महके हुए से राज़
कथा साहित्य | कहानी भगवती सक्सेना गौड़15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
बेटा यूएस में बस गया था, तब सीनियर सिटीज़न वृंदा से कई दोस्तों ने कहा, “अकेले इतने बड़े तिमंज़िले महल में कैसे रहोगी, आजकल किरायेदार पर विश्वास भी करना मुश्किल है।”
“क्या करूँ, समझ नहीं आ रहा।”
कुछ बातें उसके मन में बैठ गयीं। एक मशवरा बहुत पसंद आया और उसने “अभी तो हम जवान हैं” नामक सीनियर सिटीज़न क्लब हाउस में उस महल को परिवर्तित कर दिया। महल में लिफ़्ट लगवाई—भई बुज़ुर्गों को रखना है—तो लिफ़्ट ज़रूरी है। नीचे के फ़्लोर में पुरुष और ऊपर लेडीज़ के कमरे थे। एक बड़ा रसोईघर और कुक की तैयारी की। महिलाओं और पुरुष के गेम्स, टेलीविज़न, मनोरंजन के कई साधन थे। सुबह गार्डन में वाकिंग, योग सब कुछ होता था। संडे सुबह लाफ़िंग प्रोग्राम चलता था। संडे शाम को ज़ोर से म्यूज़िक बजता, सारे लोग धीरे-धीरे डांस करते। स्त्री-पुरुष दोस्त बन जाते, कई लोग पुरानी फ़िल्मों पर चर्चा करते, कोई पुस्तकों में डूब जाते।
कुल मिलाकर एक स्वस्थ माहौल बन चुका था, जहाँ हफ़्ते में एक बार डॉक्टर आकर सबकुछ टैस्ट करते। बहुत किफ़ायती ख़र्चों में बुज़ुर्ग वहाँ रहते। पूरे शहर में यह क्लब हाउस प्रसिद्ध हो गया था। क्योंकि इसको वृद्धाश्रम कोई नहीं कहता।
वृंदा ग्रेजुएट होने के कारण हमेशा से पढ़ने लिखने की शौक़ीन थी, बेटे ने पहले ही उसे लैपटॉप चलाना सीखा दिया था। जो भी नए सदस्य आते, वह पूरी डिटेल नोट करती।
अचानक एक बुज़ुर्ग को एक दिन एक वयस्क सज्जन लेकर आये। और बोलने लगे, “मुझे अधिकतर दूसरे देशों में जाना पड़ता है, मेरे ताऊजी हैं, इन्होंने ही मुझे पालपोस कर बड़ा किया। घर में परेशान रहते हैं, कई बार रो पड़ते हैं, आप कुछ दिन इनको यहाँ रखकर देखें।”
वृंदा अचरज से कभी उनको कभी उनके ताऊ को घूर रही थी। चेहरा उसे बहुत पहचाना-सा लग रहा था। तभी उसने पूछा, “नाम बताइये।”
“मैं अक्षय और ये मनोज चतुर्वेदी।”
वृंदा भाग्य के इस खेल को देखकर समझ नहीं पा रही थी, ख़ुश होऊँ या दुखी होऊँ।
फिर सिर नीचे करके उसने पूरा डिटेल लैपटॉप में नोट किया।
उनको कमरे की चाबी पकड़ाई और चपरासी से कहा, “इनको कमरे तक पहुँचा दो।”
स्वयं बाहर लॉन में टहलने लगी। जो कभी सपने में भी उम्मीद नहीं थी, वह आज प्रत्यक्ष रूप में देख रही थी।
ईश्वर भी न जाने हाथ की रेखाओं को कहाँ से कहाँ जोड़ देता है। यादों में खो गई।
♦ ♦
कॉलेज की रैगिंग चल रही थी, सीनियर लड़के लड़कियाँ मिलकर नए छात्रों को सता रहे थे, आँख में पट्टी बाँध लास्ट में एक कुर्सी में बैठने उसे बोला गया, किसी तरह जाकर बैठने की कोशिश की और मैं गिर पड़ी थी, वह कुर्सी टूटी थी, यही मनोज था, जिसने जल्दी से सँभाला और सब लड़कों को डाँटा, “यार लड़कियों को तंग मत किया करो।”
धीरे-धीरे पहचान हो गई, एक ही बस में कॉलेज आते। दूर ही बैठते कनखियों से बार-बार देखा करते, पर कुछ बोलते नहीं। पर बिना बोले भी नज़रों में कुछ था, एक बार मिलती तो दिल में घंटियाँ बजने लगती। उसी बीच कोई एक हफ़्ते मनोज कॉलेज नहीं आया, परेशान होकर उसके एक दोस्त से पूछा, “कहाँ है मनोज आजकल कॉलेज नहीं आ रहा, एक बुक मेरे पास है, उसे देनी है।”
“अरे पता नहीं क्या, उसकी बहुत तबियत ख़राब है, अभी पंद्रह दिन और नहीं आएगा।”
वो दिन इंतज़ार करते बीते, और उस बिछोह ने वृंदा को एहसास दिलाया, कि मनोज उसके हृदय में बिना आज्ञा के जगह बना चुका है। उसके बाद एक साथ ही दोनों आने-जाने लगे। रोज़ दो-तीन घंटे साथ बैठे रहते।
बात आगे बढ़ चुकी थी, तब ही अचानक वृंदा के पापा का ट्रांसफ़र हुआ, और अलग होना पड़ा।
वह समय ऐसा नहीं था, कि अपने घर में इस रिश्ते के बारे में कुछ कह सकती। मन के तहख़ाने में इस प्यारे से रिश्ते को क़ैद कर ज़िन्दगी में बहुत आगे बढ़ चुकी थी।
♦ ♦
वही आज इस रूप में सामने आएगा वृंदा देखकर परेशान हो चुकी थी। पूरा दिन परेशान-सी रही, दिमाग़ी हर समस्या तो चुटकी में हल होती है, इस दिल की समस्या को कैसे सुलझाऊँ? शाम को चाय के वक़्त सबके साथ बैठी रही, एक बार मनोज के पास भी जाकर उनके घर के लोगों के बारे में पूछती रही। उसे महसूस हुआ, इनको सिर्फ़ बचपन और कॉलेज की कुछ बातों के सिवा कुछ याद नहीं। इस उम्र तक आते-आते आधी-सी बातें भूल चुके हैं। अचानक वृंदा ने पूछा, “आपकी पत्नी कहाँ हैं?”
जवाब मिला, “शादी नहीं की, क्यों नहीं की, कुछ नहीं पता।
“हाँ, कुछ धुँधला सा याद है, कोई थी, जिसका नाम भी मुझे याद नहीं, वह एक गाना हमेशा गाती थी . . . ‘आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज़ हैं’। आज भी सुनता हूँ तो मन ख़ुश हो जाता है।”
“क्या आप वह गाना सुनना पसंद करेंगे?”
“अरे वाह, काश ऐसा हो।”
वृंदा ने धीरे-से गाना सुनाया।
और सत्रहवें वर्ष की बाली उम्र की आवाज़ मनोज को याद आने लगी और काँपते हाथ आगे बढ़े, तो “तुम वृंदा हो, पूरी ज़िन्दगी भटकता रहा, कहीं तो मिलोगी। पर मिली तुम क़ब्र के रास्ते में . . .”
दोनों हाथ पकड़ कर आँसू बहा रहे थे। वहाँ क्लब हाउस के सब लोग उनको घेर कर बहुत ख़ुश थे।
अरे वाह दो दोस्त मिल गए।
वृंदा निश्चिन्त हो अपने कमरे में चली गई।
किसी तरह नींद लगी तो सपने में वह शीशे के सामने खड़ी थी, आज झुर्रियाँ कहीं ग़ायब हो गयी थीं, उसे शीशे में कॉलेज वाली वृंदा नज़र आ रही थी। यही सब सोचते कब नींद लगी उसे याद नहीं। सबेरे का सूरज अपनी लालिमा से उसको जगाने आ चुका था।
आज उसने सोचा शायद ईश्वर ने कुछ सोचकर ही मनोज को ऐसे हालातों में मेरे पास भेजा है और वह चल पड़ी उसे जगाने। दरवाज़ा भिड़ा था, वृंदा ने कहा, “गुड मॉर्निंग मनोज, चलो मॉर्निंग वॉक पर चलते हैं।”
सुहानी सुबह के एक पार्क में दो बुज़ुर्ग प्रेमी मिलकर गुनगुना रहे थे . . . ‘आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज़ हैं . . .’
उनकी दिनचर्या बदल चुकी थी, दोनों एक दूसरे में खो चुके थे, कुछ ही समय में मनोज की तबियत बहुत सही हो गयी थी। तभी एक दिन मनोज के बेटे अक्षय ने आकर कहा, “पापा घर चलना है क्या, अब मुझे कहीं नहीं जाना है।”
“बेटा यहाँ सब हमउम्र के बीच मुझे बहुत अच्छा लग रहा। इनसे मिलो ये वृंदा मेरी कॉलेज फ्रेंड।”
“ठीक है पापा, मैं आता रहूँगा।”
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