ब्रूउट्स यू टू
काव्य साहित्य | कविता डॉ. मनीष कुमार मिश्रा23 Jan 2016
थोड़े आँसू
थोड़े सपने
और ढेर से सवालों के साथ
तेरी नीमकश निगाहों में जब देखता हूँ
बहुत तड़पता हूँ
इसपर तेरा हल्के से मुस्कुराना
मुझे अंदर-ही-अंदर सालता है
तेरा ख़ामोशी भरा इंतक़ाम
मेरे झूठे ,बनावटी
और मतलबी चरित्र के आवरण को
मेरे अंदर ही खोल के रख देता है
मैं सचमुच कभी भी नहीं था
तुम्हारे उतने सच्चे प्यार के क़ाबिल
जितने के बारे में मैंने सिर्फ़
फ़रिश्तों और परियों की कहानियों में पढ़ा था
मैं तुम्हें सिवा धोखे के
नहीं दे पाया कुछ भी
और तुम देती रही
हर बार माफ़ी क्योंकि
तुम प्यार करना जानती थी
मैं बस सिमटा रहा अपने तक
और तुम
ख़ुद को समेटती रही
मेरे लिए
कभी कुछ भी नहीं माँगा तुमने
सिवाय मेरी हो जाने की
हसरत के
याद है वो दिन भी जब
तुमने मुझसे दूर जाते हुए
नम आँखों और मुस्कुराते लबों के साथ
कागज़ का एक टुकड़ा
चुपके से पकड़ाया
जिसमें लिखा था- "ब्रूउट्स यू टू?''
उसने जो लिखा था वो,
शेक्स्पीअर के नाटक की
एक पंक्ति मात्र थी लेकिन ,
मैं बता नहीं सकता क़ि
वह मेरे लिए
कितना मुश्किल सवाल था
आज भी वो एक पंक्ति
कंपा देती है पूरा जिस्म
रुला देती है पूरी रात
ख़ुद की इस बेबसी को
घृणा की अनंत सीमाओं तक
ज़िंदगी की आख़री साँस तक
जीने के लिए अभिशप्त हूँ
उसके इन शब्दों /सवालों के साथ कि
ब्रूउट्स यू टू!
ब्रूउट्स यू टू!
ब्रूउट्स यू टू!
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