अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

नक़लधाम

आकाश के इंटर फ़ाइनल की परीक्षा का प्रथम दिन था। वह सुबह चार बजे ही उठ गया था। पर्चा अंग्रेज़ी का है और वह कोई कोताही नहीं बरतना चाहता। उसने टेबल लैम्प जलाया और चुपचाप पढ़ने बैठ गया। सरकार ने परीक्षा के दिनों में बिजली आपूर्ति रात भर करने का निर्णय लिया था सो बिजली कटी नहीं थी। उत्तर प्रदेश के पूर्वान्चल का यह ज़िला आज भी पिछड़ा ही माना जाता है, ज़िला – जौनपुर।

उधर आसमान में अभी उषा की लाली नहीं फैली थी लेकिन अँधेरा ख़ुद को समेट रहा था, मानो उषा के स्वागत में पूरा आसमान बहोर रहा हो। रात शीत की वज़ह से मार्च महीने की यह भोर हल्के कोहरे से ढकी थी। इन दिनों मौसम के चरित्र में बड़ी तेज़ गिरावट दर्ज हुई है। बेमौसम बारिश से गेहूँ और दाल की फ़सल को बड़ा नुक़सान हुआ है। कई किसान आत्महत्या कर चुके हैं और सरकार रोज़ राहत की घोषणाएँ कर रही है। लेकिन आत्महत्याएँ रुक नहीं रहीं, मानों सरकार के चरित्र पर भी इन ग़रीबों का विश्वास नहीं रहा।

फिर इन लोगों का भी कौन सा लोकतांत्रिक चरित्र रहा है? चुनाव आते ही इनका जातिगत स्वाभिमान जाग जाता और ये जातियों में बटकर समाजवाद, स्वराज्य और राष्ट्रीय विकास के नीले, लाल,केसरी और हरे रंग के झंडों के नीचे दफ़न होते रहे। अपनी पार्टी और नेता के लिए खाद बनकर उनकी राजनीतिक फ़सल को लहलहाते रहे। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में जो हुआ वह उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी नहीं हुआ। “अच्छे दिनों" की आहट पर यहाँ की राजनीति ने नई करवट ली। इतनी सीटें तो उस पार्टी को मंदिर वाले मुद्दे पर भी नहीं मिली थीं वह भी पूरे देश से – स्पष्ट बहुमत।

लेकिन स्पष्ट रूप से आम आदमी के जीवन में कोई बड़ा परिवर्तन अभी नहीं आया था। अस्सी साल के मुरैला दादा भी इन दिनों ठगे-ठगे ही महसूस कर रहे हैं। हज़ारी की चाय गुंटी पर लड़के उन्हें छेड़ते हुए कहते –

"का हो मुरैला दादा, वोटवा के का दिहे रह?......."

मुरैला दादा कहते – "धोखा हो गया बचई। सबके बैंक खाता मा अठ-अठ दस-दस लाख डालइ वाला रहेन। उहई कालधन वाला पईसा। लेकिन अबई केहू क मिला नाइ। अबई तो सब का खाता खुलवा रहे हैं। देखा आगे का होई? ......"

लेकिन जो पढ़े लिखे थे वो जात-पात और व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर देशहित की बात का इन्हीं चाय की दुकानों पर पूरा समर्थन करते। उन्हें पूरा भरोसा था कि वर्तमान सरकार देश में आमूल परिवर्तन लाएगी और वह कर दिखाएगी जो आज तक इस देश में कभी नहीं हुआ। आकाश के पिता राजेश जी भी इन्हीं विचारों के थे। वे पड़ोस के गाँव में ही माध्यमिक विद्यालय में मास्टर थे। सब उन्हें राजेश मास्टर या मास्टर साहब ही बुलाते।

आकाश की परीक्षा जब से नज़दीक आयी है मास्टर साहब ने अपनी दिनचर्या में थोड़ा परिवर्तन कर लिया है। अब वे सुबह जल्दी ही उठ जाते और कूँचा लेकर दुआर बटोरने लगते, गाय को बाहर बाँध दाना-भूसा करते, मैदान जाते और दातून कर स्नान करते। यह सब करते हुए वे इतना शोर तो कर ही देते कि पत्नी भी उठ जाएँ और आकाश भी। लेकिन मास्टर साहब के लिए सुखद आश्चर्य यह था कि आजकल आकाश उनसे पहले ही उठा रहता। उसे इस तरह सुबह जल्दी उठकर पढ़ते हुए देख मास्टर साहब को बड़ी प्रसन्नता होती। पत्नी पुष्पा जब चाय लेकर आयी तो मास्टर साहब बोले –

"यह लड़का शुरू से ही बड़ा होनहार रहा है। पूरी मेहनत और लगन से पढ़ता–लिखता है। देख लेना एक दिन ज़रूर यह हमारा नाम रोशन करेगा। इसके कक्षा अध्यापक रवि बाबू भी कह रहे थे कि यह राज्य में प्रथम आने का दावेदार है। हाई स्कूल में पूरे जिले में प्रथम आया था, सिर्फ़ दो नंबर और मिले होते तो पूरे राज्य में तीसरी पोज़ीशन होती लड़के की।"

माता-पिता अपने होनहार की खूब प्रशंसा करते। ऐसे मौक़े पर दोनों की ही आँखों में एक ख़ास चमक होती। भविष्य के सपनों के ताने-बाने के बीच एक गर्व का भाव होता। धीरे-धीरे पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगती और उषा की लाली धरती पर प्रकाश की किरणों के साथ नई सुबह, नए दिन के आगमन की सूचना देती। पक्षियों का कलरव मानों नए दिन की दिनचर्या हेतु किया जा रहा विचार विमर्श हो। हर तरफ़ नई उम्मीद, नई कोशिश और नए संघर्ष का वातावरण दिखाई पड़ने लगता है। पुष्पा ने उठते हुए मास्टर साहब से पूछा –

"भईया कितने बजे जायेगा परीक्षा देने?"

"साढ़े दस बजे से परीक्षा है तो दस बजे तक सेंटर पहुँच जाये तो अच्छा है,"- मास्टर साहब ने कहा।

"सेंटर कहाँ है?" – पुष्पा ने फिर सवाल किया।

"यहीं गोंसाईपुर के गोकुलनाथ त्रिपाठी महाविद्यालय में। दस किलोमीटर है यहाँ से। मैं मोटर साईकल से छोड़ दूँगा। तुम उसे नाश्ता करा के साढ़े नौं तक तैयार रहने को बोलो," – मास्टर साहब ने पुष्पा से कहा और उठकर सड़क की तरफ़ से हज़ारी की गुंटी की तरफ़ निकल पड़े अख़बार पढ़ने।

गुंटी पर पहुँचते ही जियावान नट ने मास्टर साहब को प्रणाम करते हुए तख़्ते पर बैठने की जगह दी और ख़ुद उठ के खड़ा हो गया।

"और जियावन का हाल है?" – मास्टर साहब ने अख़बार हाथ में लेते हुए पूछा।

"ठीक है सरकार, आप सब का कृपा बा," – जियावन ने हाथ जोड़कर कहा।

"मास्टर साहब बुरा न माने त एक ठो बात जानइ चाहत रहली,"- जियावन ने कहा

"अरे बोला कि, का बात है?"- मास्टर साहब बोले।

"हमार नतियवा ई बार बरही क़लास का परिक्षा देई वाला बा, क़हत रहा बाबू पढ़ाई–लिखाई क़ कौनों काम ना बा। नक़ल करउनी दू हजार रूपिया दिहले पर किताब में देख–देख लिखई के मिली। ई बतिया सच है का?’’- जियावन ने पूछा।

"अब का बताई जियावन। बतिया त सही है। कुकुरमुत्ता नीयर नया-नया पराइवेट स्कूल कालेज खुलत जात बा। ई सब स्कूल क़ मान्यता पइसा खियाइ-पियाइ के मिलत बा। नियम-कानून से काम ना होत बा। परीक्षा के सेंटर लेई ख़ातिर लाखन रूपिया खियावल जात बा, फिर जे लडिका लोग परीक्षा देई ख़ातिर आवत हयेन, ओनसी अपने हिसाब से पइसा वसूलत बाटेन। एक लाख लगाई के पाँच लाख कमात बाटेन। अपने स्वार्थ के चक्कर में लड़िकन क़ ज़िंदगी ख़राब कई देत हयेन। नैतिकता अउर सदाचार से केहू के कौनों मतलबई नाइ बा," – मास्टर साहब ने कहा।

“अउ सरकारी स्कूल–कालेज में कामचोरी बा। मास्टर लोग पढ़ाई-लिखाई छोड़ी के दिनभर राजनीति करत बाटेन। जे काम करई चाहत बा ओकरे खिलाफ सब एक हो जात बाटेन। आखिर तब का किहल जाई मास्टर साहब? आपई कौनों रास्ता बताओ?’’- जियावन ने हाथ जोड़कर कहा।

"अब क्या कहूँ भाई, मैं ख़ुद मास्टर हूँ और इसी व्यवस्था में जी रहा हूँ, लेकिन आप की बात में सच्चाई है। यह देखिये, आज के अख़बार में छपा है कोर्ट का आदेश। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने आदेश दिया है कि - सरकारी कर्मचारियों, विधायकों, सांसदों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाया जाए। तभी वे इन स्कूलों की ख़स्ता हालत को समझ सकेंगे। यही नहीं कोर्ट ने कहा है कि यदि उनके बच्चे कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ते हैं तो वे बच्चों की पढ़ाई पर होने वाले इस ख़र्च के बराबर राशि सरकारी ख़ज़ाने में जमा कराएँ। कोर्ट ने यूपी के मुख्य सचिव को छह महीने में इस पर अमल सुनिश्चित करने के आदेश दिए हैं। कोर्ट ने कहा है कि सभी जनप्रतिनिधियों और सरकारी कर्मचारियों जिनमें चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर आईएएस-आईपीएस तक शामिल होंगे और वे सभी कर्मचारी जो सरकार से सैलरी लेते हैं, के बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ाए जाएँ।

यह हुई बात जियावन। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य के प्राथमिक स्कूलों की ख़स्ता हालत को लेकर दायर याचिकाओं की सुनवाई के दौरान ये बात कही। कोर्ट की इस बात पर अमल हुआ तो वीआईपी और वीवीआईपी माने जाने वाले लोगों के बच्चे भी आम बच्चों की तरह सरकारी स्कूलों में पढ़ते हुए नजर आएँगे। अब आयेंगे अच्छे दिन, क्या समझे?" – मास्टर साहब ने हँसते हुए कहा और उठकर घर की तरफ़ चल पड़े।

घर पहुँच कर मास्टर साहब ने पत्नी पुष्पा से आकाश को तैयार कर बाहर लाने को कहा और ख़ुद कपड़े बदलने अपनी कोठरी में पहुँच गए। आकाश पहले से ही तैयार था सो माँ-बेटे दोनों तुरंत बाहर आ गए। मास्टर साहब ने अपनी मोटरसाइकिल निकली और उसे पोंछते हुए आकाश से पूछे – "प्रवेश पत्र रख लिया है?"

"हाँ पापा, प्रवेश पत्र, पेन, दो फोटो, पेंसिल, रबर सब रख लिया है,"- आकाश ने हँसते हुए उत्साह से कहा।

"इसने कुछ खाया भी, अब तीन-चार घंटे वहाँ हाल में कुछ मिलेगा नहीं,"-मास्टर साहब ने पत्नी पुष्पा से कहा।

"जी खा लिया है, इसे दही-शक्कर भी खिला दिया है और पानी की बोतल में ग्लूकोस बनाकर भी दे दिया है,"- पत्नी पुष्पा ने जवाब दिया।

मास्टर साहब ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और आकाश तुरंत पीछे बैठ गया। बैठने से पहले उसने अपनी माँ के पैर छूए तो माँ आशीष देते हुए बोली -

"जुग-जुग जिय लाल। मातारानी सब ठीक करें। पेपर अच्छे से लिखना।"

आकाश ने भी हाँ में सर हिलाया और मोटरसाइकिल चल पड़ी गोंसाईपुर के गोकुलनाथ त्रिपाठी महाविद्यालय के लिए जो कि तीन ही किलोमीटर की दूरी पर था। जब तक स्कूल आ नहीं गया मास्टर साहब आकाश को समझाते रहे –

"घबराना मत। पूरा पर्चा पहले ध्यान से पढ़ लेना। इधर-उधर मत देखना। कोई फ़ालतू काग़ज़ अपने पास मत रखना। किसी से बोलना मत। कोई परेशानी हो तो कक्षा के गुरुजी से बताना। घड़ी पर भी नज़र रखना। समय से सारा पर्चा ख़तम कर लेना। पर्चा पहले पूरा हो जाए तो भी पूरे समय बैठे रहना।" और ऐसी ही कई हिदायतें जिनके जवाब में आकाश “जी पापा" कहकर चुप हो जाता।

थोड़ी ही देर में दोनों परीक्षा केंद्र पर पहुँच गये। विद्यालय के प्रांगण में विद्यार्थियों और अभिभावकों का जमावड़ा लगा था। अभी मास्टर साहब ने मोटरसाइकिल खड़ी भी नहीं की थी कि चपरासी पारस सिंह लपका उनकी तरफ़।

"पा लागी महराज़, आज इहाँ कइसे?" – पारस ने मास्टर साहब के पैर छूते हुए पूछा।

"ख़ुश रहा पारस, आकाश का पेपर यहीं है तो छोड़ने चला आया। ध्यान रखना ज़रा इसका,"- मास्टर साहब ने कहा और आकाश की तरफ़ इशारा किया। आकाश ने भी पारस के पैर छूए।

"अरे आप बिलकुल चिंता न करें महराज़। घर की बात है। अउ ई विद्यालय त पूर्वान्चल क स्वर्ग है। ठकुरन क कालेज है अउ ठाकुर–ठकार आप देवता लोगन क खयाल न करीहई त नरकई जाबई करिहई,"- पारस ने दाँत निपोरते हुए कहा।

"ऐसी कोई बात नहीं। आप सम्मान देते हैं यही बड़ी बात है। त हम चली?"- मास्टर साहब ने पारस से पूछा।

"हाँ महराज़, लेकिन तनी प्रिन्सिपल साहब से मिल लेता त ठीक रहात। कुली लड़िकन के गार्जियन मिलत बाटेन। साहब खुदई कहे बाटेन। चला मिलाई," – यह कहकर पारस ने मास्टर साहब का हाथ पकड़ लिया।

"बहुत ज़रूरी हो तो मिलूँ नहीं तो आज जाने दीजिये। मुझे भी अपने विद्यालय जाना है। जैसा आप बोलें? कौनों ख़ास बात?" – मास्टर साहब ने पारस से पूछा।

पारस मास्टर साहब को थोड़े एकांत में ले गया और बोला –

"देखा गुरु, जइसे अपने इनहा चौकिया माई क धाम बा, बीजेठुआ धाम बा, कंजातीबीर धाम बा, हरशू बरम क धाम बा वइसे ई गोंसाईपुर के गोकुलनाथ त्रिपाठी महाविद्यालय नक़लधाम है, नक़लधाम। जेकर नंबर इहाँ आ ग उ जाना फ़्सट क्लास पक्का। अब धाम में दान-दक्षिणा त करहिन चाहे। जा जाके प्रिन्सिपल साहब से मिल ला। जादा नाहीं मात्र दू हजार रूपिया में लख़िका का किस्मत बन जाई, जा।"

"ऐसा है पारस सिंह, ई सब हमका पता है। हम ख़ुद अध्यापक हैं। लेकिन पैसा वो दें जो नक़ल करवाना चाहते हों, जिन्हें अपने बच्चे की क्षमता पर भरोसा न हो। हमारा आकाश होनहार है, मेहनती है। उसे नक़ल की कोई सुविधा नहीं चाहिए। मैं चलता हूँ। आप के प्रिन्सिपल साहब से मुझे मिलने की कोई ज़रूरत नहीं है। ठीक है,"- मास्टर साहब ने थोड़ा ग़ुस्से में कहा।

"अरे बाभन देवता, जरूरत आप को नहीं है लेकिन संस्था को तो है। कुल 2 लाख रूपिया देकर परीक्षा केंद्र का जुगाड़ बनल है। ई पइसा तो आप को देना ही पड़ेगा। समझ लीजिये अनिवार्य है। सब दे रहे हैं। हमको यही आदेश मिला है गुरु, नहीं तो ....?" – पारस ने सर खुजलाते हुए कहा।

"नहीं तो क्या पारस? वो भी बता दो?’’- मास्टर साहब झल्लाते हुए बोले।

"महराज गुस्सा जिन हो। हम तो नौकर आदमी हैं। जो कहा गया है वही कह रहे हैं। आप तो सब जानते ही हैं, परीक्षा में बच्चों को परेशान करने के हजार तरीके हैं। फिर लड़के के भविष्य का सवाल है ..... बाकी ....जैसा आप ठीक समझें,"- पारस ने दुष्टता पूर्वक हँसी के साथ कहा।

“यह तो हद है भाई। लूट है लूट। कानून नाम की कोई चीज़ ही नहीं रह गयी है। शिक्षा के मंदिर को रंडी के कोठे से भी बत्तर बना दिया है। कौन हैं प्रिन्सिपल साहब? चलो मिलता हूँ। समझ क्या रखा है? चलो," – मास्टर साहब ने तमतमाते हुए कहा।

"शांत हो जा गुरु। प्रिन्सिपल साहब श्री गुमान सिंह जी हैं। रिश्ते में हमरे फुफ़ा लगें। इनके ससुर ओम सिंह जी ही इस विद्यालय के सर्वेसर्वा हैं अब। ओम सिंह जी अरे अपने विधायक जी, उन्हीं का तो है यह नकलधाम," – पारस ने कुटिलता पूर्वक अपनी बात कही।

आगे बढ़ रहा मास्टर साहब का पाँव अचानक रुक गया। वे स्तब्ध होकर खड़े रहे। एक बार आकाश की तरफ़ देखे जो अपनी किताब में खोया हुआ था। मानों कुछ भी पढ़ने से छोड़ना नहीं चाहता हो। दूसरी तरफ़ अभिभावकों की क़तार थी जो प्रिन्सिपल साहब के कमरे के बाहर लगी थी। किसी को किसी से मानों कोई शिकायत ही नहीं थी। एसबी कुछ एक प्रक्रिया के तहत संपन्न हो रहा था। मौसम उमस भरा था और उस धूप में अब मास्टर साहब को बेचैनी होने लगी। पास ही नीम के पेड़ पर कोयल बोल रही थी जो इस समय बेसुरी महसूस हुई। पसीने की एक बूँद जब आँख पर पड़ी तो मानों मास्टर साहब की स्तब्धता टूटी। वे पारस की तरफ़ बढ़े और शांत भाव में बोले – "पारस मुझे किसी से नहीं मिलना। पैसे मैं तुम्हें दे देता हूँ तुम जिसे देना हो दे देना। ये लो पैसे।"

मास्टर साहब ने हज़ार की दो नोट जिस पर गांधी जी मुस्कुरा रहे थे पारस की तरफ़ बढ़ा दिये। पारस ने तुरंत पैसे जेब के हवाले किये और बोला –

"महराज आप निश्चिंत रहें, हम जमा कर देंगे। आप को किसी से मिलने की कोई जरूरत नहीं। आप लोगों की सेवा तो हम ठाकुर-ठकारों का काम ही है। आप जाइए, निश्चिंत होकर जाइए। पालागी महराज।"

पैलगी करते हुए पारस ने पैर छुए और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। मास्टर साहब उसकी कुटिलता और अपनी मजबूरी पर मुस्कुराये और मोटरसाइकिल पर बैठते हुए बोले –

"अच्छा पारस, विद्यालय का नाम गोकुलनाथ त्रिपाठी महाविद्यालय और करता-धरता सब तोहरी बिरादरी, कुछ समझ नहीं आया।"

"अरे महराज। रामनरायन त्रिपाठी जी ने अपने पिता स्वर्गीय स्वतंत्रता सेनानी गोकुलनाथ त्रिपाठी जी के नाम पर यह महाविद्यालय बनवाया। ओम सिंह जी पहले सिर्फ़ मामूली ट्रस्टी थे लेकिन अपनी बुद्धि लगाकर और दूसरे सदस्यों को मिलाकार ख़ुद सर्वेसर्वा बन गए। लेकिन विद्यालय का नाम नहीं बदले। कहते हैं बाभन का नाम हो और हमारा काम तो क्या बुरा है। और हम तो यह भी सुने हैं कि जल्द ही वो मंत्री बननेवाले हैं। शिक्षा मंत्री का चांस है उनका। देखिये क्या होता है? तो चलूँ महराज परीक्षा का समय हो गया है, बाकी काम भी देखने हैं," - पारस ने अपनी घड़ी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।

"हाँ, ठीक है जाओ।"- मास्टर साहब ने भी अपनी घड़ी देखते हुए कहा। पारस तुरंत प्रिन्सिपल आफिस की तरफ़ चला गया। मास्टर साहब ने आकाश को आवाज़ दी जो नीम के पेड़ के नीचे खड़ा था। वह तुरंत पिता के पास आकर खड़ा हो गया।

“मैं जा रहा हूँ। दोपहर पेपर छूटने पर यहीं रहना मैं लेने आ जाऊँगा। ठीक है?" – मास्टर साहब ने आकाश के सर पर हाथ फेरते हुए कहा।

आकाश ने पिता के पैर छुए और “ठीक है" बोलकर अपनी कक्षा की तरफ़ दौड़ गया।

मास्टर साहब थोड़ी देर तक उसे देखते रहे। फिर प्रिन्सिपल आफिस की तरफ़ नज़र दौड़ाई जहाँ अभी भी क़तार लगी थी। उन्हें जाने क्यों लगा कि उनके मुँह के सारे दाँत गिर गए हैं और सिर्फ़ जीभ हर जगह घूम रही है। क्या अब काटने का कोई काम वो नहीं कर सकेंगे? तो क्या सिर्फ़ चाटना भर ही जीवन में रह जायेगा?

मास्टर साहब असहज हो रहे थे और पसीना और अधिक चूने लगा था। दोनों हाथों से हैंडल पकड़े मानों वो उस हैंडल को ही तोड़ देना चाहते हों। इतने में किसी गाड़ी के तेज़ हॉर्न ने उनकी स्तब्धता को भंग किया। कोई पीछे से चिल्लाया –"अबे सुनाई नहीं दे रहा है का? हट सामने से नहीं त चढ़ा देब। हट साले।"

मास्टर साहब ने तुरंत किक मारी और तेज़ी से वहाँ से निकल गए। परीक्षा तो आकाश की थी लेकिन फ़ेल हो गए थे मास्टर साहब। भ्रष्ट व्यवस्था की आँच गर्म लू की तरह वे अपने चेहरे पर महसूस कर रहे थे और जल्दी से अपने स्कूल पहुँचना चाह रहे थे, जहाँ के लिए देर पहले ही हो चुकी थी।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख

कविता

सजल

नज़्म

कार्यक्रम रिपोर्ट

ग़ज़ल

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक चर्चा

सांस्कृतिक आलेख

सिनेमा और साहित्य

कहानी

शोध निबन्ध

सामाजिक आलेख

कविता - क्षणिका

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं