अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मायका

माँ तो सबकी प्यारी ही होती है, पर निर्मल को अपनी माँ, दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत, होशियार और प्यार की मूरत लगती थी। माँ के साथ लाड़ प्यार के दिन का कोटा पूरा करके ससुराल आ गयी थी, वो भी अब उस रूप को अपनी आत्मा में सहेजकर बेटियों पर लुटाने लगी थी। 

फिर भी मायके की आस रहती ही थी, शायद किसी को मेरी याद आ जाये। वर्तमान युग मेंं क्या प्यार, ममता का कोई महत्त्व है, पर एकाएक उसके मन के भावों ने उसको झिड़क दिया, “क्या सोच रही हो, कोई याद करे या न करे, माँ ज़रूर करेगी।”

तभी मोबाइल गुनगुनाया, “अपने तो अपने होते हैं।”

देखा तो फ़ोन प्यारी सी मम्मी का था, “अरे, तुम मुझे कैसे भूल गयी, मेरी निर्मल, सुबह से हिचकी आ रही थी, तुम्हारे सिवा अब कौन है, जो मुझे याद करेगा।”

“तबियत कैसी रहती है, मम्मी, बिल्कुल सही पहचाना, आज मेंरे अंदर तूफ़ान घुमड़ रहा था, कैसे अपने शरीर के ही एक हिस्से को दूर भेजा जा सकता है, आज मैं भी रंजना को होस्टल भेजने की तैयारी कर रही थी, तभी विचारों ने मुझे याद दिलाया, इसको एक दिन ससुराल भी भेजना पड़ेगा। और आपकी मनोदशा का आज पूरी तरह अवलोकन किया। मन का दर्द आँखों से बहने लगा।”

माँ की लरजती सी आवाज़ सुनाई दी, “एक बार आ जाओ, तबियत बहुत ख़राब लगती है, मुश्किल से दो चार क़दम चल पाती हूँ। तुम्हारे भैया, भाभी ऑफ़िस में रहते हैं, पूरे दिन बचपन से आजतक का तुम्हारा चेहरा आँखों में रहता है। पता नहीं कब ईश्वर को मेरी याद में हिचकी आ जाये, और मुझे जाना पड़े।”

“मम्मी, चिंता न करो, अगले सप्ताह पहुँचती हूँ।”

और तीन दिन बाद ही भैया का फ़ोन था, निर्मल, मम्मी को कल रात अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा, ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया था। 

और दौड़-भाग करके वो पहुँच गयी। 

पहुँचते ही मम्मी के गले लगी, वो भी लिपट कर रो पड़ी और धीरे से बोली, “अब इजाज़त दो निर्मल, मुझे लंबी यात्रा पर जाना है।”

“अरे क्या बोल रही हो, मम्मी, मैं आ गयी हूँ, अब आपको भला चंगा करके घर ले जाऊँगी।”

और सुबह पाँच बजे ही अस्पताल से ख़बर आई, मम्मी यात्रा पर निकल चुकी। 

घर के आँगन में बेटी उसकी मृतदेह के पास बैठी हाथ से रेत की तरह सरकते मायके के आभास और माँ की मौत दो दुखों को एक साथ झेलती सुबक रही है। 

घर पर दिन भर रिश्तेदार भरे थे और निर्मल की आँखों मेंं आँसू, उसे आगाह कर रहे थे, नज़र भर देख ले, माँ को भी और माँ से बना मायका को भी, पता नहीं फिर आना हो पाए या नहीं। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं