अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

बर्थडे विशेज़

 

नीरा का आज पचासवाँ जन्मदिन था, रात से ही वो मोबाइल में व्यस्त थी। हो भी क्यों ना, फ़ेसबुक में और व्हाट्सएप्प में ढेरों दोस्त बना रखे थे। सब दोस्तों के बधाई के मैसेज पढ़कर ख़ुशी से फूली नहीं समा रही थी। किसी-किसी को उसी समय रिप्लाई करने में भी व्यस्त थी। 

तभी बाहर से उसके पतिदेव नमन आये, “कहाँ हो, बढ़िया गर्म जलेबी समोसे लाया हूँ, चाय बना लाओ, क्या यार तुम अभी भी मोबाइल में घुसी हो, ब्रश भी नहींं किया, 10 बजने वाले हैं।”

“बस अभी आयी, क्या करूँ इतने ढेरों मैसेज हैं, तुम समझते नहीं, लोग मुझे कितना चाहते हैं, तुम तो अपना एकाउंट डिलीट कर चुके।”

“सही कहा, तुमने ये आभासी दुनिया मायावी बनते जा रही है, कई लोग व्हाट्सएप्प में लिखना भी ठीक से नहीं जानते, सब फ़ॉरवर्ड या कॉपी पेस्ट करते हैं, ध्यान दोगी तो मालूम पड़ेगा, बधाइयाँ भी कॉपी पेस्ट वाली ज़्यादा हैं। एक बात बताऊँ, अगर ये सब चीज़ों का आविष्कार पचास वर्ष पहले हो जाता, तो सब कॉपी पेस्ट करके डिग्री भी ले लेते।”

“अच्छा जी, अब बस भी करो, एक बात बोलूँ, झूठी ही सही, ख़ुशी तो मिलती है। याद है, शादी के शुरू में तुम वो गाना गाते थे, ‘पल भर के लिए कोई मुझे प्यार कर ले, झूठा ही सही’, वही समझ लो, बधाई तो देते हैं लोग, चाहे कॉपी क्यों न करे, एक दिन के लिए मैं स्वयं को सेलिब्रिटी समझ लेती हूँ।”

“ओके, अब आ जाओ मेरी सेलिब्रिटी, समोसा भी तुम्हें बधाई देने को तरस रहा।”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं