अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

नायाब तोहफ़ा

 

यशवंत बाबू अपने बेटे से मिलने अमेरिका जा रहे थे। बहू का फोन आया, “पापा आप कोई ऐसा तोहफ़ा लाना जिससे आपके बेटे को सबसे ज़्यादा लगाव हो।” उन्हें कभी लकड़ी की तीन पट्टी की साइकिल कभी लट्टू और कभी पुरानी किताबें नज़र आतीं। पत्नी हर चीज़ को देखकर कहती, “नहीं ये सही तोहफ़ा नहीं है।” 

वो घबराकर बोले, “मुझे कुछ याद नहीं आ रहा, तुम ही सोच-समझकर जो ठीक लगे, ले लेना। मैं तो दिन भर खेतों में काम करता था, मुझे उसकी पसंद कहाँ याद है।” 

अगले दिन विदेश जाने की सारी तैयारी हो गई, नहीं चाहते हुए भी वो पत्नी से पूछ बैठे, “नंदू का सबसे प्रिय सामान रख लिया?” उनकी पत्नी ने हाँ में सिर हिलाया। 

एयरपोर्ट से घर पँहुच कर बहू को ख़ूबसूरत अपने हाथों से कढ़ाई की हुई कमीज़ सलवार दी। पोते को रंगीन और सुंदर मनी बैंक दिया। अब अक्षय की बारी थी। 

“बाबूजी मेरा तोहफ़ा कहाँ है?” 

वे बोले, “तेरे खिलौने और तेरी यादों से तो पूरा घर भरा है। समझ में नहीं आ रहा था कि तुम्हें सबसे ज़्यादा क्या पसंद था?” 

तभी उस की माँ पूछ बैठी, “बताओ . . . तुम्हारी यादों में सबसे प्यारा और अनोखा क्या था?” 

अक्षय बोला, “माँ शायद तुम्हें याद नहीं पर जब मुझे कंधे पर बाबूजी स्कूल ले जाते थे और लेकर आते थे तो आते-आते रात हो जाया करती थी। और मुझे टास्क मिलता था तो मैं बनाकर नहीं ले जाता था। क्योंकि उस समय घर में एक ही लालटेन थी, जो बाबूजी खलिहान में रखते थे, और घर आते समय घर लेकर आते, और उसकी रोशनी में हम लोग बैठकर खाना खाते थे। 

“एक दिन मैंने तुम्हारे दवा की शीशी से दीया बनाया . . . और फिर उस दिन से मेरी पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आई। मुझे, वह दीया सिर्फ़ दीया नहीं, हमारे हौसले और सफलता का चिराग़ लगता था। और सच में आज मैं जो कुछ भी हूँ, उस दीये के कारण . . .” 

तभी माँ ने वह दीया अपने बैग से निकाल कर टेबल पर रख दिया। अक्षय ने दौड़कर उसे जलाया, और घर की सारी लाइट बुझा दी। ये था नायाब तोहफ़ा . . . 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं