टाऊनहाल
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा1 May 2021 (अंक: 180, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
दो वर्ष पहले की मेरी जनहित याचिका पर प्रदेश के उच्च न्यायालय ने आज अपना निर्णय सुना दिया है: हमारे कस्बापुर की नगरपालिका को प्रदेश के पर्यटन विभाग के साथ किए गए अपने उस समझौते को रद्द करना होगा जिस के अंतर्गत हमारे टाऊनहाल को एक ‘हेरिटेज होटल’ में बदल दिया जाना था।
मुझ से पूछा जा रहा है कि अठहत्तर वर्ष की अपनी इस पक्की उम्र के बावजूद नगरपालिका जैसी बड़ी संस्था को चुनौती देने की हिम्मत मैंने कैसे जुटा ली।
और इस प्रश्न के उत्तर में मैं वह प्रसंग दोहरा देता हूँ जब मेरे पिता ने इसी टाऊनहाल को बचाने हेतु अपने प्राण हथेली पर रख दिए थे।
सन् १९४२ की अगस्त क्रान्ति के समय।
सभी जानते हैं द्वितीय महायुद्ध में काँग्रेस से पूर्ण सहयोग प्राप्त करने हेतु मार्च १९४२ में ब्रिटिश सरकार के स्टैफ़र्ड क्रिप्स की अगुवाई में आए शिष्टमंडल के प्रस्ताव के विरोध में ८ अगस्त १९४२ के दिन काँग्रेस कमेटी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की जब घोषणा की थी और अगले ही दिन जब पुणे में गाँधीजी को हिरासत में ले लिया था। तो गाँधी जी के समर्थन में देश भर की सड़कें ‘भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ के नारों से गूँजने लगी थीं। बल्कि कहीं-कहीं तो समुत्साह में बह कर लोग-बाग सरकारी इमारतों को आग के हवाले करने लगे थे। बिजली की तारें काटने लगे थे, परिवहन एवं संचार के साधन ध्वस्त करने लगे थे।
देश के अन्य शहरों के सदृश हमारे कस्बापुर निवासी भी काँग्रेस के झंडे ले कर सड़कों पर उतर लिए थे। कुछ उपद्रवी तो कुछ सभ्य।
कुछ का गन्तव्य स्थान यदि कलेक्ट्रेट रहा करता तो बहुधा का हमारा यह टाऊनहाल।
कारण, यह ब्रिटिश आधिपत्य का ज़्यादा बड़ा प्रतीक था। एक तो उन दिनों इस का नाम ही विक्टोरिया मेमोरियल हाल था, दूसरे उसके अग्रभाग के ठीक बीचोबीच रानी विक्टोरिया की एक विशाल मूर्ति स्थापित थी। सैण्डस्टोन, बलुआ पत्थर में घड़ी, जिस के दोनों हाथ एक बटुए पर टिके थे। वास्तव में इस टाऊनहाल के गठन की योजना इंग्लैण्ड की तत्कालीन रानी विक्टोरिया के डायमंड जुबली वाले वर्ष १८९७ में बनी थी। जब उस के राज्याभिषेक के ६० वर्ष पूरे हुए थे। और १९११ में जब एक यह पूरा बन कर तैयार हुआ था तो विक्टोरिया की मृत्यु हो चुकी थी। सन् १९०१ में। अत: बना विक्टोरिया मेमोरियल हाल।
उस दिन उस जुलूस में सब से पहले रानी विक्टोरिया की इसी मूर्ति पर हमला बोला था उस के बटुए पर ढेलेबाज़ी शुरू करते हुए।
टाऊनहाल के अपने दफ़्तर में बैठे मेयर ने तत्काल उस जुलूस को वहाँ से हटाने के लिए अपने साथ तैनात पुलिस रक्षादल को उस के प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज का आदेश दे डाला था।
परिणाम विपरीत रहा था। जुलूसियों के हाथ के ढेले मूर्ति छोड़ सीधे टाऊनहाल की खिड़कियों पर लक्षित किये जाने लगे थे।
मेरे पिता उन दिनों टाऊनहाल ही में काम करते थे। वहाँ के पुस्तकालय में। उस की दूसरी मंज़िल पर। जिस की एक बालकनी टाऊनहाल के मुख्य द्वार के ऐन ऊपर बनी हुई थी।
बेक़ाबू हो रही भीड़ के विकट इरादे देख कर वे उसी बालकनी पर आन खड़े हुए थे। यदृच्छया ढेले फेंक रही क्रुद्ध एवं उत्तेजित भीड़ को संबोधित करने। टाऊनहाल के पब्लिक ऐड्रस, पी. ए. सिस्टम की सुविधा का लाभ उठाते हुए। वह सिस्टम लोक भाषण एवं राजकीय अभिनंदन तथा जनहित घोषणाएँ करने हेतु उपयोग में लाया जाता था। यहाँ यह बताता चलूँ कि हमारे इस टाऊनहाल में उस समय न केवल नगर-विषयक काम-काज के दफ़्तर थे मगर नगर के मतदान एवं महत्त्वपूर्ण परीक्षाएँ भी वहीं निष्पन्न की जाती थीं। आपदा एवं विपत्ति तथा टीके-एवं स्वास्थ्य संबंधी घोषणाएँ भी वहीं से जारी होती थीं।
विश्वयुद्ध में हताहत एवं मृत व्यक्तियों की सूचियाँ भी।
और ये घोषणाएँ अक़्सर मेरे पिता द्वारा की जाती थी। स्वर संगति में पारंगत वे प्रभावोत्पादक एवं भावपूर्ण आवाज़ के स्वामी थे। जिस का प्रयोग करना वे बख़ूबी जानते थे।
“मैं आपका एक भाई बोल रहा हूँ," बिना किसी पूर्वाज्ञा अथक पूर्व सूचना के प्रतिकूल उस वातावरण में अकस्मात जब उनकी आवाज़ गूँजी थी तो सभी अप्रतिम हो उन्हें सुनने लगे थे, पुलिसियों और जुलूसियों के हाथ एक साथ रुक लिए थे। “आप ही की तरह गांधीजी का भक्त मैं भी हूँ। जिन का रास्ता अहिंसा का है, अराजकता का नहीं, सविनय अवज्ञा, सहयोग का है, आक्रामक, कार्यकलाप का नहीं। हमें ‘चौरीचारा’ यहाँ दोहराना नहीं चाहिए। याद रखना चाहिए ५ फरवरी, १९२२ को जब यहाँ के पुलिस थाने पर हमारे भाइयों ने हिंसा दिखायी थी तो हमारे बापू को ५ दिन का उपवास रखना पड़ा था। क्या आप चाहते हैं बापू को उपवास पर फिर जाना पड़े? जब कि आज वे अधिक वृद्ध हैं। शारीरिक रूप से भी अधिक क्षीण। और फिर यह भी सोचिए, मेरे भाईयों और बहनों, यह टाऊनहाल एक लोक-निकाय है, हमारे लोक-जीवन की जनोपयोगी सेवाओं का केन्द्र। यह हमारा है। इस के ये गोल गुम्बद, ये चमकीले कलश ये मेहराबदार छतरियाँ, ये घंटाघर और इस की ये चारों घड़ियाँ हमारी हैं। यह सब हमारा है। हम इन्हें क्यों तोड़ें-फोड़ें? क्यों हानि पहुँचाएँ? यह अँगरेज़ों का नहीं। उन्हें तो भारत छोड़ना ही है। आज नहीं, तो कल, कल नहीं तो परसों . . .”
जभी मेरे पिता के हाथ के माइक्रोफोन का संबंध पी. ए. सिस्टम से टूट गया।
किंतु वे तनिक न घबराए। यह जानते हुए भी कि ब्रिटिश सरकार अब उन्हें सेवामुक्त कर देगी।
शान्त एवं धीर भाव से उन्होंने अपने हाथ का माइक्रोफोन बालकनी के जंगले पर टिकाया और हाथ ऊपर उठा कर चिल्लाए, ‘महात्मा गाँधी की जय।’
पुलिसियों ने भी अपनी लाठियाँ समेटीं और विघटित हो रही भीड़ को टाऊनहाल छोड़ते हुए देखने लगे।
मेरे पिता मुस्कुराए थे। मानो उन्हें कोई ख़ज़ाना मिल गया हो। उनका टाऊनहाल अक्षुण्ण था और बचा रहा था वह संग्रहालय, जिस में शहर के ऐतिहासिक स्मारकों एवं विशिष्ट व्यक्तियों के चित्र एवं विवरण धरे थे। बची रही थीं, पुस्तकालय की दुर्लभ वे पुस्तकें जिन में संसार भर की विद्वत्ता जमा थी। और जिनका रस वे पिछले पन्द्रह वर्षों से लगातार लेते रहे थे।
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