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डाकिया डाक लाया

रवीना को आज अपनी बड़ी बहन की बहुत याद आ रही थी, पूरी यादों का रेला दिल में गूँज रहा था। वो क्या, पूरा मोहल्ला उनको जीजी कहता था। रवीना बारह वर्ष की थी, जब जीजी का विवाह हो गया, अपने शहर से बहुत दूर उसका ससुराल था। घर तो उनके बिना सूना हो गया था। रवीना की सुबह से शाम जीजी के ही साथ बीतती थी। सुंदर सी बहना, प्रत्येक कार्य में निपुण हमसे दूर चली गयी थी। उसके वियोग में घर में हमेशा उदासी छाई रहती थी। सप्ताह में एक-दो दिन ही सबके चेहरे खिले रहते थे। वो दिन होता था, जब साइकल की घंटी बजाते हुए पोस्टमैन अंकल घर की घंटी और साथ में उसके दिल की भी घंटी बजा देते थे। सब भाई–बहन, पीछे-पीछे उसके मम्मी, पापा दौड़कर बाहर आते थे। अक़्सर वो जीजी का लंबा सा पत्र होता था। पोस्टमैन अंकल भी भावुक होकर पूछते थे, “बड़की का चिट्ठी है ना, कल बताना राजी-खुशी है ना।”

घर के हर सदस्य की चिंता करते हुए जीजी ये जता देती थी कि उनका शरीर ससुराल में है पर मन यहीं सबके ही बीच विचरण कर रहा है। उस दिन घर में कुछ बढ़िया व्यंजन बनते थे, ख़ुशी-ख़ुशी दिन में कई बार उस पत्र के शब्दों को दोहराया जाता था। 

यादों का रेला गुज़र चुका था, वर्तमान में रवीना सोच में पड़ गयी। अब तो जीजी भगवान को प्यारी हो गयी। काश वहाँ भी कोई पोस्टमैन होता, जो उनकी चिट्ठी लाता।

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