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भूख की ताब

 

“कुछ खाने को बना लाऊँ क्या?” अपनी शादी के बाद साधना मुझे पहली बार मिल रही थी। 

“क्यों नहीं?” मैं उस पर रीझ ली, “बल्कि मैं तो कहती हूँ तुम रोज़ एकाध घंटे के लिए हमारे यहाँ आकर खाना बना जाया करो।”

अभी चार महीने पहले तक साधना मेरे घर की रसोई का काम करती रही थी। 

“यही तो मुश्किल है,” अपनी लार सँभालने में उसे प्रयास करना पड़ा, “मेरी सास कहती है घर में प्रैस का ही इतना तमाम काम है, बाहर जाने की तुम्हें फ़ुरसत कहाँ?”

उसके मायके वालों की तरह उसके ससुराल वाले भी कपड़ों की इस्तिरी और धुलाई का काम करते थे। 

“यह तो हमारे लिए अच्छी ख़बर नहीं,” मुझे निराशा हुई। पिछले ही सप्ताह हम अपने बडे़ बेटे के शहर (एटलांटा) से लौटे थे और लौटने पर साधना की माँ गेंदा ने ही बताया था, हमारे तीन महीने के उस विदेश-प्रवास के दौरान उसने साधना को ब्याह दिया था। एटलांटा जाने का जैसे ही हमें वीसा मिला था, गेंदा उसे हमारे घर से लिवा ले गई थी। हमें घर में ताला लगाकर जाना पड़ रहा था क्योंकि इधर लखनऊ में हम पति-पत्नी अकेले ही रहते हैं। हमारे छोटे बेटे की नौकरी और परिवार भी बाहर है, लन्दन में। 

“मेरे वश में होता तो मैं रोज़ सुबह-शाम आ जाया करती। सच पूछें तो वहाँ खाने की बड़ी मुश्किल है . . .”

साधना को खाने-खिलाने का ख़ूब शौक़ रहा था। भूख भी उसे बहुत जल्दी-जल्दी महसूस होने लगती। अपना ख़ाली समय भी वह कभी मेथी की पत्ती बीनते हुए बिताती तो कभी धनिया की डंडी अलग करती हुई, कभी दाल पीसती हुई तो कभी करेले का मसाला तैयार करती हुई। मेरे घर पर वह पूरे तीन साल रही थी और यह उसका रिकार्ड था कि उन तीन सालों में भोजन का एक समय ऐसा न रहा था जब मुझे और मेरे पति को दावत का आनन्द न आया हो। चपाती भी वह इतनी पतली और बढ़िया सेंकती थी कि अपने हाथ की बनी दो चपाती खाने वाली मैं उसके रहते चार चपाती खा जाती थी। उसका उत्साह और उद्यम देखते हुए मुझे भी उसका भरपेट से अधिक खाना कभी नहीं खला था। 

“खाने की क्या मुश्किल है?” मैंने पूछा। 

“मेरी जेठानी और मेरी सास का आपस में कोई मेल नहीं। एक छुरी है और एक कटार। दोनों दिन-भर एक-दूसरे पर चला करती हैं . . .”

“तुम्हें नहीं काटतीं?”

“कोशिश तो बहुत करती हैं लेकिन मैं अपने को बचा ही लेती हूँ . . .”

“अच्छी होशियार हो तुम,” मैंने उसकी पीठ थपथपाई, “और फिर तुम गेंदा की बेटी हो जिसके सब्र और हिम्मत की सभी तारीफ़ करते हैं . . .”

गेंदा के पति ने जब अपनी दूसरी शादी बनाते समय उसे घर से निकाल दिया था तो उसे अपने मायके वालों से छत के अतिरिक्त दूसरी कोई मदद न मिली थी। लोगों के कपड़े धोने और इस्तिरी करने का उनका काम पहले ही उसके भाइयों में बँट चुका था और ऐसे में उसने दो-तीन घरों में महरिन का काम ले रखा था। बल्कि मेरे घर में तो वह शुरू से ही अपने काम के अलावा भी कई दूसरे काम बिना उजरत निपटा दिया करती। बदले में सिर्फ़ साधना के लिए नए जूते की फ़रमाइश कभी-कभार रख दिया करती, “इसे नया जूता बनवा दीजिए, मालकिन।” साधना के पैरों के तलवे चपटे थे। एकदम ज़मीन को छूते हुए। जब वह अपने पैर ज़मीन पर धरती तो एक इंच क्या, एक सेंटीमीटर तक का गैप कहीं देखने को न मिला करता। ऐसे में मैं उसे एक चीनी जूते वाले से उसके लिए ख़ास आरामदायक जूते ऑर्डर देकर बनवाने लगी थी। फिर जब साधना सयानी होने लगी थी तो गेंदा ने बेझिझक उसे हमारे घर पर नौकरानी रहने के लिए छोड़ दिया था। 

“होशियार इसलिए हूँ कि अगर उनके झगड़े में पड़ूँगी तो फिर मुझे भी उनकी तरह भूखे रहना पड़ेगा,” साधना हँस पड़ी। 

“गेंदा से मिलने के बहाने उधर ससुराल से निकल आया करो,” मैं भी हँस दी। “और इधर रसोई में मेरी मदद कर दिया करो . . .”

“ज़रूर,” साधना थोड़ी झेंप गई, “और अपनी मर्ज़ी की थोड़ी-बहुत दावत भी कर लिया करूँगी . . .”

लेकिन दूसरी बार, साधना मेरे पास आ ही न पाई। 

गेंदा उस समय हमारे घर पर थी जब साधना की ससुराल से उसकी मृत्यु का समाचार लेकर कोई आया था। 

“मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ,” गेंदा की घबराहट मुझसे देखी न गई। 

अपनी गाड़ी में मैंने उसे बिठलाया और हम दोनों उसकी ससुराल पहुँच लीं। 

“क्या हुआ था?” गेंदा के साथ मुझे देखकर एक अधेड़ ने जब अपने को गेंदा का ससुर बताया तो मैंने उससे पूछा। 

“हम तो लुट गए, मेम साहब,” ठसाठस भरे उस आँगन में से एक अधेड़ स्त्री मेरे पास आकर दहाड़ मार कर रोने लगी, “मेरी कमाई वाली चली गई। इत्ते-इत्ते कपड़े पलक झपकते निपटा दिया करती थी . . .”

गेंदा हुहुआने लगी। 

”कैसे?” मैं व्यग्र हो उठी। 

“कल इधर प्रैस कर रही है और अचानक बाहर दौड़ पड़ी। खुले में उधर जामुन के पेड़ के पास जा खड़ी हुई है। वहाँ जाकर गोल-गोल चक्कर काटती है, रोती है, चिल्लाती है, चीखती है, बिलबिलाती है। बड़ी बहू को हम पीछे दौड़ाती हैं तो वह लौट कर हमें बताती है साधना के कान में कोई कीड़ा चला गया है और उसके कान के अन्दर इधर-उधर आगे-पीछे घूमता है तो फिर वह भी घूम-घूम जाती है। हम सब भौचक के भौचक। जभी किसी ने बताया कि उसके कान को रोशनी दिखाओ, रौशनी देखकर कीड़ा बाहर लपक आएगा। हम उसके लिए लालटेन की बाती सही कर रहे हैं कि उधर वह जामुन के पेड़ की टहनी पर झूल जाती है। पत्ते तोड़ती है और मुँह में भरती जाती है। उसे सँभालने की कोशिश में हम अभी उसके पास पहुँचने ही वाले हैं, जेठानी आवाज़ देती हैं, बच्चे आवाज़ देते हैं लेकिन वह सुनती ही नहीं . . . पत्ते नोचती है . . . पत्ते चबाती है . . .  पत्ते उगल देती है . . . हम उसे पुकारते हैं तो वह फिर उछली है लेकिन इस बार उसके पैर टहनी पर उसे टिकाने की बजाय नीचे धम्म से गिरा देते हैं . . .”

“पैर उसके चपटे भी तो रहे,” कोई एक स्त्री-स्वर मुखरित हुआ। 

“यह उसकी जेठानी है, हमारी बड़ी बहू। पूछिए इससे, उसे बचाने की कितनी कोशिश की हमने। लेकिन उस जामुन से गिरने पर जो उसका लहू सिर से बहना शुरू हुआ है तो फिर बहता चला गया है जब तक मौत नहीं आकर उसे संग ले गई है . . .”

गेंदा ज़मीन पर लोटने लगी। 

“आओ, गेंदा,” मैंने उसे व्यवस्थित करने की चेष्टा की, “साधना के पास चलते हैं . . . मैं उसे देखना चाहूँगी . . .”

साधना की मृत देह देखकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। 

उसका रंग स्याह काला पड़ गया था और उसकी काया सरकंडे के समान पतली। दो माह के अन्दर? 

“इसका वज़न इतना कम हो गया क्या?” मैंने उसकी सास की जवाबदेही चाही। 

“हमीं कौन वजनदार हैं?” उसकी सास ने मेरा ध्यान अपनी बड़ी बहू की ओर दिलाया, “यह कौन वजनदार है? अब हम गरीब लोग थे, आपके घर जैसी खुराक उसे कहाँ दे पाते? आप जैसी तन्दरुस्ती कहाँ से पाएँगे? कहाँ से दिलाएँगे?”

“सुना है आप उसे मानती थीं,” एक युवक मेरी ओर देखकर बोला, “अब हमारी मदद कर दीजिए न।”

“यों भी लड़की का काठ-कफन तो मायके से आता ही है,” साधना का ससुर मेरी ओर बढ़ आया। 

“और क्या? इतनी बड़ी मोटरकार है तुम्हारी? इतना बड़ा बटुआ लिए हो? हमारी भी मदद हो ही जानी चाहिए . . .” एक दूसरा युवक अपने स्वर में धमकी ले आया। 

“मैं गेंदा के घर पर अभी ख़बर भेजती हूँ,” मैं सतर्क हो गई, ”वे लोग सभी जल्दी ही पहुँच जाएँगे . . .”

“आप कुछ न दोगी?” साधना की सास ने लार टपकाई, ”खाली हाथ उस मरी के दर्शन कर लोगी?”

अपना बटुआ खोलकर मैंने सौ-सौ के पाँच नोट गिन दिए। 

“मैं फिर मिलती हूँ,” मैंने गेंदा का कन्धा थपथपाया और अपनी गाड़ी की ओर बढ़ ली। 

रास्ते में जैसे ही मुझे एकान्त दिखाई दिया, गाड़ी रोक कर मैंने बटुए में से अपना रूमाल निकाल लिया। मैं रोना चाहती थी। आँसू पोंछने के लिए मैं रूमाल ही को प्रयोग में लाती हूँ। 

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