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वक़्त लौटता है

फ़ौज के रिटायर्ड सूबेदार जी बहत्तर वर्ष की अवस्था में बिस्तर पकड़ चुके थे, घुटने के कारण चलने से असमर्थ थे, फिर भी एक छड़ी के सहारे अपने सब काम कर लेते थे। 

आज बहू कामायनी सुबह से व्यस्त दिख रही थी, होटल मैनेजर घर आकर क्रिसमस पार्टी की डिनर की लिस्ट नोट कर के ले गए थे। फ़ौजी अफ़सर बेटा तो बॉर्डर पर डयूटी में था, असली ऐश बहू करती थी। सब कॉलोनी की लेडीज़ की आज रात किटी पार्टी थी, उसके बाद क्रिसमस पार्टी थी। 

सूबेदार जी भी सब डिशेस के नाम सुनकर ही बहुत ख़ुश हो रहे थे। रोज़ कुक के हाथ का खाना खाकर बोर हो चुके थे। 

शाम हुई तो माली का लड़का रामू आकर उन्हें सहारा देकर मकान के पिछले हिस्से के एक कमरे में ले गया, जो कभी-कभार ही खुलता था। वो कबाड़ख़ाना था, पूरे घर का रद्दी सामान वहाँ बेतरतीब पड़ा था। किसी तरह एक खटिया में स्थान बनाकर रामू उन्हें लिटा गया। थोड़ी देर में वही रात का खाना लाया, ध्यान से सूबेदार जी देखने लगे, रामू बोला, “आपके लिए मैम ने सुबह की दो रोटी और सब्ज़ी भेजी है। होटल का अधिक तेल वाला खाना नहींं खा पाएँगे, ऐसा उनका विचार है। और अब मैं दरवाज़ा बाहर से बंद करूँगा, पार्टी है, आप खाकर आराम से सो जाइये।” 

खाना खाकर सूबेदार जी लेट गए, पर नींद कहाँ इतनी आसानी से आती। ज़िन्दगी से परेशान हो चुके थे, सब तरफ़ नज़रें घुमाने लगे। एक पुराना सा पत्नी के मायके से मिला ड्रेसिंग टेबल कहीं कहीं से टूटा वहीं रखा था। उसमें कई सारी पत्नी सरिता के माथे की बिंदी चिपकी हुई थीं। फिर बैठकर धीरे से ड्रेसिंग टेबल के दराज़ खोलने लगे, तभी एक पायल का टूटा टुकड़ा उसमें दिखा और वो अतीत में उड़ चले। 

वो भी अपनी उम्र में रंगीन मिज़ाज के थे, जब भी छुट्टियों में घर आते, अड़ोस-पड़ोस की भाभियों से घिरे रहते, दिनभर मज़ाक चलता, बाइक से भाभीजी को घुमाने में मज़ा आता। ज़ाहिर है जब पत्नी विरोध करती तो यही सूबेदार जी पत्नी को ख़ूब खरी-खोटी सुनाकर, कभी-कभी हाथ भी चलाकर सज़ा देते, “आज तुम रात भर इसी कोठरी में रहोगी।” एक बार इसी लड़ाई में दरवाज़े में पायल फँस कर टूट गयी थी। 

आज सूबेदार जी अपनी पत्नी की यादों में खोए थे, वो पायल का टुकड़ा और कई बिंदी हाथ मेंं लेकर बिलख पड़े, “सुनो, तुम इतनी जल्दी क्यों चली गयी, मैं माफ़ी भी नहीं माँग पाया। समय अपने आप को दोहराने मेरे ही पास आकर खड़ा हो गया है, माफ़ कर दो न।” 

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टिप्पणियाँ

सरोजिनी पाण्डेय 2023/01/04 02:49 AM

प्रेमचंद की 'बूढ़ी काकी*'याद आगईं, समय बदल गया परन्तु उम्र का 'समय' नहीं बदला।

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