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ईश्वर का कैमरा

बैंक मैनेजर रमेंश अपनी कुर्सी पर बैठकर जल्दी जल्दी सारी ई-मेल फ़ाइल्स चेक कर रहे थे, तभी कोई बुज़ुर्ग दरवाज़ा खोलते हुए अचानक ऑफ़िस मेंं घुसे। 

उन्होंने ज़ोर से चपरासी राजू को इण्टरकॉम पर कहा, “कहाँ हो, ध्यान नहीं रखते हो, कैसे बिना बताए कोई आ जाता है।”

दौड़ते हुए राजू ने आकर कहा, “सर, बहुत रोका, इन्होंने सुना ही नहींं।”

रमेश ने बुज़ुर्ग से कहा, “कहिए, आपको क्या परेशानी है, बाहर इतना बड़ा स्टाफ़ है, आप मेरे पास क्यों आये हैं?”

और ध्यान से बुज़ुर्ग को देखने लगे, अचानक कुर्सी से खड़े हो गए, और जाकर उनके चरण छुए, “मास्टरजी, माफ़ करिये, मुझे नहीं पता था, जीवन में ऐसे भी इत्तफाक होते हैं, कई बार मैं चौरी चौरा गया, पर आपका पता नहीं लगा। कहिए मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ?”

“रमेश बेटा, छह महीने पूर्व मैं सर्विस से रिटायर हो गया, मेरी पेंशन के काग़ज़ इसी बैंक के हैं, दो महीने से बहुत बार यहाँ चक्कर काट चुका, लोग कल आइये, परसों आइये, कहकर मुझे टरका देते हैं। आज ये सोचकर आया कि बैंक मैनेजर से मिलूँगा। मुझे क्या पता था, इस कुर्सी पर जो होनहार बैठा है, वो मेरा ही शिष्य है।”

“राजू, दो कॉफ़ी लेकर आओ, ये मेरे अपने हैं।”

“मास्टरजी, आज जिस कुर्सी पर मैं बैठा हूँ, उसका पूरा श्रेय आपको जाता है, मैं तो एक मज़दूर का बेटा था, मेरे नंबर देखकर आपने मुझे रास्ता दिखाया। बैंक का प्रोबेशनरी अफ़सर का फ़ॉर्म भरवाया, रोज़ मुझे बुलाकर पढ़ाया, मुझे उम्मीद नहीं थी, कि इतने बड़े एग्जाम मेंं मैं उत्तीर्ण होऊँगा। पर आपने मेरे सपनों को पंख दिए और मेरी सर्विस बैंक में लग गयी। इन बीस वर्षों में जगह जगह ट्रांसफ़र हुआ, अब 2 वर्ष से यहाँ हूँ, आप कैसे दिल्ली में हैं।”

“अरे बेटा, मैं रिटायर हो गया, तो अकेला रह गया था, मेरा बेटा मुझे यहाँ ले आया।”

“मास्टरजी, अब बिल्कुल चिंतामुक्त हो जाइए, यहाँ आपका एक और बेटा है, जो हमेशा आपका ध्यान रखेगा, मैं वादा करता हूँ।”

और आँखों मेंं अश्रु लिए मास्टरजी इस नए रिश्ते पर निहाल हुए जा रहे थे और सोच रहे थे, ईश्वर भी अपने कैमरे मेंं अच्छी मेमोरी सेव करते हैं और समय पड़ने पर दिखाते हैं। 

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