अभी समय लगेगा। जैसे ही वह रक़म मिलेगी, मैं फ़ोन करूँगी . . .” 

“सुनने में आया है, अट्ठाईस लाख उगाहा गया है,” रिक्शे की गति उस ने बढ़ा ली। 

“कितनों में बँटेगा?” मैंने टोहा। 

“कहने को तो इस वारिस का एक छोटा भाई बताया जाता है लेकिन वह यहाँ नहीं रहता। शहर छोड़े हुए उसे पंद्रह साल बीत चले . . .” 

यह सच था। बाबूजी के जेल जाने के बाद ही से भाई ने अपने को पहले से भी अधिक तन्मयता से कारोबार में पूरी तरह झोंक दिया था। किन्तु मैंने अपनी बारहवीं ख़त्म होते ही कस्बापुर छोड़ दिया था। बहन के न रहने से मेरा वहाँ दम घुटता था। 

“और बहनें? वे ज़रूर इधर ही कहीं ब्याह दी गई होंगी? छोटे शहरों में लोग अपनी बेटियों को दूर नहीं ब्याहते . . .” 

मैंने देखना चाहा उसका घाव कितना भर चुका था। 

“बेटी उस लाला की एक अकेली रही। लेकिन उस के भाग में ब्याह लिखा नहीं था। बेचारी छोटी उम्र ही में पूरी हो गई।” 

“कैसे?” अपनी टीस को मैंने लबादा पहना दिया। 

“उस बाबत हम जो भी बताएँगे तो आप शक में पड़ जाएँगे। या तो सोचेंगे हम गप लड़ा रहे हैं या कहेंगे हम चुग़ली कर रहे हैं।” 

“क्यों?” उस की भड़ैंती मुझे अप्रिय लगी, लेकिन खिड़की मैं खुली देखना चाहता था, “कैसी गप? कैसी चुग़ली?” 

“बेटी की बात कहेंगे तो आप उसे गप मानेंगे। बाप की बात कहेंगे तो आप उसे चुग़ली का दर्जा देंगे . . .” 

“ऐसी क्या बात है?” अपने स्वर में मैंने अपने आग्रह का दबाव बढ़ा दिया। 

छिपे-छिपे, धीरे-धीरे उस के मन में घूम लेना चाहा। 

“जो बेटी थी, वह हमें बराबरी की ज़मीन देती थी और बराबरी का आसमान। लेकिन जो बाप था वह मुझ ग़रीब को सिर्फ़ बैल का दर्जा देता था, जिसे कोल्हू में लगातार पिलते रहना चाहिए था। अपनी आँख मूँद कर। अपना दिल मसोस कर . . .” 

“और वह आँख क्या देखना चाहती थी? वह दिल क्या बटोरना माँगता था?” 

“आँख सपना देखना माँगती थी और दिल उस सपने को अपने पास रोक रखना चाहता था।” 

मालूम रहा मुझे। 

जानता रहा मैं। 

वह सपना जो उस ने बहन की आँख में उतार रखा था . . .

(2)

उन्नीस साल पहले का वह दिन मेरे सामने आन खड़ा हुआ। जब बाबूजी ने बहन को अपने कमरे में बुलवाया था। 

“कल से तू स्कूल नहीं जाएगी . . .” 

बहन ने मेरा हाथ ज़ोर से दबाया था। बाबू जी के पास वह अकेली कभी न जाती थी। उनके सामने मुझे हमेशा अपने साथ-साथ रखती। 

“इन्हें हमारे साथ स्कूल जाने दीजिए, बाबू जी,” मैंने बहन की हिमायत की थी। 

“नहीं, यह नहीं जाएगी . . .” 

“ठीक है, नहीं जाऊँगी . . .” 

“शाबाश। तेरी शादी मैंने तय कर दी है . . .” 

“मैं अभी शादी नहीं करूँगी,” मेरा हाथ छोड़ कर बहन अकेली मैदान में कूद पड़ी थी, “और शादी करूँगी तो अपने मनपसंद लड़के से . . .” 

जभी कनसुई ले रही हमारी सौतेली माँ आन प्रकट हुई थी, “किस से शादी करेगी?” 

“सुभागे से . . .” 

“देख लीजिए। उसे आप ने रिक्शा ख़रीद कर दी थी। क्या इसीलिए? कि नज़र उस की खोटी हो जाए? इज्ज़त हमारी बरबाद हो जाए?” 

“नज़र उसकी खरी है,” बहन गरज ली थी, “और इज्ज़त भी हमारी साबुत है . . .” 

“ख़ाक साबुत है?” सौतेली माँ ने अपने हाथ नचाए थे, “नाम जो उस का जैसे ले रही है तो साफ़ है दुमुँहा वह साँप तुझे डस चुका है . . .” 

“अम्मा को रोकिए, बाबूजी,” बहन रो पड़ी थी, “यह हमेशा टेढ़ा बोलती हैं, टेढ़ा समझती हैं . . .” 

मुँह-चोर हमारी सगी माँ के ठीक विपरीत यह सौतेली माँ मुँह-ज़ोर थीं और हम बहन-भाइयों के साथ सीधे मुँह बात करना उनके लिए असंभव रहा था। 

“मुँह-जली, मुँह सँभाल अपना,” बाबूजी उन पर बरसे थे। 

“सिलवा दो, सिलवा दो,” वह अपना माथा पीटने लगीं थीं, “मुँह मेरा सिलवा दो। लेकिन इतना ज़रूर जान लो कि मुझ बेगुनाह का मुँह पकड़ने से बात दबाए न दबेगी। सौ मुँह खुलेंगे और तुम पर थूकेंगे . . .” 

ग़ुस्सा बाबूजी को जब भी हाथ में लेता, उनके हाथों में ज़्यादा हरकत लाता, उनकी ज़ुबान में कम। 

उसी पल उनके हाथ अपनी मेज़ की दराज़ की ओर बढ़ लिए थे और वहाँ रखी रिवाल्वर को वह बाहर निकाल लाए थे। 

रिवाल्वर से उन्होंने पहले बहन को निशाना बनाया था और फिर हमारी सौतेली माँ को। 

उस समय बहन अठारह की थी और हमारी सौतेली माँ तैंतीस की। 

और मेरी उम्र? 

कुल जमा चौदह। 

भाई ज़रूर बाइस के थे। और अच्छे क़द-काठ के भी। गोलियों की आवाज़ सुनते ही वह कमरे में चले आए थे। और बाबू जी की पीठ के पीछे से उनके हाथ कस कर पकड़े थे और उन्हें वह रिवाल्वर मेज़ की दराज़ में वापस पहुँचाने के लिए बोले थे। 

(3)

“तुम्हारा सपना पूरा होते तुम्हें देखने को मिला क्या? बटोरने को मिला क्या?” 

मैं वर्तमान में लौट आया। 

रिक्शे पर। 

“हाँ देखा। देखा। पूरा होते देखा। बटोरा। बटोरा। ख़ूब बटोरा। 

“सपना क्या था?” मैं भौचक्का रह गया। 

“लाला के बरबाद होने का। लाला के लाचार बनने का।” 

“मगर क्यों?” मुझे गहरा सदमा पहुँचा। 

“उस ने मेरा भाग छीना था। मेरे पिता का, मेरी माँ का, मेरी चार बहनों का, सभी का . . .” 

“कैसे? कब?” मैं हकबका गया। 

“मैं तेरह साल का था। पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था। इधर शहर के स्कूल में। अपने पिता के पास। जो नायलोन वाली एक फ़ैक्ट्री के मालिक की गाड़ी चलाते थे। उधर गाँव में पूरा परिवार था। छोटी बहनें थीं। और सब को पालने वाले एक अकेले मेरे पिता। जो सोचते थे वह मुझे अच्छा पढ़ाएँगे, ऊँची नौकरी दिलाएँगे। लेकिन हुआ क्या? करतूूत मालिक के बेटे की। और सज़ा पाई मेरे पिता ने, मैंने, माँ ने, बहनों ने . . .” 

“मगर कैसे? क्यों?” 

“अपने को पुराना रईस साबित करने के लिए मालिक ने एक बड़ी मोटर ख़रीद डाली थी और उस का बेेटा, बन्ने लाला, उस पर अपना हाथ आज़माने लगा था। मेरे ड्राइवर पिता को साथ ले कर। इधर फ़व्वारा घर तो वह परिवार बहुत बाद में आया . . .” 

“ऐसा क्या?” जानते हुए भी मैं अनजान बन गया। 

“परिवार पहले शहर की एक तंग गली में रहता आया था। खुली, बड़ी सड़कों के ट्रैफ़िक के बारे में कम जानता था। तभी मोटर चलाते समय बन्ने लाला एक स्कूटर सवार व उस के पीछे बैठी सवारी को ले बैठा। पुलिस केस बना। जिसे कचहरी तक ले जाया गया। फ़ैसला अभी आया न था कि इसी बीच मालिक चल बसा। फ़ैसला आया तो बन्ने लाला ने मेरे पिता को आगे कर दिया। चौदह साल की सज़ा भुगतने . . .” 

“मगर तुम्हारे पिता ने पुलिस को अपनी सफ़ाई नहीं दी?” 

“मालिक ने पहले ही दिन से मेरे पिता से यह कबूलने को मनवा लिया था कि टक्कर के समय गाड़ी वही चला रहे थे। पिता मेरे राज़ी हुए थे उस वचन के भरोसे, कि अव्वल तो हमारा वकील साबित ही कर देगा, टक्कर स्कूटर वाले की ग़लती से हुई थी वरना सज़ा अगर होगी भी, तो मालिक लोग हमारे परिवार का पूरा ज़िम्मा उठाएँगे। उनकी मौजूदा तनख़्वाह की दुगुनी रक़म हर माह हमारे गाँव पहुँचाएँगे और मुझे आगे दूर तक पढ़ाएँगे। लेकिन बदक़िस्मती हमारे परिवार की, जो मेरे पिता अपनी सज़ा आधी भी न पूरी कर पाए थे कि उनकी वहीं जेल में मृत्यु हो गई . . .” 

“यह तो बहुत बुरा हुआ . . .” 

“पुराना मालिक तो रहा नहीं था। कर्ता-धर्ता अब वही बन्ने लाला था। उस ने मुझ से मेरी दसवीं की पढ़ाई छुड़वा कर मेरे हाथ में अपनी ख़रीद का एक रिक्शा थमा दिया, ‘तेरा मेरा हिसाब अब ख़त्म। अब तुझे इसी से अपना घरबार चलाना होगा। इसे चलाना सीख लेगा तो छोटे भइया और दीदी को उनके स्कूल पहुँचाने-लिवाने का काम तेरे ज़िम्मे कर देंगे। और बदले में थोड़ा-बहुत जो मुनासिब समझेंगे तुझे दे भी देंगे’।” 

“स्कूल दूर थे?” मैंने पूछा। 

“लड़की का दूर था। बहुत दूर। लड़के का भी दूर था। लेकिन कम दूर।” 

“लड़की के साथ तुम ज़्यादा वक़्त गुज़ारते थे? ज़्यादा बात करते थे?” उस का ध्यान मैंने अपने पिता के प्रतिकूल व्यवहार से हटा देना चाहा। 

“उन दिनों मुझ पर पढ़ाई का भूत सवार था। दसवीं कक्षा का इम्तिहान देना चाहता था। प्राइवेट। लड़की दसवीं ही में पढ़ती थी। उस से उस की किताब माँग लिया करते थे और पा जाया करते थे।” 

“फिर?” 

“फिर एक दिन हम फ़व्वारा घर जाते हैं और सुनते हैं कि बन्ने लाला ने अपनी बेटी और औरत को मार डाला है और जेल चला गया है . . .” 

“तुम्हें सुन कर अच्छा लगा?” 

“नहीं। पहले तो दुख ही हुआ। सरस्वती जैसी उस लड़की के दर्शन अब कभी न होंगे। लेकिन बाद में जब सोचने लगे तो यही लगा बन्ने लाला के साथ ठीक हुआ। न्याय हुआ।” 

“लाला की सज़ा का माप उसकी चूक के माप से बड़ा नहीं लगा?” मैंने उस में दया-भाव जगाना चाहा। 

“कैसे? पाँच जन की मौत लाला के सिर पर थी फिर भी उसकी सज़ा का माप बड़ा था?” 

“पाँच जन?” मेरा दिल हिचकने लगा। 

“पहले दो जन नौसिखी उसकी ड्राइवरी से कुचले गए, तीसरे जन बेगुनाह मेरे पिता रहे और फिर आख़िरी दो जन तो उसके अपने परिवार ही के थे . . .” 

मेरा दिल रुक गया। निःशेष। 

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