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भूली दास्तान

वो ज़माना अलग था, उसकी मान्यताएँ अलग थीं, बस ईश्वर के बनाये हुए मानव के दिल बिल्कुल वर्तमान अवस्था में ही थे। 

राजन एक कॉलेज फ़्रेंड सुपर्णा के साथ एक रेस्टोरेंट में चाय पी रहा था, वो अलग बात है, आज लड़के-लड़कियाँ बियर भी साथ पीते हैं, कोई कुछ बोलता नहीं। तभी राजन के मम्मी, पापा कोई पूजा के लिए मिठाई लेने अंदर घुसे और एक लड़की के साथ देखकर परेशान हो गए। 

अब राजन समझ चुका था, आज पापा के कोर्ट में उसकी पेशी होगी, मम्मी तो सीधी-साधी है, उनको तो दोस्त का मतलब समझा दूँगा, पर पापा संस्कारों की पोथी खोल बैठेंगे, हुआ भी वही। उन्होंने वादा लिया, लड़की के साथ ज़्यादा नहीं घूमना, बदनाम हो जाओगे। हुआ ये कि छुप-छुप कर वो मिलने लगे, क्रेज़ बढ़ता ही गया। 

उन दोनों को एक दूसरे का साथ अच्छा लगता था। अच्छा लगता था जब वो सुपर्णा की लिखी कहानी को अपनी आवाज़ देता था और टू इन वन में दोनों रिकॉर्ड करते थे। कॉलेज में क्लास के बाद घंटों बातें करते थे, कहानियों की कविताओं की।

तभी एक दिन पढ़ाई के बाद मम्मी ने राजन को समझाया और एक फोटो दिखाई। उनकी बात वो टाल नहीं पाया, रीना से विवाह हो गया। एक साधारण घर-गृहस्थी, प्यार बच्चे ज़िन्दगी में आ गए। राजन रोबॉट की तरह सब कुछ करता रहा। 

पंद्रह वर्ष बाद एक दिन दिल्ली जाना हुआ, कुछ घंटों का समय था फ़्लाइट से पहले, किताबों के शौक़ ने क़दम बुक-फ़ेयर तक पहुँचा दिए। घूमते हुए एक बुक शॉप में एक किताब “दोस्ती कठघरे में” खोलकर पहली कहानी पढ़नी शुरू की, और हर शब्द, हर वाक्य पहचाना सा लगा, और दिल को भेदता हुआ, लगा। वो वहीं खड़े दस मिनट में उस किताब की पाँच कहानियाँ पढ़ चुका, फिर होश आया, ये तो जानी-पहचानी कहानियाँ लग रही हैं। झट से राइटर का नाम ढूँढ़ने लगा, “सुपर्णा घोष”!! 

होंठों पर एक गीत गूँजा, “वो भूली दास्तान लो फिर याद आ गयी।”

पता नहीं क्यों, पर उसने सुपर्णा का फ़ोन नंबर सेव किया। 

फ़्लाइट का समय होने वाला था, निकल पड़ा।

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