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मदर्स डे विशेष

 

आज मदर्स डे पर स्वर्गीय मम्मी को पत्र ज़रूर लिख रही, पर बैरंग लिफ़ाफ़ा जाएगा . . . 

 

मेंरी प्रिय मम्मी, 

मम्मी तो सबकी प्यारी ही होती है, पर मुझे तुम दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत, होशियार और प्यार की मूरत लगती हो। मम्मी के साथ लाड़ प्यार के दिन का कोटा पूरा करके जब मैं ससुराल आ गयी थी, मैं भी अब उस रूप को अपनी आत्मा में सहेजकर बेटियों पर लुटाने लगी थी। 

बचपन तो बहुत याद आता है, कभी प्यार लुटाते हुए खाना खिलाना, कभी तेल लगाकर दो चोटी बनाना, 
कभी स्कूल का होमवर्क कराना, सब कुछ याद है। 

थोड़ी बड़ी हुई तो तुमने मुझे हारमोनियम सिखाना शुरू किया, सरगम सीख गई थी, तभी प्रोफ़ेसर पापा का मम्मी को बोलना, “अरे साइंस स्टुडेंट है, इसको बहुत पढ़ना है, तुम इसका मन इसमें मत भटकाओ।”

और मुझे समझाते, “पढ़लिख कर कुछ बन जाओ, जीवन सफल हो जाएगा।”

एक समय ऐसा आया, सही में मैं दिल्ली में जॉब करने लगी। भीड़-भाड़ वाले ट्रैफ़िक और सुबह 8 बजे निकल कर मैं 7 बजे घर पहुँचती। तभी तुम गर्मा-गर्म भोजन परोसती, तुम्हारे हाथ की हर डिश में जैसे अमृत का स्वाद आता। घर बाहर का हर काम स्वयं करती, कभी-कभी मुझे तुम देवी दुर्गा का स्वरूप दिखती, तुम्हारे आठ हाथ नज़र आते, किसी से तुम पापा की हर आज्ञा पूरी करती, किसी से हम बच्चों की, किसी से पूजा का दीपक जला आरती करती, किसी से हम सबके कपड़ों पर प्रेस करती। 

पर एक बात का आज भी अफ़सोस है, तुमने परिवार में सबका ध्यान रखा, और हम सब मिलकर एक तुम्हारा ध्यान नहीं रख पाए। जब तुम्हें हम सबकी ज़रूरत थी, हम ससुराल आ गए। कई बार सोचती ये किसने नियम बनाया, बेटियों को सुघड़ सलोनी बेटी, हर कार्य में निपुण बनाने के बाद एक माँ बेटी को दूसरे घर भेज दे। जब बुढ़ापे में माँ को सहारा चाहिए, तब बेटी दूर चली जाए। मैं भी जॉब में, बच्चों, और संयुक्त परिवार में व्यस्त रही। 

मुझे याद है . . . 

तुम्हारा फोन आया था, लरजती सी आवाज़ सुनाई दी, “एक बार आ जाओ, तबियत बहुत ख़राब लगती है, मुश्किल से दो चार क़दम चल पाती हूँ। तुम्हारे भैया, भाभी ऑफ़िस में रहते हैं, पूरे दिन बचपन से आज तक का तुम्हारा चेहरा आँखों में रहता है। पता नहीं कब ईश्वर को मेरी याद में हिचकी आ जाये, और मुझे जाना पड़े।”

मैंने कहा, “मम्मी, चिंता न करो, अगले सप्ताह पहुँचती हूँ।”

और मैं पहुँच नहीं पायी। 

और तीन दिन बाद ही भैया का फोन था, मम्मी को कल रात अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा, ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया था। 

और दौड़ भाग करके मैं पहुँच गयी। 

पहुँचते ही मम्मी के गले लगी, लिपट कर रो पड़ी, और तुमने धीरे से कहा, “अब इजाज़त दो, मुझे लंबी यात्रा पर जाना है, अखंड सौभाग्यवती रहो।”

“अरे क्या बोल रही हो, मम्मी, मैं आ गयी हूँ, अब आपको भला चंगा करके घर ले जाऊँगी।”

और सुबह पाँच बजे ही अस्पताल से ख़बर आई, मम्मी तुम यात्रा पर निकल चुकी थी। 

घर के आँगन में मैं मृतदेह के पास बैठी हाथ से रेत की तरह सरकते मायके के आभास और माँ की मौत दो दुखों को एक साथ झेलती सुबक रही थी। 

घर पर दिन भर रिश्तेदार भरे थे और मेरी आँखों में आँसू, आगाह कर रहे थे, नज़र भर देख ले, माँ को भी और माँ से बना मायका को भी, पता नहीं फिर आना हो पाए या नहीं। 

तुम्हारी वही बेटी, जिसको तुमने हज़ारों बार गले लगाया था, आज तुम नहीं, आज सिर्फ़ तुमपर कुछ शब्द ही लिखती हूँ, कभी कहानी, कभी कविता, कभी शब्दसिन्धु में भावनाएँ बनकर बहती हो। अब शब्दों को अश्रु भिगोने लगे, मम्मी, जहाँ भी रहो, आशीर्वाद ज़रूर देना . . . 

“अखंड सौभाग्यवती रहो”

आपकी भगवती सक्सेना गौड़
बेंगलुरु

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