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एक झूठ सौ ख़ुशियाँ

कुशाग्र बुद्धि का अमर जब कई वर्षों पहले डॉक्टरेट करने अमेरिका जा रहा था, श्याम चतुर्वेदी और उनकी पत्नी रमोला का बुरा हाल था। किसी तरह दोनों अपने हृदय को वश में कर रहे थे कि बच्चों को उन्नति के लिए बाहर जाना ही पड़ता है।

उसके विदेश जाने के बाद रिटायर होकर दोनों अपने घर में ही शान्ति से रहते थे, पैसे की कोई कमी नहीं थी। श्याम जी के एक प्रोफ़ेसर दोस्त भी अमेरिका में उसी शहर में रहते थे। अमर के जाने के कई वर्ष बाद प्रोफ़ेसर का फोन आया, “कैसे हो, क्या हाल है?”

“ठीक हूँ।”

उनके हाल सुनकर प्रोफ़ेसर दोस्त को बड़ा आश्चर्य हुआ, बोले, “मैंने एक पत्र भेजा था, आपको मिला या नहीं।”

“नहीं, यार, तुम कब से पत्र भेजने लगे? क्या लिखा था?”

“कुछ नहीं, यूँ ही कुशल-क्षेम का था।”

और उसके बाद से प्रोफ़ेसर साहब, श्याम जी का बहुत ध्यान रखने लगे। कई बार वो भारत आये, अपने दोस्त और भाभीजी के लिए बहुत से गिफ़्ट लाये, और बोले, “ये आपके अमर ने भेजा है। वो ज़रा व्यस्त रहता है, जहाँ है, वहाँ नेटवर्क भी नहीं मिलता है।” और वो वापस अमेरिका चले गए। 

इस बार दीवाली में श्याम जी ने ज़िद पकड़ ली, “देखो प्रोफ़ेसर मेरे बेटे अमर तक संदेश पहुँचाओ, मैं सत्तर वर्ष का हो चुका, उसकी माँ भी पैंसठ वर्ष की हैं, अब तो एक बार चेहरा दिख जाए, इस बार दीवाली में आ जाये।”

“ठीक है श्याम, संदेश पहुँचा दूँगा, आगे उसकी मर्ज़ी।”

और श्याम जी का परिवार दीवाली के पहले घर की स्पेशल सफ़ाई में लग गए कि शायद अमेरिकन बेटा आ जाये। 

दीवाली के दिन घर रोशनी से जगमग हो गया, मन भी रोशन होने को बेक़रार था, तभी एक कार आकर रुकी, उसमें से प्रोफ़ेसर का बेटा प्रखर परिवार के साथ उनके सामने खड़ा था, सब तरफ़ आवाज़ें थीं, “हैप्पी दीवाली”, गिफ़्ट दिए जा रहे थे, ख़ुशी का माहौल था। श्याम जी और उनकी पत्नी भी एक लंबे अंतराल के बाद इस अहसास को जी रहे थे। 

सबने मिलकर लक्ष्मी जी की पूजा की बढ़िया भोजन किया और सो गए। 

सुबह गार्डन में श्याम जी और प्रखर का दस वर्षीय बेटा बैठे बातें कर रहे थे, तभी वो अपने पापा के मोबाइल में स्कूल फ़ंक्शन की कुछ तस्वीरें दिखाने लगा। अचानक उँगली आगे बढ़ाते हुए श्याम जी की नज़र एक तस्वीर पर अटक गयी, फूल माला चढ़ी अमर की तस्वीर थी। और श्याम जी का दिल धड़का, आँसू अपना बाँध तोड़ चेहरे पर इधर-उधर आधिपत्य जमा चुके थे। 

चुपचाप जाकर बाथरूम बंदकर प्रोफ़ेसर को फोन मिलाया, “क्या यार, कोई दोस्त का इतना भी ध्यान रखता है क्या, प्रखर बेटे को दीवाली में भेज दिया, हमेशा गिफ़्ट भेजते हो, हर दूसरे दिन फोन पर हाल लेते हो, एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी निभाते हो। आज के समय में जब भाई-भाई का दुश्मन हो रहा, दोस्ती के मायने कोई तुमसे सीखे।

“अपने दोस्त के बड़े से बड़े ग़म छुपाकर उसे ख़ुशी देते हो। आज एक सच से साक्षात्कार हुआ और एक बात बताऊँ, तुम्हारा ये बुढ़ापे में ख़ुश रखने का नुस्ख़ा यूँ ही चलेगा, मैं अमर की माँ को भी कुछ नहीं बताऊँगा।”

“माफ करना दोस्त, उस पत्र में मैंने सब लिखा था, वो कहीं गुम हो गया, फिर कहने की हिम्मत नहीं पड़ी। तुम दोनों ही डायबिटीज़ और बीपी के शिकार हो, एक झूठ से अगर कोई ख़ुशी मिलती है, तो ख़ुशी का पलड़ा भारी होना चाहिए। प्रखर अब हम दोनों का बेटा है।

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