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कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा1 Mar 2021 (अंक: 176, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
घर में भूचाल दो बार आया था, पहली बार सन् १९६५ की मई में, जब गोविन्द भाई घर से लापता हुए और दूसरी बार सन् १९६९ की जून में, जब पापाजी ने माँ के संग मकान बेचने की बात छेड़ी।
सन् १९६५ वाले भूचाल के समय मैं कुल जमा आठ साल का था और उसके बारे में केवल इतना ही बता सकता हूँ कि उसके बाद माँ की जीवन-चर्या ने एक पलटा खाया था। उनका रूप बिगड़ गया था, मिज़ाज बिगड़ गया था, दिमाग़ बिगड़ गया था, और उनका अधिकांश समय अब गृह-संचालन के स्थान पर मकान के पिछवाड़े बने शेड में बीतने लगा था, जहाँ गोविन्द भाई का चिड़ियाखाना था। जिसकी लाल-पीली, हरी-सलेटी, भूरी-नीली चिड़ियों की पहली चहचहाहट के साथ ही माँ उनके पास पहुँच जातीं, उन्हें दाना डालतीं, पानी पिलातीं और उनके चहचहे मारने पर अपनी चीं-चख शुरू कर देतीं, ‘पातक बाप और पातों जा लगा बेटा।’ उस दोलन कुर्सी पर झूलती-डोलती हुई, जो उनके नाना के कमरे का अनिवार्य अंग रह चुकी थी। परिणाम-स्वरूप घरदारी का ज़िम्मा अब गोविन्द भाई की पत्नी, रेवती भाभी के पास चला गया था। घर के नौकर-चाकर अब भाभी को सुनते समझते थे। घर में मेहमान भी आते तो भाभी ही की खोजते पूछते। और तो और, पापा जी भी फ़ैक्ट्री से लौटने पर भाभी को अपने कमरे में बुलवाने लगे थे। माँ के एवज।
सन् १९६९ का भूचाल मेरे सामने आया था: चटचटा एवं हचकेदार। पापा जी के पैरों तले की ठोस एवं अचल ज़मीन को सरकाता-खिसकाता हुआ।
माँ की उस लपक से, जो सालों साल उनके अंदर जमा हो रहे दाब को फोड़कर बाहर उछल ली थी।
“तुम भी यहाँ हो?” जून की उस सुबह पापाजी उधर शेड में चले आए थे।
उन दिनों मुझ पर बौडीबिल्डिंग का भूत सवार था और अपना बाहुबल बढ़ाने के लिए मैंने अपनी कसरत का तमाम सामान शेड में जमा कर रखा था: फ्री वेट्स, बारबैल, डमबेल, स्प्रिंग-पुली, टेन्शन बैन्ड आदि।
“जी,” उस समय मैं अपने पुश-अप कर रहा था। अपने शरीर को हाथों और पंजों के सहारे अधोमुख अवस्था में रखते हुए। अपनी कुहनियों को बारी-बारी से मोड़ते और तानते हुए, पुन: उन्हें मोड़ने और तानने हेतु।
“यह सब तुम्हारी कसरत का सामान है?” पापाजी ने अपनी नज़र मेरे सामान पर उतारी।
“जी,” अपने पुश-अप को बीच ही में रोककर मैंने अपनी कुहनियाँ समेटीं, हाथ ज़मीन से उठाये और तत्काल स्वाभाविक स्थिति में अपने पैरों पर खड़ा हो गया। उनकी नज़र का पीछा करने हेतु।
“बाकी कसरत तुम बाद में कर लेना। अभी मुझे दमयन्ती से एक ज़रूरी बात करनी है।”
“तुम्हारी बात मैं इसके सामने ही सुनूँगी। अकेले में नहीं,” माँ अपनी दोलन-कुर्सी पर स्वयं को झुलाने लगीं।
“ठीक है,” पापाजी हँस पड़े, “जो तुम कहो . . .”
“अभी मैंने कुछ कहा ही कहाँ है? तुम अपनी कहो तो मैं कुछ कहूँ,” अपनी उस विक्षिप्त अवस्था में भी माँ किसी से भय न खातीं। और न ही किसी को अपना अनुचित लाभ ही उठाने देतीं। न वाचिक और न ही वस्तुपरक। मजाल जो कोई अपनी बातचीत में उनकी प्रतिष्ठा को पूरा सम्मान न दे या फिर उनके निजी सामान में घुसपैठ करने की चेष्टा कर ले। अपना कमरा अपने सामने साफ़ करवातीं और इधर शेड में आते समय उसमें ताला लगाना कभी न भूलतीं। घर का सारा क़ीमती माल-असबाब वे अभी भी अपने अधिकार में रखे थीं।
“मुझे मकान की रजिस्ट्री चाहिए,” पापा थोड़ा सकपकाए, थोड़ा सकुचाए।
“किसलिए?” माँ झूलना भूल गयीं।
“मुझे मकान बेचना होगा। फ़ैक्ट्री के लिए नयी मशीनरी ख़रीदनी पड़ रही है . . .”
“कैसी मशीनरी?” माँ अपनी दोलन-कुर्सी को स्थिर बने रहने देने के लिए उसकी बाँहों पर अपने हाथों का दबाव उतार लायीं।
यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि वह मकान माँ के नाना, बाउजी, का था। पापा जी का नहीं। और न वह फ़ैक्ट्री ही पापाजी की थी जिसमें माँ के ननिहाल वाले सन् १९२२ से बर्फ़ बना रहे थे। पापा जी तो सन् १९४० में उस कारखाने में प्रवेश पाए थे। एक मुनीम की हैसियत से। फ़ैक्ट्री के तत्कालीन मालिक, बाउजी के रंगरूट के रूप में। और वे उम्र भर मुनीम ही बने रहते यदि उनकी व्यापक दूरदर्शिता बाउजी के प्रतिकूल ग्रह-योग से मिलकर उन्हें आगे ठेलने में ज़ोर न लगाती। माँ उस समय सत्रह वर्ष की थीं। और बाउजी की अकेली उत्तराधिकारिणी। सन्तति के नाम पर बाउजी की एक ही इकलौती बेटी रही थी जो तपेदिक-ग्रस्त अपनी ददिया-सास के रोग-संचार के परिणाम स्वरूप कुल जमा इक्कीस वर्ष ही की आयु में स्वर्ग सिधार ली थी। सन् १९३१ में। और बेटी की एकमात्र अपनी नातिन को वह अपने पास लिवा लाए थे। जभी माँ अपनी उम्र के चौथे ही वर्ष से इन्हीं बाउजी के इस मकान में पली-बढ़ी थीं। अपनी नानी की छत्र-छाया में। ऐसे में सन् १९४३ में जब बाउजी प्रचण्ड पीलिया के अहेर बने तो उनकी सेवा-शुश्रूसा में पापाजी अपनी हैसियत और बिसात से बाहर जाकर जुट गए। बाउजी पर रंग जमाने। अविवाहित तो वे थे ही। परिणाम, जैसे ही बाउजी अपनी बीमारी से उबरे उन्होंने पापाजी को घर-दामाद बना डाला। हाँ, एहतियाती तौर पर अपनी जो वसीहत उन्होंने अपनी इस बीमारी के दिनों अपने वकील को सौंप दी थी, उसे उन्होंने फिर मृत्युपर्यन्त नहीं बदला और विधिसम्मत उनकी उत्तराधिकारिणी माँ ही बनी रहीं।
“घर घर में फ्रिज के आ जाने से हमारी बर्फ़ की बिक्री बहुत कम हो गयी है और फ़ैक्ट्री को बचाने के वास्ते अब हमारे पास एक ही रास्ता बचा है, हम उसमें आइसक्रीम प्लांट लगा लें . . .” पापाजी ने माँ से कहा।
“रेवती के साथ सिर पर काली हाँडी तो उठाए ही थी, अब उसके परिवार के साथ भी सिर जोड़कर हाँडी चढ़ाने का इरादा है क्या?” माँ का मुख जुगुप्सा से विकृत हो लिया, “कैसा पत्थर का कलेजा पाए हो?”
रेवती भाभी के दो बड़े भाई हमारी फ़ैक्ट्री के एक कोने में अपना आइसक्रीम पार्लर खोल रखे थे। सन् १९६२ से। असल में उनके पिता बाउजी के समय से फ़ैक्ट्री के मैनेजर थे और उनकी मनोमनौबल ही ने उन्हें ऐसी छूट लेने की आज्ञा बाउजी से दिलायी थी। बाद में बेशक बाउजी ने अपनी वह आज्ञा वापिस भी ले लेनी चाही थी जब उन्होंने गोविन्द भाई को उस पार्लर में बारम्बार आइसक्रीम खाते हुए पाया था। बिना उसका दाम दिए। माँ को यक़ीन था बाउजी यदि अगले ही वर्ष सन् १९६३ में मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए होते तो गोविन्द भाई न तो अपना यह ससुराल पाते और न ही कभी लापता रहते।
“बेटे के सामने यह अण्ड-बण्ड बोलने का मतलब?” पापाजी झल्लाए।
“और जो अनर्थ तुमने मेरे बड़के के साथ किया? अपने व्यभिचार को ढँकने की ख़ातिर उसे बलिदान चढ़ा दिया?” माँ उत्तेजित होकर अपनी दोलन-कुर्सी फिर झुलाने लगीं।
“मैं यहाँ रजिस्ट्री लेने आया था। तुम्हारे इलज़ाम सुनने नहीं,” पापाजी और भड़क लिए।
“वह रजिस्ट्री तुम्हें नहीं मिल सकती। मैं यह मकान बेचने नहीं दे सकती। हरगिज़, हरगिज़ नहीं।”
“कैसे नहीं बेचने देगी? क्यों नहीं बेचने देगी?” पापाजी ने माँ की दोलन-कुर्सी की पेंग रोकने की ख़ातिर आगे-पीछे उठ रहे माँ के घुटने पेर दिए “जानती भी हो? मकान नहीं बेचेंगे तो फ़ैक्ट्री बिक जाएगी . . .”
“फ़ैक्ट्री भी नहीं बिकेगी,” माँ ने पापाजी के हाथ अपने घुटनों से परे झटक दिए और अपनी दोलन-कुर्सी से उठ खड़ी हुईं, “तुम उसे चलाना नहीं जानते। तुम कारस्तानी के कारसाज़ हो, कारबार के नहीं। कारबार मैं जानती हूँ। कारबार अब मैं करूँगी, तुम नहीं।”
“तुम?” पापाजी ने ठहाका लगाया, “तुम उसे चलाओगी? जो अपने आप को चलाना नहीं जानती? बावली है? पगलैट है?”
“मैं सब चला लूँगी। और तुमसे बेहतर ही चलाऊँगी,” माँ ने अपनी गर्दन को एक ज़ोरदार घुमाव दिया।
“कैसे चला लोगी?” पापाजी के हाथ मेरे एक फ़्री वेट की ओर बढ़ आए। अभीत एवं अभीप्सित।
“यह मेरी वर्ज़िश के लिए है माँ पर उठाने के लिए . . .” अपनी पूरी ताक़त लगाते हुए उनकी कोहनी मैंने कसकर पकड़ ली।
जभी धनुष से छूटे किसी तीर की तेज़ी के साथ माँ पापाजी पर आन झपटीं। उनकी दूसरी कोहनी ऐंठने-मुड़काने! बुदबुदाती हुईं: “बहुत कुछ गँवा दिया मैंने। मगर अब कुछ नहीं गँवाना है। सम्भालना है। कुछ भी नहीं गँवाना है। सम्भालना है, सब सम्भालना है अब: अपना मकान, अपनी फ़ैक्ट्री अपना यह बेटा, अपना यह मानुषी जन्म . . .”
पापाजी की घिग्घी बँध गयी।
उस दिन मैंने जाना स्थितियाँ यदि बदलती हैं तो तभी जब हम अपनी सम्भावनाओं को व्यावहारिक एवं मूर्त रूप देते हैं।
बताना न होगा फ़ैक्ट्री का ज़िम्मा अपने हाथ में लेते ही माँ ने रेवती भाभी के पिता को मैनेजर के पद से च्युत करते हुए उन्हें आइसक्रीम पार्लर वाला वह कोना भी छोड़ देने का क़ानूनी नोटिस उनके हाथ में थमा दिया जो उन्होंने बाउजी के पुराने वकील द्वारा तैयार करवाया था।
नये मैनेजर की नियुक्ति के साथ-साथ नए कन्डेंसिंग युनिट, कंप्रैसर, एयर कूलर्स एवं कोल्डरूम मशीनें भी फ़ैक्ट्री में दाख़िल हुई। धातु के टिनबन्द बड़े-बड़े डिब्बों में ब्लाक आइस जमाने वाली मशीनों का अब वहाँ कोई काम न रहा।
फ़ैक्ट्री का अब रूप-आकार बदल लिया था, साथ ही उसका उत्पादन एवं धन्धा भी।
वह अब शीतागार थी: एक कोल्ड स्टोरेज। घर का वृत भी अब बदल लिया।
फ़ैक्ट्री में तो पापाजी माँ के सामने मुँह में तिनका लिए ही रहते, घर में भी उनसे बात करते तो मुँह सँभालकर। रेवती भाभी के संग तो उन्होंने मुँह ही बाँध लिया। उन नौकर-चाकर की तरह जो अब उनकी जगह फिर से माँ को सुनने-समझने लगे थे।
बेशक माँ का दिन अब भी गोविन्द भैया की चहेती लाल-पीली, हरी-सलेटी, भूरी-नीली चिड़ियों की पहली चहचहाहट से शुरू होता जिन्हें दाना-पानी देने का काम वे अब भी अपने ही हाथों से किया करतीं। हाँ, बाउजी की दोलन-कुर्सी ज़रूर वहाँ से उठवाकर माँ के दफ़्तर पहुँचा दी गई थी।
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