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देनदार

 

“टुकटुक की शादी मैंने तय कर दी है,” बेटी को मेरी पूर्वपत्नी टुकटुक कहती, “शादी इसी चौबीस जुलाई को होगी। और रिसेप्शन पच्चीस को . . .” 

“शादी से पहले मैं लड़के को देखना चाहूँगा,” मैंने आग्रह किया, “तुम बताओ कौन से होटल में चाय का आयोजन रखूँ?” 

“सब कुछ तय हो चुका है,” मेरी पूर्वपत्नी ने मुझे टाल दिया, “अब लड़के से शादी के समय ही मिलना।” 

“बेबू को फ़ोन दो,” मैं अपनी पूर्वपत्नी से बहस नहीं करता। बेटी मेरे लिए हमेशा ‘बेबू’ ही रहती रही थी। 

“हाय, पपा,” बेटी फ़ौरन फ़ोन पर आ गई। 

“लड़का ठीक है?” मैंने पूछा। 

“हाँ, पपा, ठीक है,” बेबू ने कहा। 

“क्यों? बहुत अच्छा नहीं?” 

“नहीं,” बेेबू हँस पड़ी। 

माँ की उपस्थिति में माँ की जानकारी के बिना माँ के विरुद्ध बात करना उसे बहुत गुदगुदाता। 

“तो शादी रोक दो।” 

“नहीं, पपा,” बेबू फिर हँस दी, “ममा लड़के को ले कर बहुत उत्साहित हैं। अब वह हमारी एक न सुनेगी . . .” 

“लड़की को गुमराह मत करो,” मेरी पूर्वपत्नी ने बेटी से फ़ोन छीन लिया, “अपने काम से काम रखो। और हाँ, टुकटुक के लिए तुम्हारे वाले पाँच लाख मुझे पंद्रह तारीख़ तक मिल जाने चाहिएँ।” 

“मिल जाएँगे . . .” मैंने फ़ोन काट दिया। 

♦    ♦    ♦

बारह वर्ष पहले जब मैंने अपने तलाक़ के समय हरजाने की एवज़ में एक क़ानूनी वचनपत्र पर बेबू की शादी में पाँच लाख देने का वचन दिया था तो मेरी आर्थिक स्थिति ठोस व पुष्ट रही थी। 

कस्बापुर के एक प्रमुख दैनिक के संपादक-मंडल का मैं एक महत्त्वपूर्ण सदस्य था। और कोई नहीं जानता था उस समाचार-पत्र का प्रकाशन चार साल बाद बिल्कुल बंद हो जाएगा। 

कस्बापुर मैं छोड़ नहीं सकता था, क्योंकि अपने परिवार का अकेला बेटा होने के कारण अपने फ़ालिजग्रस्त पिता की परिचर्या का पूरा भार मेरे कंधों पर था। 

उधर प्रतिद्वंद्वी समाचार पत्रों में अपने स्तर की नौकरी पाना भी मेरे लिए दुस्साध्य रहा था। जो दो-चार साप्ताहिक कालम मैं लिखता, वे मुझे बौद्धिक तुष्टि ही अधिक देते, पर्याप्त रुपया-पैसा नहीं। 

नौ वर्ष पूर्व अपने स्कूल के पियानो टीचर की हैसियत से रिटायर हुए मेरे पिता के प्रोविडेंट फ़ड का अधिकांश अंश उन की बीमारी पहले ही निगल ले गई थी। 

ऐसे में पूर्वनिर्धारित पाँच लाख की उस राशि का प्रबंध करने के लिए मुझे अपने पिता की पेंशन वाली जमा-पूँजी पर प्रत्याहार करने के बाद भी अपनी माँ के गहनों को गिरवी के रूप में अपने बैंक में जमा करने पड़े। ताकि मैं बैंक से एक मोटी रक़म उधार ले सकूँ। अपने गहने लिए जाने पर मेरी माँ मेरी पूर्वपत्नी पर झल्लाई भी: “अच्छी धौंस है। दुष्टा रुपए भी पूरे वसूलेगी और अपना हाथ भी दस बित्ता ऊपर रखेगी . . .” 

किन्तु बेबू के नाम उस प्रतिदान की अभिपूर्ति न कर पाना मेरे लिए असंभव था। 

♦    ♦    ♦

पंद्रह जुलाई को पाँच लाख का डिमाँड ड्राफ़्ट ले कर मैं पूर्वपत्नी के दफ़्तर जा पहुँचा। 

जहाँ इन दिनों वह लखनऊ के एक निर्देशालय में नियुक्ति पाए रही थी। 

“टुकटुक की शादी में अपने मौम-डैड के सहयोग से ज़रूरी फ़र्नीचर व व्यावहारिक गहने-लत्ते के इलावा मैं एक कार भी दे रही हूँ,” पूर्वपत्नी ने मेरे ड्राफ़्ट को देख-परख कर अपने पर्स में धर लेने के बाद अपनी मेज़ पर रखी घंटी बजाई, “इसलिए रिसेप्शन का बिल चुकाने में दिक़्क़त आ रही थी।” 

“येस, मैडम?” पूर्वपत्नी का अर्दली फ़ुर्तीला था। 

“एक कप चाय लाओ,” पूर्वपत्नी ने उसे आदेश दिया। 

“मैं चाय नहीं पिऊँगा,” मैंने कहा। 

“तुम चाय ले आओ,” पूर्वपत्नी अर्दली की ओर देख कर मुस्कुराई। 

“ये दस कार्डज़ तुम्हारे लिए रखे थे,” अर्दली के ओझल होते ही पूर्वपत्नी ने अपनी मेज़ की दराज़ में से कुछ लाल लिफ़ाफ़े निकाले, “तुम्हारे पेरेंट्स तो आएँगे नहीं, मैं जानती हूँ, लेकिन तुम कुछ और लोग को रिसेप्शन पर बुलाना चाहो, तो बुला लेना।” 

“धन्यवाद,” मैंने कार्ड ले लिए, “लेकिन मैं आऊँगा अकेले ही।” 

“कार्ड खोल कर देखो। तुम्हारा नाम कार्ड में है।” 

कार्ड पूर्वपत्नी के पिता की ओर से था:

 डॉक्टर दयानाथ त्रिपाठी तथा श्रीमती इंदु त्रिपाठी 
अपनी नातिन अक्षिता (सुपुत्री नमिता त्रिपाठी, आए.ए.एस. तथा पैट्रिक एलफ़र्ड) 
 तथा सौरभ, आए.पी.एस. 
(सुपुत्र डॉक्टर कुंदन शुक्ल तथा श्रीमती आशा शुक्ल) 
के विवाह के उपलक्ष्य में रात्रिभोज के लिए हम आप को निमंत्रण देते हैं। 
25, जुलाई, रात्रि 8 बजे से 10:30 बजे तक

 नीचे एक पाँच सितारा होटल का नाम लिखा था। 

“कन्यादान आप करेंगी?” शादी में अपनी भूमिका की सीमा का निरूपण मैं जानना चाहता था। 

“नहीं। कन्यादान मेरे माता-पिता की ओर से रहेगा। चौबीस को। उस दिन वहाँ तुम्हारे आने का कोई तुक नहीं। 

तुम रिसेप्शन में आना और फिर खाना खा लेने के बाद तुम ख़ाली रहोगे।” 

“क्या बहुत लोग आ रहे हैं?” 

“हाँ। यह एक कोर्ट मैरिज नहीं है।” 

 हमारी शादी कचहरी ही में हुई थी। 

एक वाद-विवाद प्रतियोगिता (विषय: सुख-मृत्यु, स्थान: डिग्री कॉलेज, कस्बापुर, हमारी हैसियत, निर्णायक) के अंतर्गत हुई हमारी पहली भेंट एक प्रेमातुर व सफल प्रणय-याचन से गुज़र कर जब प्रेम-शून्य व विफल विवाह में परिणत हुई तो चैन की तलब हमें एक बार फिर कचहरी ले गई थी। 

वास्तव में, हम ने अपने व एक दूसरे को अपने समाज के प्रकरण में अपनी शादी के बाद ही जाना और पहचाना था। 

निश्चित तौर पर हम एक दूसरे के लिए नहीं बने थे। 

“मैडम, चाय,” पूर्वपत्नी के अर्दली ने अपनी उपस्थिति प्रकट की। 

पूर्वपत्नी ने मेरे सम्मुख चाय रखवा कर मेज़ पर रखे दो टेलिफ़ोनों में से एक उठाया और कुछ नंबर मिला कर बोली, “रामशरण जी, ज़रा इधर आइए।” 

अगली पलक झपकने से पहले एक पी.ए. नुमा अधेेड़ व्यक्ति आन प्रकट हुए। 

“मैं एक मीटिंग में जा रही हूँ,” पूर्वपत्नी अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुई, “यह साहब यहाँ चाय पी रहे हैं।” 

“यस, मै'म।” 

“नहीं, मैं यहाँ चाय नहीं पी रहा,” अविलंब मैं भी उठ खड़ा हुआ, “मुझे बेबू से आज मिलना है। साढ़े बारह ठीक रहेगा न?” 

और पूर्वपत्नी से पहले मैं उसके दफ़्तर से बाहर निकल आया। 

♦    ♦    ♦

“आए एम सौरी, पपा,” साढ़े बारह बजे बेबू हमारे मनपसंद कैफ़े में मुझे देखते ही मेरे गले लग कर रो पड़ी, “मेरी वजह से आप देनदार हो गए।” 

जब तक बेबू अपने स्कूल के छात्रावास में रही, मैं नियमित रूप से हर दूसरे माह उसके विज़िटर्ज़ डे पर उसे मिलने वहाँ जाता रहा था। परन्तु स्कूल से उस की रिहाई के बाद यहीं तीन साल पहले पूर्वपत्नी ने लखनऊ के एक नामी कॉलेज में जब उसे दाख़िला दिलवाया तो मुझे निर्देश दिया, “टुकटुक से मिलने तुम उसके कॉलेज कभी नहीं जाओगे। हाँ महीने में एक बार जब भी उस से मिलना चाहो तो मुझसे समय निर्धारित करने के बाद किसी मर्यादित रेस्तरां में घुमाने ज़रूर ले जा सकते हो। और ध्यान रहे, ठाँव-कुठाँव फैले तुम्हारे दोस्त उसके सामने नहीं पड़ने चाहिएँ।”

“मैं तुम्हारा देनदार तो हूँ ही,” रोती हुई बेटी को शांत करने हेतु मैं उसके बाल सहला दिया, “तुम्हारे होते मैं पागल नहीं हुआ, मरा नहीं। वरना ज़िंदगी तो मेरे साथ अनुदार ही रही . . .” 

“नहीं, पपा,” बेबू की रुलाई बढ़ी ही, घटी नहीं, “ममा और मैं बहुुत क्षुद्र हैं। आडंबरी हैं। स्वार्थी हैं . . .” 

“सारा कैफ़े हम पर हँस रहा है,” उस का हाथ थामे-थामे मैं उसे दो कुर्सियों वाले उस मेज़ पर ले आया जिस की एक कुर्सी पर मैं पिछले पैंतालीस मिनट से बैठा रहा था, “हमें अब अपने और्डर पर ध्यान देना चाहिए . . .” 

बेबू बच्ची तो थी ही! 

अपनी कुर्सी ग्रहण करते ही मैन्यू कार्ड के खाद्य पदार्थों को अपनी निगाह में उतारने लगी। 

♦    ♦    ♦

रिसेप्शन वाले दिन मैं टैक्सी से सीधे पूर्वपत्नी के घर गया। 

वहाँ चारों तरफ़ लोग बिखरे थे। उनमें कहीं मुझे रामशरण दिखाई दे गए। मैंने उन्हें अपने पास आने का इशारा किया तो वह तत्काल मेरे पास चले आए। 

वह शायद मुझे पहचान लिए थे। 

“मैं पैट्रिक एलफ़र्ड हूँ,” मैंने कहा, “आप की मै'म कहाँ हैं?” 

“आप यहीं रुकिए,” रामशरण मुस्कराए, “हम उन्हें अभी सूचित करते हैं। आपका नाम कार्ड में रहा।” 

तमतमाए अपने चेहरे के साथ पूर्वपत्नी शीघ्र ही बाहर आन खड़ी हुई, “क्या है?” 

“बेेबू के लिए यह वेडिंग केक लाया हूँ,” मैंने विनीत, अति विनीत स्वर का प्रयोग किया, “बेबू कहाँ है?” 

“आए ऐम सौरी, इस समय हम सभी बहुत व्यस्त हैं। केक तुम्हारा उस तक पहुँच जाएगा मगर वह तुम्हें अब रिसेप्शन के समय ही मिलेगी,” इतना कह कर पूर्वपत्नी अपने घर के अंदर लोप हो ली। 

“आप शायद कोई उपहार लाए हैं,” रामशरण अगले ही पल मेरे पास फिर पहुँच लिए, “आप इत्मीनान रखिए, आप का उपहार हम बिटिया को दे देंगे। वह आप के प्रति बहुत स्नेह रखती है। उस दिन देखा हमने। उस कैफ़े पर हमीं उन्हें ले कर गए रहे . . .” 

“धन्यवाद,” बेबू का केक मैंने उन्हें सुपुर्द कर दिया। 

♦    ♦    ♦

शाम को निर्धारित समय पर मैं रिसेप्शन स्थल पर पहुँचा तो शामियाने के प्रवेेश-द्वार पर मुुझे अपनी पूर्वपत्नी अपने माता-पिता के साथ अतिथियों का स्वागत करती हुई मिली। उसकी वेशभूषा व रूप-सज्जा मुुझे कुछ ज़्यादा ही भड़कीली लगी। परिधान के लिहाज़ से उसके माता-पिता भी कम चमक-दमक न रखे रहे। 

मेरे अभिवादन का दोनों ही में से किसी ने उत्तर न दिया और मेरे पीछे चले आ रहे एक दम्पती से कानाफूसी में लग गए। पिछले बीते लगभग पंद्रह वर्षों बाद मैंने उन्हें अब देखा था। उन का दिखाव-बनाव अब भी पहले की तरह चमकीला और शोख़ था। चेहरे की झुर्रियों और गर्दन की सिलवटों का योग बढ़ जाने के बावजूद दोनों पूर्णतया स्वस्थ व संतुलित लग रहे थे। सहसा मुझे समतोल खो चुके, बनियान और लुंगी पहने अपने गंजे पिता के तथा बिना प्रैस की धोती पहने रसोई में केक के लिए चीनी के साथ अंडे फेंट रही, सफ़ेेद बालों वाली, अपनी माँ के क्लांत चेहरे याद हो आए। 

“बेबू कहाँ है?” मैंने पूर्वपत्नी से पूछा। 

“उधर स्टेज पर। सौरभ के साथ,” उपेक्षित उस का स्वर मुझे आहत कर गया। 

अपने को प्रकृतिस्थ करने हेतु मैं देर तक दूर और अलग रखी एक कुर्सी पर जा बैठा। 

मंच पर आसीन बेबू और उसके वर पर अपनी नज़र टिकाए। जो किसी झाँकी का भाग लग रहे थे, ख़ूब सजे-बजे। हाथ में गिफ़्ट लिए अतिथियों की क़तार में से जिस किसी अतिथि की आगे बढ़ने की बारी आती, वह वर-वधू के हाथ भरता और जवाब में दो कठपुतलियाँ यंत्रवत झुक कर या तो उनकी ओर शीश झुकातीं, या फिर पैर छूतीं और बग़ल की एक मेज़ पर अपने एक साथी के साथ खड़े रामशरण उनके हाथ का सामान ले कर मेज़ पर रख देते। 

इस बीच कई वेटर अपने निर्देशानुसार समय-समय पर मछली, चिकन, पनीर व मंचूरियन के टुकड़े तथा तरह तरह के ठंडे-गर्म पेय मुझे दिखाते रहे परन्तु मैंने एक भी चीज़ न छुई। न ही आगे बढ़ कर किसी से बतियाने की कोई चेष्टा ही की। 

ग्यारह बीस के लगभग जब मेरी पूर्वपत्नी के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण अतिथि खाकर जा चुके तो रामशरण मेरे पास आकर बोले, “मैं’म आप को बेबी के ससुर से मिलवाना चाहती हैं। उस टेबल पर . . .” 

“यह रहे पैट्रिक एलफ़र्ड . . .” 

पूर्वपत्नी ने ख़ाली हो चुके एक मेज़ पर बैठे बेहद शौक़ीन काले सूट के साथ लाल टाई वाले एक सज्जन की ओर देख कर कहा, “और आप हमारे समधी, डॉक्टर कुंदन शुक्ल . . .” 

“आप क्या करते हैं?” लड़के के पिता ने अपना पान चबाना जारी रखा। 

“मैं एक कालम लिखता हूँ। पत्रकार हूँ . . .” 

“मैं वर-वधू को देख आऊँ?” अप्रतिभ हो आई मेरी पूर्वपत्नी खिसक ली। 

“कहाँ रहते हैं?” ‘समधी’ अपनी पूछताछ पर लौट आया। 

“कस्बापुर में . . .।” 

“जहाँ नमिता शुुरू की अपनी तैनाती के तहत कुछ समय तक एस.डी.एम. रहीं थीं?” 

“करेक्ट . . .” मैंने हामी भरी। 

“इंटरेस्टिंग। वेरी इंटरेस्टिंग . . .” 

“यह आप के लिए है,” जभी रामशरण एक परोसी हुई प्लेट मेरे हाथ में थमाने चले आए, “आप अभी तक कुछ नहीं लिए हैं . . .” 

“मैं इतना खा नहीं पाऊँगा,” वहाँ से दूर भागने का अच्छा अवसर पा कर मैं उठ कर खड़ा हो लिया, “खाना फेंकना मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं अपनी प्लेट ख़ुद भरूँगा . . .” 

“हाँ, हाँ, आप शौक़ से जाइए,” समधी पान चबाते-चबाते बोले, “हमारी समधिन ने खाना अव्वल नंबर का परोसा है . . .” 

♦    ♦    ♦

खाने का आयोजन एक भिन्न शामियाने में रखा गया था। 

जब मैं वहाँ पहुँचा तो एक ताज़े सजे मेज़ पर बैठी एक टोली के पास मेरी पूर्वपत्नी खड़ी थी। 

मुझे देख कर वह मेरे पास चली आई। 

“क्या बात है?” उस ने पूछा। 

“यह आप लीजिए,” अपने हाथ की प्लेट मैंने उसके हाथ में देनी चाही, “मैं अपना खाना ख़ुद परोस लूँगा।” 

“कब तक हमें भूखा रखोगी, नमिता?” टोली में खड़े एक सज्जन ने नाटकीय ढंग से पहले अपने हाथ ऊपर उठाए और फिर नीचे झटक दिए, “अब आ भी जाओ। यक़ीन मानो, आख़िरी खानेवालों में आख़िरकार अब हम आ ही गए हैं . . .” 

“एक्सक्यूज़ मी,” मुझसे नज़र चुुरा कर पूर्वपत्नी तत्काल उधर मुड़ ली। 

सुनिश्चित दूरी पर जा कर मैंने अपने हाथ की प्लेट एक वेटर को लौटा दी। और मंच की ओर बढ़ लिया। 

“पपा,” बेबू मुझे अपने पास आते देख कर गर्मजोशी से मुस्कुराई, “आप ने खाना खाया?” 

“तुम बताओ, तुम ने खाया?” 

“हाँ, पपा, खाना बहुत अच्छा था। हम दोनों ने ख़ूब डट कर खाया। चाहें तो सौरभ से पूछ देखें।” 

लड़के ने विद्रूप से अपनी भौंहें चढ़ा लीं। 

“यह सौरभ है, पपा,” बेबू ने अपने स्वाभाविक भावातिरेक को तजा नहीं, “नानू और इसके पिता एक ही अस्पताल के और्थोपीडिक विभाग में हैं . . .” 

लड़का बुुत बन कर बैठा रहा। मुझे ध्यान आया पिछले तीन घंटों के दौरान कैैसे मैंने उसे अनेक महानुभावों के सम्मान में बीसियों बार उठ कर खड़े होते देखा था। कुछ के तो उस ने पैर भी छुए थे। 

“कैसे हो?” मैंने फिर भी उस की ओर अपना हाथ बढ़ा दिया। प्रस्तावित एक हैंडशेक के तहत। 

“ओह, मैं ठीक हूँ। बिल्कुल ठीक,” लड़के ने आपत्तिजनक असावधानी से मेरे हाथ में अपना हाथ दे कर उसे तुरंत लौटा लिया। 

“सौरभ को भी संगीत बहुत पसंद है, पपा . . .” 

“तो? क्या आदेश है? मुझे इस समय संगीत सुनना होगा या सुनाना?” 

लड़के की कटूक्ति मुझे कुपित कर गई। 

“ग्रैंडपा कैसे हैं, पपा? और ग्रैंडमा?” बेबू ने मुझे प्रश्रय देने के प्रयोजन से मेरा ध्यान बँटाना चाहा। 

“तुम अभी भी उन्हें अपने सगों में मानती हो? जो तुम्हारी शादी में आए ही नहीं . . .” शिष्टाचार का उल्लंघन करने में लड़का पारंगत था। 

“मालूूम है?” बेेबू ने अपनी धारा का प्रवाह रोका नहीं, “मेरे वह ग्रैंडपा बहुत अच्छा पियानो जानते हैं। बहुुत अच्छा बजाते भी थे . . . ममा ने मोज़ार्ट, बीथोवन और बाक़ी सब भी बजाना उन्हीं से सीखा था . . . मगर एक दिन बारिश में ऐसे फिसल गए कि . . .” 

“क्वाइट अ फ़ैमिली हिस्ट्री, आए से (मैं कहता हूँ, परिवार अच्छा ख़ासा इतिहास रखता है) . . .” 

“मैं अभी बाद में मिलता हूँ,” मेरे लिए वहाँ और रुकना असंभव हो गया। 

“क्यों पपा,” बेबू ने मुझे रोकना चाहा, “ऐसे बीच बात में क्यों?” 

“उन्हें जाने दो न, स्वीटहार्ट,” लड़के ने बेबू का हाथ अपने हाथ में ले लिया। 

बिना दूसरा पल गँवाए मैं उस रिसेप्शन स्थल से बाहर निकल आया। 

बेबू से पूछे बिना कि वह वेडिंग केक उसे कैसा लगा जो मेरी माँ ने अपने हाथों उसके लिए पकाया व सजाया था। 

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