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नयी रीत

दिन भर रवीना बाज़ार से ख़रीदारी में व्यस्त थी, हो भी क्यों न, ननद की पहली लड़की की शादी थी। कई साड़ियाँ गहने वो अपने सूटकेस में सजा चुकी थी। दूसरे ही दिन कार से निकलना था। 

तभी चाची सास का फ़ोन आया, “कहाँ हो, बहू रानी, तुम्हारे चाचा को दिल का दौरा पड़ा है, सब लोग बड़े अस्पताल पहुँचे हैं, मेरा दिल घबरा रहा, आ जाओ।”

“आ रही हूँ, चाची, मत घबराइए, नारायण चाचा को कुछ नहीं होगा।”

रवीना और संजय दोनों अस्पताल पहुँचे, डॉक्टर के अनुसार एंजियोप्लास्टी, एंजियोग्राफी सब करनी पड़ेगी। 

चाची सास बुरी तरह रो रही थी, “पचास हज़ार पहले ही जमा करने कह रहे, कहाँ से लाऊँ एक साथ इतने पैसे?” 

अब रवीना ने कहा, “चाची, पैसे तो हमारे पास भी नहीं, क्या करें? जीजी के यहाँ की शादी के लिए ख़रीदारी कर ली, शगुन का लिफ़ाफ़ा बनाया, किसी तरह डॉक्टर से बोलो दो दिन दवा देकर सँभाले, फिर शादी से लौटकर कुछ सोचते हैं।”

रवीना और संजय शादी में गए। धूमधाम से शादी हुई, फिर लड़की को शगुन देते समय पूरे परिवार ने व्यवहार निभाया। दुलहन को लेकर बारात विदा हुई। 

अब ननदोई जी ने सब शगुन के लिफ़ाफ़े खोलकर गिनना शुरू किया। साठ, सत्तर हज़ार कैश ही जमा हो गया था। 

उन्होंने सारे मेहमानों को इकट्ठा कर कहा, “पुराने समय में शादी में आशीर्वाद के रूप में एक-दो रुपये से शुरू हुआ आज शगुन का लिफ़ाफ़ा हज़ार, पाँच हज़ार तक आ पहुँचा। आज मुझे ये कहना है कि हर पिता अपनी लड़की की शादी के लिए इंतज़ाम करके ही रखता है, वो शगुन के भरोसे नहीं रहता। फिर क्यों न हम ये रिवाज़ धीरे-धीरे समाप्त करें। हमें तो अब ये शुरू करना चाहिए परिवार का कोई भी अकस्मात्‌ बीमार पड़े तो इस तरह जमा करके उसकी सहायता करें। आइये आज नई रीत बनाते हैं, ये पैसा नारायण भैया की तीमारदारी में लगा देते हैं।”

“वाह, कितनी नेक सलाह है, अब से ऐसा ही होगा।”

और एक महीने के बाद नारायण जी भले चंगे अपने घर में थे। 

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