कार्टून
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा1 Jun 2024 (अंक: 254, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट प्रभाज्योति अपने हर इंटरव्यू में अपनी माँ की सीख दोहराते हुए उन के प्रति अपना आभार प्रकट करती है।
बताती है वह जैसे ही हाथ में पैंसिल पकड़ने योग्य हुई थी माँ ने उस के सामने लाल, क्रीम, सलेटी रंगों के व खुरदुरे, जई, पारदर्शी बुनावट के काग़ज़ों के साथ तीन-बी पैंसिल, चार-बी पैंसिल, चारकोल पैंसिल, चौक पैंसिल, क्रेयॉन स्टिक, खड़िया स्टिक, काठकोयला ला बिछायी थीं और बोली थीं, “काग़ज़ पर चेहरे ऐसे लाओ जैसे वे तुम्हें नज़र आते हैं। ऐसे नहीं जैसे लोग उन्हें पहचानते हैं। नाक-माथा, आँख-कान, गला और होंठ तो सभी चेहरों के पास हैं। लेकिन हर कोई अपने चेहरे के किसी एक नक़्श को सब से ज़्यादा इस्तेमाल करता है और चेहरा बनाते समय हमें वही एक नक़्श बिगाड़ कर पेश करना होता है . . .।”
माँ के बारे में प्रभाज्योति फिर और कुछ नहीं बताती।
चुप लगा जाती है।
यह चुप उस के साथ उस के ग्यारहवें वर्ष से चल रही है।
जिस साल उसकी माँ की मृत्यु हुई थी और उस का बचपन उस से विदा ले लिया था।
अपने उन ग्यारह वर्षों को वह अपने पास रखे रखती है . . .
अकेले में उन्हें खोलती ज़रूर है . . . बारम्बार . . .
कैसे उन दिनों उस ने बड़े भाई का चेहरा बनाया था तो उसकी नाक उसकी गालों से बड़ी कर दी थी . . . मँझले भाई के कान उसकी आँखों से शुरू कर उसके जबड़ों तक लम्बे कर दिए थे . . . छोटे भाई को तीन ठुड्डियाँ दे दी थीं और गरदन मोटी कर दी थी। याद है उसे, कैसे दादी अपनी तस्वीर देख कर भड़क ली थीं,
‘तस्वीरें बनाती वह है और फिर उन्हें बेटी के नाम की ओट दे देती है . . .’
अपनी तस्वीर उन्हें क़तई नहीं भायी थी। कारण, प्रभाज्योति ने उनकी गालें गोलाई में रखने की बजाए इतनी चपटी कर दी थीं कि कान ग़ायब ही हो गए थे।
असल में दादी को माँ से शुरू ही से चिढ़ रही थी। और वह चिढ़ प्रभा के जन्म के बाद तो दस बित्ता और ऊपर चढ़ ली थी, “तीन लड़कों की पीठ पर एक लड़की जन कर बहू घर में कोई आपदा लाना चाहती है . . . ”
इसीलिए प्रभा के पालन-पोषण का बीड़ा माँ ने अपने ऊपर ही ले रखा था। तीनों भाई दादी की गोदी में पले-बढ़े थे। लेकिन प्रभा को न केवल माँ की गोदी ही उपलब्ध रही थी, बल्कि ड्राइंग की यह ट्रेनिंग भी।
मगर अचम्भे की बात तो यह थी कि माँ की ड्राइंग का वही हुनर जो अभी तक भाइयों की ड्राइंग की कॉपियों में और साइंस की प्रैक्टिकल बुक्स के डाएग्रैम्ज़ पर उन्हें “वेरी गुड” दिलाने का गौरव प्राप्त करता रहा था, प्रभा के पास जाते ही नया निरूपण धारण कर रहा था। माँ के रूलर वाले जोड़ से अलग जा रहा था। कहाँ तो माँ द्वारा बनाए गए चेहरे सही अनुपात लेते रहे थे। माँ अपनी ड्राइंग में चेहरे के सिर की अनी और ठुड्डी की नोक के बीच का फ़ासला रूलर से माप कर उसे उस की आँखें देती थीं। बीचोंबीच। और फिर नाक और ठुड्डी का फ़ासला माप कर नाक के ऊपर वाले सिरे की सीध से शुरू कर नाक के निचले सिरे की सीध तक कान रखती रही थीं।
और कहाँ प्रभा के काग़ज़-पैंसिल चेहरों को टेढ़े-टेढ़े मरोड़ दे कर विकृत रूप देने की ठानते चले गए थे! क्रमशः। निरन्तर।
अपने उस ग्यारहवें साल में प्रभाज्योति ने पापा की तस्वीर बनायी थी।
लाल काग़ज़ पर।
पापा के नाक-नक़्श प्रभा ने काठ-कोयले से छितराए थे। बालों की रज्जू हू-ब-हू उन की असली रज्जू की जगह रखी थी। उन के तीन-चौथाई बालों को उनके एक-चौथाई बालों से अलग करती हुई।
आँखों की भौंहों व बरौनियों को भी सुस्पष्ट समानता दी थी।
कानों को भी नाक के अनुपात में एकदम मेल खिलाया था।
मगर उनकी आँखों के गोलक, उनकी नासिकाएँ, उनकी गालों की हड्डियाँ, उनके बालों की माँग रिक्त, ख़ाली लाल काग़ज़ पर रख दी थीं। साथ में जोड़ दी थी वह लाल ज़ुबान जो ऊपर के खुले होंठ को धकियाती हुई निचले होंठ और ठुड्डी की जगह ले बैठी थी।
नाक का टेढ़ापन भी अधिमाप लिए था। और काली पुतली लिए लाल वे नेत्र-गोलक और लाल वह ज़बान पारिभाषिक प्रकोप की आशंका सामने रख रही थी।
“देख तो!” दादी वह तस्वीर झट पापा के पास ले गयी थी, “बहू कैसे तो लड़की को बिगाड़ रही है!”
“यह क्या?” आनन-फ़ानन पापा उस तस्वीर के साथ माँ के पास जा धमके थे।
माँ उस समय पापा के लिए अनन्नास तराश रही थीं और बोलने में बेध्यानी बरत गयीं थीं, “प्रभा ने आपकी तस्वीर बनायी है . . .।”
फल तराशते समय वह पापा के संग अक्सर उच्छृंखल स्वेच्छाचार पर उतर आती थीं।
शायद सोचती थीं फल तराश कर वह पति को अनुगृहीत करती थीं क्योंकि फल वह बहुत श्रम से तराशा करतीं। पपीते के, सेब के, चीकू के छिलके तो ललित अपनी काट से उतारती ही उतारतीं, सन्तरे व मौसमी की फाँकों के तो बीज भी छाँट दिया करतीं। अनार का एक-एक दाना तश्तरी में रखने से पहले दो बार देखतीं-परखतीं, कहीं से पिचका या गला तो नहीं?
“क्या कह रही हो?” पापा चिल्लाए थे, “ग्यारह बरस की वह बच्ची इतना दिमाग़ रखती है!”
“हाँ,” हाथ रोक कर माँ हँस पड़ी थीं, “उसके हाथ से लकीरें यों निकल भागती हैं जैसे घोड़े के खुर में से टाप! अनायास . . .।”
अनन्नास की तेज़ छुरी जो माँ ने हाथ में ले रखी थी, पापा ने छीनी थी और माँ के हाथ की दिशा में वार कर दिया था . . .
वार माँ की कलाई पर सीधा पड़ा था . . .
और लहू का फ़व्वारा छूट लिया था . . .
लहू बंद कराने के लिए माँ को अस्पताल भी ले जाया गया था किन्तु डॉक्टर उन्हें बचा न सके थे।
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अरूणकुमार प्रसाद 2024/06/02 11:45 AM
कथ्य और तथ्य दोनों ही अच्छे हैँ।