डाकखाने में
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा15 Jan 2025 (अंक: 269, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
उन्नीस सौ बानवे के जिन दिनों क़स्बापुर के एक पुराने डाकखाने में जब मैं सब पोस्ट मास्टर के पद पर नियुक्त हुआ था, तो मैं नहीं जानता था अस्सी वर्षीय मणिराम मेेरे डाकखाने पर रोज़ क्यों आते थे?
‘स्टोरेज कनवेयर’ में क्यों झाँकते थे?
‘सैगरिगेटर’ के ऊपरी बेलन पर घूम रही ‘मिक्स्ड’ डाक को बीच में रोक कर उसकी ‘फ़्लो’ क्यों बिगाड़ दिया करते थे?
बाहर से आए पत्रों के ‘एड्रेस’ की ‘फ़ेसिंग’ कर रहे कर्मचारी का हाथ क्यों बँटाया करते थे?
‘शार्ट’ हो चुके पत्रों के ‘पिजनहोल’ में क्यों अपना हाथ जा डालते थे?
फिर मुझे बताया गया बाइस वर्ष पूर्व वह मेरी कुर्सी से रिटायर हुए थे—सन् उन्नीस सौ सत्तर में—और जभी से सरकारी छुट्टियों के अतिरिक्त इने-गिने दिनों को छोड़ कर, जब उन की बेटी यहाँ क़स्बापुर आयी होती, डाकखाने आने का उन का नियम कभी नहीं टूटा था। उन की बेटी तनिक को ब्याहे हुए सत्ताईस वर्ष पूरे होने जा रहे थे, किन्तु उन पिता-पुत्री के पोस्टकार्डों का नैत्य मंद न पड़ा था।
जिज्ञासावश मैं पिता-पुत्री के पोस्टकार्ड छानने लगा। तिथियों के अतिरिक्त किसी भी पत्र में ज़्यादा कुछ न रहता।
पुत्री हर पत्र में लिखती ही लिखती, “अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखियेगा, बाबा। मेरी ओर से, मेरी ख़ातिर . . .”
और मणिराम हर पत्र में दोहराते ही दोहराते, “अपनी ख़ुशी अपनी मूठ में रखना, बिटिया। और ख़ूब ख़ुश रहना . . .”
फिर एक साथ तीन दिन उन की पुत्री का पत्र नहीं आया।
चौथे दिन उन्होंने हमारे ही डाकखाने से बस्ती के लिए एक ट्रंक कॉल बुक करायी। उसी हेडमास्टर के नाम जिस की मार्फ़त वह पुत्री को पत्र भेजा करते थे। यह वह समय था जब मोबाइल और पी.सी.ओ. जैसी सुविधाएँ जनसाधारण को उपलब्ध नहीं थीं।
पूरे पाँच घंटे उन्होंने उस ट्रंक कॉल के कार्यान्वित हो जाने की प्रतीक्षा में हमारे पास बिताए: मूर्तिवत।
कॉल जब मिली तो वह बातचीत के बीच ही अचेत होकर फ़र्श पर ढह गए।
मैंने दो आदमी डॉक्टर के यहाँ दौड़ाए और दो उनके घर के पते पर।
डॉक्टर पहले आए। उन्हों ने नब्ज़ देखी और सिर हिला दिया, “इन का निधन हो चुका है।”
परिवारजन के दो स्कूटर-सवार बाद में आए, “हमारे दादा, मणिराम, यहाँ हैं?”
“क्या आपकी बुआ नहीं रहीं?” मैं ने पूछा।
“आप कैसे जानते हैं,” एक नए हैरानी जतलाई।
“फूफा जी ने क्या इधर भी फ़ोन किया था?”
“उधर चाचा जी के दफ़्तर पर फूफाजी ने रात में चौकीदार को बताया था,” दूसरा बोला।
“लेकिन चौकीदार रात में दफ़्तर कैसे छोड़ता? चाचा सुबह दफ़्तर पहुँचने पर ही जान पाए। फिर घर दौड़े आए तो बाबा ग़ायब मिले,” पहला बोला।
“समझिए पिछले चार घंटों से शहर भर में हम बाबा ही को ढूँढ़ रहे थे . . .” दूसरे ने जोड़ा।
“इधर क्यों नहीं आए?” मैंने उन्हें लताड़ा।
“हमें क्या मालूम? वह यहाँ होंगे? घर में किसी से बात ही नहीं करते थे। मानो वह बोलना जानते ही न थे।”
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