चम्पा का मोबाइल
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा15 Dec 2019 (अंक: 146, द्वितीय, 2019 में प्रकाशित)
“एवज़ी ले आयी हूँ, आंटी जी,” चम्पा को हमारे घर पर हमारी काम वाली, कमला, लायी थी।
गर्भावस्था के अपने उस चरण पर कमला के लिए झाड़ू-पोंछा सम्भालना मुश्किल हो रहा था।
चम्पा का चेहरा मेक-अप से एकदम खाली था और अनचाही हताशा व व्यग्रता लिए था। उस की उम्र उन्नीस और बीस के बीच थी और काया एकदम दुबली-पतली।
मैं हतोत्साहित हुई। सत्तर वर्ष की अपनी इस उम्र में मुझे फ़ुरतीली, मेहनती व उत्साही काम वाली की ज़रूरत थी न कि ऐसी मरियल व बुझी हुई लड़की की!
“तुम्हारा काम सम्भाल लेगी?” मैं ने अपनी शंका प्रकट की।
“बिल्कुल, आंटी जी। खूब सम्भालेगी। आप परेशान न हों। सब निपटा लेगी। बड़ी होशियार है यह। सास-ससुर ने इसे घर नहीं पकड़ने दिए तो इस ने अपनी ही कोठरी में मुर्गियों और अंडों का धन्धा शुरू कर दिया। बताती है, उधर इस की माँ भी मुर्गियाँ पाले भी थी और अंडे बेचती थी। उन्हें देखना-जोखना, खिलावना-सेना.....”
“मगर तुम जानती हो, इधर तो काम दूसरा है और ज़्यादा भी है, मैं ने दोबारा आश्वस्त होना चाहा, “झाड़-बुहार व प्रचारने-पोंछने के काम मैं किस मुस्तैदी और सफ़ाई से चाहती हूँ, यह भी तुम जानती ही हो.....”
“जी, आंटी जी, आप परेशान न हों। यह सब लार लेगी.....”
“परिवार को भी जानती हो?”
“जानेंगी कैसे नहीं, आंटी जी? पुराना पड़ोस है। पूरे परिवार को जाने समझे हैं। ससुर रिक्शा चलाता है। सास हमारी तरह तमाम घरों में अपने काम पकड़े हैं। बड़ी तीन ननदें ब्याही हैं। उधर ससुराल में रह-गुज़र करती हैं और छोटी दो ननदें स्कूल में पढ़ रही हैं। एक तो हमारी ही बड़ी बिटिया के साथ चौथी में पढ़ती है.....”
“और पति?” मैं अधीर हो उठी। पति का काम-धन्धा तो बल्कि उसे पहले बताना चाहिए था।
“बेचारा मूढ़ है। मंदबुद्धि। वह घर पर ही रहता है। कुछ नहीं जानता-समझता। बचपन ही से ऐसा है। बाहर काम क्या पकड़ेगा? है भी इकल्ला उन पाँच बहनों में.....”
“तुम घरेलू काम किए हो?” इस बार मैं ने अपना प्रश्न चम्पा की दिशा में सीधा दाग़ दिया।
“जी, उधर मायके में माँ के लगे कामों में उस का हाथ बँटाया करती थी.....”
“आज मैं इसे सब दिखला-समझा दूँगी, आंटी जी। आप परेशान न हों.....”
अगले दिन चम्पा अकेली आयी। उस समय मैं और मेरे पति अपने एक मित्र-दम्पत्ति के साथ हॉल में बैठे थे।
“आज तुम आँगन से सफ़ाई शुरू करो,” मैं ने उसे दूसरी दिशा में भेज दिया।
कुछ समय बाद जब मैं उसे देखने गयी तो वह मुझे आँगन में बैठी मिली। एक हाथ में उस ने झाड़ू थाम रखा था और दूसरे में मोबाइल। और बोले जा रही थी। तेज़ गति से मगर मन्द स्वर में। फुसफुसाहटों में। उस की खुसुर-पुसुर की मुझ तक केवल मरमराहट ही पहुँची। शब्द नहीं। मगर उस का भाव पकड़ने में मुझे समय न लगा। उस मरमराहट में मनस्ताप भी था और रौद्र भी।
विघ्न डालना मैं ने ठीक नहीं समझा और चुपचाप हॉल में लौट ली।
आगामी दिनों में भी मैं ने पाया जिस किसी कमरे या घर के कोने में वह एकान्त पाती वह अपना एक हाथ अपने मोबाइल के हवाले कर देती। और बारी बारी से उसे अपने कान और होठों के साथ जा जोड़ती।
अपना स्वर चढ़ाती-गिराती हुई।
कान पर कम।
होठों पर ज़्यादा।
“तुम इतनी बात किस से करती हो?” एक दिन मुझ से रहा न गया और मैं उस से पूछ ही बैठी।
“अपनी माँ से.....”
“पिता से नहीं? मैं ने सदाशयता दिखलायी। उस का काम बहुत अच्छा था और अब मैं उसे पसंद करने लगी थी। कमला से भी ज़्यादा। कमला अपना ध्यान जहाँ फ़र्श व कुर्सियों-मेज़ों पर केन्द्रित रखती थी, चम्पा दरवाज़ों व खिड़कियों के साथ-साथ उन में लगे शीशों को भी ख़ूब चमका दिया करती। रोज़-ब-रोज़। शायद वह ज़्यादा से ज़्यादा समय अपने उस घर-बार से दूर भी बिताना चाहती थी।
“नहीं,” वह रोआँसी हो चली।
“क्यों?” मैं मुस्कुरायी, “पिता से क्यों नहीं?”
“नहीं करती.....”
“वह क्या करते हैं?”
“वह अपाहिज हैं। भाड़े पर टैम्पो चलाते थे। एक टक्कर में ऐसी चोट खाए कि टाँग कटवानी पड़ी। अब अपनी गुमटी ही में छोटे-मोटे सामान की दुकान लगा लिए हैं.....”
“तुम्हारी शादी इस मन्दबुद्धि से क्यों की?”
“कहीं और करते तो साधन चाहिए होते। इधर खरचा कुछ नहीं पड़ा.....”
“यह मोबाइल किस से लिया?”
“माँ का है.....”
“मुझे इस का नम्बर आज देती जाना। कभी ज़रूरत पड़े तो तुम्हें इधर बुला सकती हूँ.....”
घरेलू नौकर पास न होने के कारण जब कभी हमारे घर पर अतिथि बिना बताए आ जाया करते हैं तो मैं अपनी काम वाली ही को अपनी सहायता के लिए बुला लिया करती हूँ। चाय-नाश्ता तैयार करने-करवाने के लिए।
“इस मोबाइल की रिंग, खराब है। बजेगी नहीं। आप लगाएँगी तो मैं जान नहीं पाऊँगी.....”
मैं ने फिर ज़िद नहीं की। नहीं कहा, कम-अज-कम मेरा नम्बर तो तुम्हारी स्क्रीन पर आ ही जाएगा।
वैसे भी कमला को तो मेरे पास लौटना ही था। मुझे उसकी ऐसी ख़ास ज़रूरत भी नहीं रहनी थी।
अपनी सेवा-काल का बाक़ी समय भी चम्पा ने अपनी उसी प्रक्रिया में बिताया।
एकान्त पाते ही वह अपने मोबाइल के संग अपनी खड़खड़ाहट शुरू कर देती- कभी बाहर वाले नल के पास, कभी आँगन में, कभी दरवाज़े के पीछे, कभी सीढ़ियों पर। अविरल वह बोलती जाती मानो कोई कमेन्टरी दे रही हो। मुझ से बात करने में उसे तनिक दिलचस्पी न थी। मैं कुछ भी पूछती, वह अपने उत्तर हमेशा संक्षिप्त से संक्षिप्त रखा करती। चाय-नाश्ते को भी मना कर देती। उसे बस एक ही लोभ रहता : अपने मोबाइल पर लौटने का।
वह उसका आख़िरी दिन था। उसका हिसाब चुकता करते समय मैं ने उसे अपना एक दूसरा मोबाइल देना चाहा, “यह तुम्हारे लिए है.....”
मोबाइल अच्छी हालत में था। अभी तीन महीने पहले तक मैं उसे अपने प्रयोग में लाती रही थी। जब मेरे बेटे ने मेरे हाथ में एक स्मार्टफ़ोन ला थमाया था, तुम्हारे सेल में सभी एप्लीकेशन्ज़ तो हैं नहीं माँ.....” और जभी से यह मेरे दराज़ में सुरक्षित रखा रहा था।
“नहीं चाहिए,” चम्पा ने उस की ओर ठीक से देखा भी नहीं और अपना सिर झटक दिया।
“क्यों नहीं चाहिए?” मैं हैरान हुई। उस की उस ‘न’ के पीछे उसकी ज्ञानशून्यता थी या मेरे प्रति ही रही कोई दुर्भावना?
“क्या करेंगी?” उस ने अपने कंधे उचकाए और अपना सिर दुगुने वेग से झटक दिया, “नहीं लेंगी.....”
“इस से बात करोगी तो तुम्हारी माँ की आवाज़ तुम्हें और साफ़ सुनाई देने लगेगी.....” मैंने अपना मोबाइल उस की ओर बढ़ा दिया। अपने आग्रह में तत्परता सम्मिलित करते हुए।
“सिम के बिना?” उस ने अपने हाथ अपने मोबाइल पर टिकाए रखे। मेरे मोबाइल की ओर नहीं बढ़ाए।
“तुम्हारा यही पुराना सिमकार्ड इस में लग जाएगा,” मैं ने उसे समझाया।
“इस में सिम नहीं है,” वह बोली।
“यह कैसे हो सकता है,” मैं मुस्कुरा दी, “लाओ, दिखाओ.....”
बिना किसी झिझक के उसने अपना मोबाइल मुझे ला थमाया।
उस के मोबाइल की जितनी भी झलक अभी तक मेरी निगाह से गुज़री थी, उस से मैं इतना तो जानती ही थी वह खस्ताहाल था मगर उसे निकट से देख कर मैं बुरी तरह चौंक गयी!
उस की पट्टी कई खरोंचे खा चुकी थी। की-पैड के लगभग सभी वर्ण मिट चुके थे। स्क्रीन पूरी पूरी रिक्त थी। सिमकार्ड तो गायब था ही, बैटरी भी नदारद थी।
“बहुत पुराना है?” मैं ने मर्यादा बनाए रखना चाही।
“हाँ। पुराना तब भी था जब उन मेमसाहब ने माँ को दिया था, वह निरुत्साहित बनी रही।
“उन्होंने इस हालत में दिया था?” मैं ने सहज रहने का भरसक प्रयत्न किया।
“नहीं तब तो सिम को छोड़ कर इसके बाकी कल-पुरज़े सभी सलामत थे। सिम तो माँ ही को अपना बनवाना पड़ा था.....”
“फिर इसे हुआ क्या?”
“माँ मरीं तो मैं ने इसे अपने पास रखने की ज़िद की। बप्पा ने मेरी ज़िद तो मान ली मगर इसकी बैटरी और इस का सिम निकाल लिया.....”
“माँ नहीं है?” अपनी सहानुभूति प्रकट करने हेतु मैं ने उस की बाँह थपथपा दी।
“हैं क्यों नहीं?” वह ठुमकी और अपनी बाँह से मेरा हाथ हटाने हेतु मेरे दूसरे हाथ में रहे अपने मोबाइल की ओर बढ़ ली, “यह हमारे हाथ में रहता है तो मालूम देता है माँ का हाथ लिए हैं.....”
मैं ने उस का मोबाइल तत्काल लौटा दिया और अपने सेलफ़ोन को अपने दराज़ में पुनः स्थान दे डाला।
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टिप्पणियाँ
अमिताभ वर्मा 2019/12/24 02:14 PM
इसे कहते हैं कहानी!
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