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भुक्तभोगी

 

एक महिला रत्ना बड़े ठसक के साथ चार बेटे बहुओं के परिवार को पूरी तरह से अपनी उँगलियों पर नचाती थी। 1991 में एक क़स्बे में हर व्यक्ति उसे पहचानता था। परिवार में दरवाज़ों के भीतर बहुओं ने धीमी आवाज़ भी उठायी, पर रत्ना जी ने अबॉर्शन कराकर लड़कियों को जन्म ही नहीं लेने दिया। चारों बहुओं के लड़के ही हुए। घर में पुरुषों का ही राज चलता रहा। 

बुढ़ापा और उम्र हर मनुष्य को घेरता ही है। रत्ना जी बहुत बीमार पड़ीं, पूरा परिवार सेवा में लगा था, कुछ अंदरूनी परेशानी शुरू हुई। रत्ना जी बेटे से नहीं बता पायीं, बड़ी बहू से बताया, समस्या गंभीर लगी। बहू पार्वती ने अम्मा को लेकर अस्पताल ले जाना ज़रूरी समझा। इनकी बारी आयी, बुलाया गया। अंदर पहुँचते ही रत्ना जी, उल्टे पाँव बाहर आ गयीं और एक बेंच पर बैठ गयीं। 

ज़ोर से चिल्ला पड़ी, “इस हॉस्पिटल में तो डॉक्टर पुरुष है, बहनजी तो है नहीं मैं तो चैक नहीं करवाऊँगी।” 

बेटे और बहू ने एक साथ पूछा, “उससे क्या हुआ?” 

उन्होंने कहा कि यहाँ बहनजी नहीं है, मैं चेकअप नहीं करवाऊँगी। आज तक कोई पर पुरुष के मैं नज़दीक भी नहीं गयी। 

उनका कहना सही था। 

कुछ शोर सुनकर डॉक्टर साहब स्वयं बाहर आये। 

“आप रत्ना जी ही हैं, आपके बारे में मैंने पोस्टिंग के समय ही बहुत कुछ सुना था। आपको क्या परेशानी है, बताइये, मैं आपका इलाज करूँगा।” 

तभी बेटे ने डॉक्टर के कान में कुछ कहा। 

“अरे माताजी, यहाँ के लोगों ने मुझे बताया, लड़की होने पर आप अपशगुन मानती थीं, तिरस्कार करती थीं। और आज आप डॉक्टर के रूप में लड़की को ढूँढ़ रही हैं? लड़की जब जन्म ही नहीं लेगी, तो पढ़-लिखकर सबकी सेवा कैसे करेगी? अब अपने विचारोंं का संशोधन करिये। चलिए, आपको जल्दी से चेक करना ज़रूरी है, फिर शायद बड़े शहर ले जाना पड़ेगा।” 

“हे मैय्या, चल भाई।”

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