आख़िरी मील
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा15 Jul 2022 (अंक: 209, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
“तरबूज़ लाऊँ क्या माँ?” पिछली रात ही से तेज़ गरमी महसूस कर रही थीं और उन्होंने दूध तक न पिया था।
“ठीक है। ले आओ,” माँ ने कोई उत्साह न दिखाया।
तरबूज़ पिछली शाम भाई लाया था।
माँ को ठंडा तरबूज़ अभी भी बहुत पसन्द है। लाते ही भाई ने मुझे तरबूज़ दिखाया था।
“लाओ, मैं फ़्रिज में रख आती हूँ,” मैंने तरबूज़ की ओर हाथ बढ़ाए थे।
“तुम माँ के पास बैठो। तरबूज़ फ़्रिज में पहुँच जाएगा।”
भाई और मैं जब छोटे ही थे तो घर में तरबूज़ के आगमन को धूमधाम से उत्सव की तरह सकारा जाता था।
उन दिनों हमारे पास फ़्रिज न था। केवल पाँच किलो की समाई वाला एक छोटा आइस-बॉक्स था जिसमें रोज़ सुबह-शाम ज़रूरत के मुताबिक़ बर्फ़ लगायी जाती थी।
बाबूजी अक़्सर छुट्टी से एक दिन पहले तरबूज़ लाया करते।
रात-भर पटसन में लिपटा तरबूज़ आइस-बॉक्स की शीत-लहरों के संग अन्तर्निवास करता और अगले दिन सुबह के सर्वोत्तम पल वही रहते, जब माँ एक बड़ी थाली में तरबूज़ धरकर हमें पुकारती, “आइए। तरबूज़ देखा जाए . . .”
बाबूजी, भाई और मैं माँ के पास तत्काल पहुँच लेते।
माँ जादुई वेग से तरबूज़ की लम्बी तरतीबवार फाँकें तराशती और देखते-देखते तरबूज़ के दस्तांदाज़ बीज तरबूज़ के मोसल गूदे से पृथक हो लेते। तरबूज़ कई बार मीठा न भी रहता फिर भी जब-जब हम तरबूज़ के ठंडे चिक्कण टुकडे़ मुँह में रखते, हमें मुँह में अविच्छिन्न मधु रस का सा स्वाद ही मिलता।
भाई के लिए तरबूज़ पर पहली छुरी मैंने ही चलायी।
एक छोटी फाँक साफ़-सुथरी करके मैं माँ के पास आयी तो देखा माँ को झपकी लग गयी थी।
“उठ कर देखो माँ। कितना अच्छा तरबूज़ है,” मैंने माँ की ठुड्डी के नीचे गुदगुदी की।
“हाँ . . . आ . . .” माँ जग गयीं!
“लो थोड़ा तरबूज़ लो,” मैं माँ के ऊपर झुकी।
तरबूज़ के पहले टुकड़े ने ही माँ की अरुचि भगा दी और शीघ्र ही प्लेट ख़ाली हो गयी।
“और लाऊँ?” मैंने पूछा।
“तरबूज़ मीठा है,” माँ ने होंठों पर जीभ फेरी।
“थोड़ा और लो।”
माँ ने कहा, “तुम मेरा बहुत ख़्याल रखती हो।” माँ मुस्करायीं।
तरबूज़ की दूसरी प्लेट तैयार करते समय मैं अकस्मात् रोने लगी।
कहीं कुछ भी असामान्य न घटा था फिर भी किसी अप्रकटित अकथ्य के खटके ने बढ़ कर मुझे अपने बझाव में कस लिया।
“क्या बात है निन्दी,” मेरे फ़्रिज दोबारा खोलने पर भाभी सतर्क हो लीं।
“माँ को तरबूज़ अच्छा लग रहा है,” भाभी की उपस्थिति मात्र से मेरा उद्वेग नियंत्रित हो चला।
“हाँ। मीठा है,” भाभी ने साफ़ हो चुका एक टुकड़ा चखा।
मैंने और फाँक नहीं काटी।
वैसे ही प्लेट माँ के पास उठा लायी।
“लो,” मैंने माँ का कंधा छुआ। “तरबूज़ . . .”
“मेरे बाद भी इसी तरह आती रहना,” माँ का स्वर काँपा। “तुम्हारे बाबूजी का जी बहुत हल्का है। ऊपर से बहादुर बनते हैं, पर वैसे बहुत जल्दी घबरा जाते हैं।”
“तुम कहीं नहीं जाओगी,” मैं ज़ोर से रो पड़ी। “यहीं रहोगी बस . . .”
“क्या हुआ? बाबूजी बाथरूम में शेव कर रहे थे। तुरन्त हमारे पास चले आए।
“माँ जाने की बात कर रही हैं,” हिचकियों के बीच मैंने कहा।
“सुबह-सुबह शुभ बात सोचनी चाहिए, न कि यों दिल तोड़ने वाली,” बाबूजी ने माँ का माथा सहलाया, “कुछ और नहीं तो हमारा ही ख़्याल करो। हमारी ख़ातिर ही मज़बूत बनो और मज़बूत ख़्याल दिल में लाओ।”
“अब मेरे वश में कुछ नहीं रहा,” माँ रोने लगीं। “मैंने बहुत दिन बहादुरी दिखा ली। मज़बूती दिखा ली। अब बहादुर बनने की बारी आप लोगों की है . . .”
माँ का संकल्प तथा आत्मसंयम वास्तव में ही उदाहरणीय रहा था। दो वर्ष फ़ालिज के हमले ने निष्क्रिय बना दिया था। तिस पर भी माँ घबरायी न थीं। उनके सामने यही प्रकट भी किया जाता रहा था; वह धीरे-धीरे सम्पूरित स्वास्थ्य लाभ ग्रहण कर ही लेंगी तथा उनका शरीर पुनः समुचित रूप से अपना शासन सँभाल लेगा। डॉक्टरों के बताए गए सभी व्यायाम वह तत्परतापूर्वक करती रही थीं और समय से पहले ही उन्होंने अस्थायी रूप से थोड़ा-बहुत चलना-फिरना भी प्रारम्भ कर दिया था।
हाँ। पिछले सप्ताह दहलीज़ पार करते समय उनका क़दमताल ज़रूर गड़बड़ा गया था और वह गिर कर अचेत हो गयी थीं।
“निन्दी को बुला लीजिए,” चेतना लौटने पर उन्होंने बाबूजी से आग्रह किया था।
“लीला तुम्हें मिलना चाहती है। शीघ्र चली आओ,” थोड़ी आनाकानी के बाद बाबूजी ने मुझे कह ही दिया था और मैं पति व दोनों बच्चों को, अपनी सास के सुपुर्द कर, अविलम्ब यहाँ पहुँच गयी थी।
“आज आठ बजे ख़बरें नहीं सुनीं?” भाई ने आ कर टेलिविज़न चला दिया।
ख़बरें सुनने की माँ को पुरानी आदत थी।
“तरबूज़ लो,” मेज़ पर से तरबूज़ वाली प्लेट उठा कर भाई ने तरबूज़ का एक टुकड़ा माँ के मुँह में रख दिया।
“बहुत मीठा है,” माँ ने भाई का दिया तरबूज़ का टुकड़ा सहज रूप में स्वीकारा।
“अच्छा है,” भाई हँसा।
उसने एक और टुकड़ा माँ की ओर बढ़ाया।
“अब तुम लो,” माँ ने भाई का हाथ थपथपाया। “मैं पहले भी खा चुकी हूँ।”
“बाबूजी आप लीजिए,” भाई ने बाबूजी के हाथ प्लेट थमा दी। “मेरे लिए रश्मि दूसरी फाँक काट लाएगी।”
“पहले लीला खाएगी,” बाबूजी ने लाड़ से माँ के मुँह में एक और टुकड़ा रखा।
“एक टुकड़ा तुम भी लो,” माँ ने भाई से कहा, “इसमें बीज नहीं हैं।”
माँ जानती थीं भाभी तरबूज़ से बीज पृथक नहीं करती थीं।
“हाँ, तरबूज़ मीठा है,” भाई ने माँ की बात रख ली।
पहले की तरह माँ के मनोयोग-भरे मनुहार पर उपद्रव नहीं किया।
“निन्दी को भी दो,” माँ ने कहा।
“बाबूजी आप यह लीजिए,” प्लेट में अब एक ही टुकड़ा बचा था। “मैं एक फाँक और काट लाती हूँ।”
“तुम यह ले लो,” बाबूजी की आँखें डबडबायी रहीं। “मैं बाद में खा लूँगा . . .”
“मैं अभी और तरबूज़ ले कर आता हूँ,” भाई जाने को हुआ। “माँ भी अभी और लेंगी।”
“नहीं बेटा अब मैं कुछ नहीं लूँगी,” माँ ने प्रतिवाद किया।
“यह कैसे हो सकता है?” भाई मुस्कराया। “यह तरबूज़ तो मैं तुम्हारे लिए ही लाया था।”
“तुम्हारे बाबूजी को भी तरबूज़ बहुत पसन्द है,” माँ फिर रोने लगीं। “उनके लिए भी तरबूज़ लाते रहना।”
“ऐसा क्यों कहती हो माँ,” भाई ने माँ की कुहनी दबायी। “अभी तो तुम्हें भी कई और तरबूज़ खाने-खिलाने हैं . . .”
“नहीं बेटा, मैं अब बचूँगी नहीं,” माँ ने कहा, “उस दिन नयी नौकरानी पड़ोस में कह गयी है—बड़ी माँ का जी रखने को उनके घरवाले उनका इलाज करा रहे हैं, वरना उन की बीमारी तो ला-इलाज है। वह अब बचेंगी नहीं . . .।”
माँ का क़दमताल कहीं उसी दिन ही तो नहीं लड़खड़ाया था?
“वह बकती है,” भाई ने माँ की कुहनी फिर दबायी, “जब डॉक्टर कहते हैं तुम ठीक हो जाओगी, तुम ठीक हो भी रही हो।”
भाई के बाक़ी शब्द उसकी रुलाई ने ढँक लिए।
दोपहर तक माँ का बुखार तेज़ हो आया जो शाम होते-होते बढ़ गया।
रात को डॉक्टर भी बुलाया गया पर माँ के बुखार पर क़ाबू नहीं पाया जा सका और वह मृत्यु को प्राप्त हो गयीं।
“यह तरबूज़ तुम्हारी क़िस्मत का था। इसे ले जाना,” अगले दिन बाथरूम में हाथ धोते समय मैंने भाभी को नयी नौकरानी से बात करते सुना।
“तरबूज़ क्या अब तो मैं बहुत कुछ लूँगी,” नयी नौकरानी दबे स्वर में ठठायी।
“बेमौक़ा बात छोड़ तरबूज़ ले कर बस चलती बन,” भाभी झल्लायीं।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कहानी
- अच्छे हाथों में
- अटूट घेरों में
- अदृष्ट
- अरक्षित
- आँख की पुतली
- आँख-मिचौनी
- आँधी-पानी में
- आडंबर
- आधी रोटी
- आब-दाना
- आख़िरी मील
- ऊँची बोली
- ऊँट की करवट
- ऊँट की पीठ
- एक तवे की रोटी
- कबीर मुक्त द्वार सँकरा . . .
- कलेजे का टुकड़ा
- कलोल
- कान की ठेंठी
- कार्टून
- काष्ठ प्रकृति
- किशोरीलाल की खाँसी
- कुंजी
- कुनबेवाला
- कुन्ती बेचारी नहीं
- कृपाकांक्षी
- कृपाकांक्षी—नई निगाह
- क्वार्टर नम्बर तेईस
- खटका
- ख़ुराक
- खुली हवा में
- खेमा
- गिर्दागिर्द
- गीदड़-गश्त
- गेम-चेन्जर
- घातिनी
- घुमड़ी
- घोड़ा एक पैर
- चचेरी
- चम्पा का मोबाइल
- चिकोटी
- चिराग़-गुल
- चिलक
- चीते की सवारी
- छठी
- छल-बल
- जमा-मनफ़ी
- जीवट
- जुगाली
- ज्वार
- झँकवैया
- टाऊनहाल
- ठौर-बेठौ
- डाकखाने में
- डॉग शो
- ढलवाँ लोहा
- ताई की बुनाई
- तीन-तेरह
- त्रिविध ताप
- तक़दीर की खोटी
- दमबाज़
- दर्ज़ी की सूई
- दशरथ
- दुलारा
- दूर-घर
- दूसरा पता
- दो मुँह हँसी
- नष्टचित्त
- नाट्य नौका
- निगूढ़ी
- निगोड़ी
- नून-तेल
- नौ तेरह बाईस
- पंखा
- परजीवी
- पारगमन
- पिछली घास
- पितृशोक
- पुराना पता
- पुरानी तोप
- पुरानी फाँक
- पुराने पन्ने
- पेंच
- पैदल सेना
- प्रबोध
- प्राणांत
- प्रेत-छाया
- फेर बदल
- बंद घोड़ागाड़ी
- बंधक
- बत्तखें
- बसेरा
- बाँकी
- बाजा-बजन्तर
- बापवाली!
- बाबूजी की ज़मीन
- बाल हठ
- बालिश्तिया
- बिगुल
- बिछोह
- बिटर पिल
- बुरा उदाहरण
- भद्र-लोक
- भनक
- भाईबन्द
- भुलावा
- भूख की ताब
- भूत-बाधा
- मंगत पहलवान
- मंत्रणा
- मंथरा
- माँ का उन्माद
- माँ का दमा
- माँ की सिलाई मशीन
- मार्ग-श्रान्त
- मिरगी
- मुमूर्षु
- मुलायम चारा
- मेंढकी
- रंग मंडप
- रण-नाद
- रम्भा
- रवानगी
- लमछड़ी
- विजित पोत
- वृक्षराज
- शेष-निःशेष
- सख़्तजान
- सर्प-पेटी
- सवारी
- सिद्धपुरुष
- सिर माथे
- सिस्टर्ज़ मैचिन्ग सेन्टर
- सीटी
- सुनहरा बटुआ
- सौ हाथ का कलेजा
- सौग़ात
- स्पर्श रेखाएँ
- हम्मिंग बर्ड्ज़
- हिचर-मिचर
- होड़
- हक़दारी
- क़ब्ज़े पर
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
Sarojini Pandey 2022/07/16 01:38 PM
कहानी के शीर्षक में मील शब्द अंग्रेजी का है अथवा हिंदी का समझ में नहीं आया,' अंतिम भोजन' या 'आखिरी मील'