अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मिठाई

अचानक कॉल बेल बजी, राजेश जी ने जल्दी से मास्क लगाया, दरवाज़ा खोलने चल दिये, बड़बड़ाते जा रहे थे, दोपहर 2 बजे कौन आ गया।

"नमस्ते, सर जी, कैसे है आप?"

"मैंने पहचाना नहीं आपको, नज़र भी कुछ कमज़ोर हो रही है।"

"पहले तो चरण स्पर्श करूँगा, फिर परिचय दूँगा, मैडम है कि नहीं, मैं देवाशीष सेन, पच्चीस वर्ष पहले वो छोटे से शहर के आपके ऑफ़िस का सेक्रेटरी। मैडम ने मुझे कंप्यूटर के बारे में एबीसी सिखाया था और आज कई कोर्स करने के बाद मैं बढ़िया सर्विस में हूँ।"

"अरे सुनो, कहाँ हो , देखो दादा आया है।"

और साड़ी सम्हालती रजनी ने कहा, "आओ दादा, बहुत अच्छा लगा, अब तो कोई त्योहार में भी आता नहीं, बच्चे विदेश चले गए।"

"मैडम लीजिए, ये मिठाई और ये दीवाली गिफ़्ट आप लोगों के लिए लाया हूँ। हर दीवाली मैं आप लोगों को याद करता था, वो ऑफ़िस के दिनों में, दीवाली के एक दिन पहले अलमारी के ऊपर मिठाई के चमकते डिब्बे दिखते थे, और हम सब लड़के दिन भर उनको देखकर ख़ुश होते थे। सर, हम सबको शाम को दिवाली की बधाई के साथ मिठाई और उपहार देते थे; उस दिन की ख़ुशी के साथ सर का चेहरा हमेशा मेरे ज़ेहन में रहा। मैं पुराने शहर आप लोगों को ढूँढ़ते हुए गया, बहुत पूछने पर आपके एक रिश्तेदार से ये पता मिला।"

दोनों राजेश और रजनी बोल पड़े, "इतने वर्षों बाद तुम इतना कुछ याद रखकर बहुत कुछ लेकर हमसे मिलने आये, अब तो शायद जहाँ दिल मिलेलें, वहीं सच्चे रिश्तेदार होते हैं।"

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं