संत रविदास : सामाजिक परिप्रेक्ष्य में एक विवेचना
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. मनीष कुमार मिश्रा30 Jan 2015
हम जानते हैं कि हिंदी साहित्यातिहास में भक्तिकाल का विशेष महत्व है। इसे हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल भी कहा जाता है। यह वही समय था जब सूर, तुलसी, कबीर, रविदास, जायसी और मीरा जैसे संतों ने अपनी वाणी से भारतीय समाज में सामाजिक एवं आध्यात्मिक अलख जगाने का कार्य किया। इन संतों ने एक तरह का सामाजिक आंदोलन खड़ा किया जिसके मूल में एकता, समानता, समरसता, सामंजस्य और मानवीय मूल्यों के प्रति गहरी आस्था और विश्वास को व्यक्त किया गया। यह एक क्रांतिकारी पहल थी।
विदेशी आक्रमणों एवं इस्लाम का प्रचार-प्रसार सत्ता और तलवार के दम पर कराने की परिस्थितियों के बीच भारतीय जनमानस को नई सामाजिक एवं आध्यात्मिक चेतना के साथ संबल प्रदान करने का कार्य इन संतों ने किया। मुगल विरुद्ध युगल सरकार (राधा + कृष्ण) की चर्चाएँ हम सुनते रहे हैं कि कैसे दिल्ली के मुगल दरबार से सौ किलो मीटर के आस-पास ही मथुरा में “युगल सरकार” विराजमान थी। इस युगल सरकार की शान किसी से कम नहीं थी। ऐसे धार्मिक केन्द्रों का मूल उद्देश्य यही था कि आम जनमानस के बीच आत्मबल का संचार हो और वह अपनी परम्पराओं, संस्कृति एवं धर्म के प्रति आस्थावान रहते हुए भयभीत न हो।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने यह स्पष्ट किया है कि उत्तर भारत में जो भक्ति आंदोलन चला वह किसी “हारे को हरिनाम” वाली बात नहीं थी अपितु दक्षिण भारत के आलवार संतों द्वारा चलाये गये आंदोलन का ही प्रतिफल था। मैं इसी बात को इस तरह भी कहना चाहूँगा कि डर या भय से न सही पर मुगलों के आक्रमणों, दमन और शोषण की परिस्थितियों के बीच साहसिक सामाजिक दायित्वबोध के साथ आलवार संतों ने जो अलख जगायी उसके विस्तार की पूरी सकारात्मक पृष्ठभूमि मुगल शासकों ने जाने-अनजाने बना दी थी। यह एक ऐतिहासिक आंदोलन ही था जो दक्षिण से चलकर उत्तर भारत में आया।
लेकिन इस पूरे भक्ति आंदोलन को गहराई से देखा जाय तो यह स्पष्ट होता है कि इस आंदोलन के मूल में तत्कालीन सामाजिक विषमता, भेदभाव, और सामाजिक शोषण की पूरी की पूरी दास्तान छुपी है। हम जानते हैं की पूरा भक्ति आंदोलन सगुण और निर्गुण दो संत उपासकों में बटा हुआ है। ऊँची जातियों से संबद्ध संत सगुण उपासक थे और छोटी और अस्पृश्य समझी जानेवाली जातियों के संत निर्गुण उपासक थे। सूर और तुलसी बड़े सगुण संत थे तो कबीर और रविदास बड़े निर्गुण संत थे। दावा तो यहाँ तक किया जाता है कि छोटी जाति का कोई संत ऐसा हुआ ही नहीं जिसने सगुण उपासना की हो। ऊँची जातियों के मान्य देवी-देवताओं, धर्मग्रंथों, पुराणों, मंदिरों इत्यादि पर इन छोटी जातियों का कोई अधिकार नहीं था। इनके हिस्से में कुछ था तो सिर्फ़ और सिर्फ़ तिरस्कार। रामानन्द – रविदास-मीरा की गुरु शिष्य परंपरा अपवाद ज़रूर है। रामानन्द उच्च जाति से थे सगुणोपासक थे पर उनकी शिष्य परंपरा में कबीर और रविदास का नाम आता है। ठीक इसी तरह मीरा उच्च कुल की थीं सगुणोपासक थीं लेकिन अपने गुरु के रूप में उन्होने रविदास को स्वीकार किया।
वैसे इस अपवाद के संदर्भ में भी एक विचार सामने आता है कि मीरा जिस प्रकार “लोक-लाज” से परे जाकर विरोध का स्वर मुखर कर रही थीं ऐसे में उन्हें किसी उच्च कुल के गुरु का मिलना संभव नहीं था। रामानन्द नहीं चाहते होंगे कि छोटी जातियों के लोग एक नई पहचान की तलाश में इस्लाम कबूल कर लें। लेकिन ये बातें सहज रूप से गले नहीं उतरती हैं। गुरुग्रंथ साहिब में तो बिना किसी जातिगत भेदभाव के सभी संतों की वाणी संग्रहित है जो सिखों का पवित्र ग्रंथ माना जाता है।
पूर्व मध्यकालीन लोक चेतना के प्रमुख संत कवियों में संत रविदास/रैदास का नाम आता है। इनका जीवन काल विक्रम की 15वीं से 16वीं शती के बीच माना जाता है। यह निरंकुश और स्वेछाचारी मुगल शासकों का समय था। संत रविदास कई नामों से जाने गये। जैसे कि रविदास, रैदास, रूईदास, रोहीदास, रहदास, हरिदास, रोहितास, रमादास इत्यादि। इनके जन्म स्थान को लेकर विवाद है लेकिन “रैदास की परचई” में इनका जन्म स्थान बनारस माना गया है। कुछ लोग इनका जन्म स्थान राजस्थान में मानते हैं और तर्क रूप में चित्तौड़ स्थित “श्री रैदास की छतरी” और माड़ौगढ़ (धार रियासत) स्थित “श्री रविदास कुंड और कुटी” का ज़िक्र करते हैं। कुछ लोग बनारस के मड़ुआडीह स्थित लहरतारा पर इनका जन्म मानते हैं। यहाँ के गोपाल मंदिर को भी रैदास का जन्मस्थान माना जाता है। “रैदास की बानी” के अनुसार इनके पिता का नाम रघू और माता का नाम घुरुबिनिया है। लेकिन “रैदास रामायण” के अनुसार इनके पिता राहू और माता कर्मा थीं। संत रविदास के पद जिन ग्रंथों में संग्रहित हैं उनमे गुरुग्रंथ साहब, रैदास जी की बानी, संत रविदास और उनका काव्य इत्यादि प्रमुख हैं।
वैसे यह कहना बड़ा मुश्किल अपितु समझना आसान है कि संत रविदास जैसे निर्गुण संतों ने जिस समाज को जागरूक करना चाहा था, वह समाज कितना जागरूक हुआ और किस दिशा में आगे बढ़ रहा है। लेकिन आज आप बनारस आयें तो आप को संत रविदास गेट, संत रविदास घाट, संत रविदास पार्क, संत रविदास नगर और संत रविदास मंदिर देखने और घूमने को ज़रूर मिल जायेंगे। जिस सामाजिक भेद-भाव के खिलाफ़ इन संतों ने लोगों को जागृत किया, उनकी जागृत चेतना किस रूप में आंदोलित हो रही है, यह एक गंभीर प्रश्न है।
आवश्यकता इस बात की है कि समाज धार्मिक और राजनीतिक हथकंडों से अपने आप को बचाये। हमें अपने संतों पर गर्व होना चाहिये और उनके कार्यों को सही दिशा में आगे बढ़ाना चाहिये। तभी यह समाज सही मायनों में आगे बढ़ पायेगा और आवश्यकता इसी बात की है। यही इन संतों के प्रति हमारी सच्ची आस्था और श्रद्धा का प्रतीक होगा। इन संतों ने जो आदर्श, प्रादर्श और प्रतिदर्श हमारे सामने रखा है वो अनुकरणीय है।
डॉ मनीषकुमार सी. मिश्रा
यूजीसी रिसर्च अवार्डी
हिंदी विभाग
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी , वाराणसी
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पालक संस्था :
प्रभारी
हिंदी विभाग
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण (पश्चिम)
महाराष्ट्र।
संदर्भ ग्रंथ :
1. संत रैदास का निर्वर्ण संप्रदाय – डॉ धर्मवीर, संगीता प्रकाशन दिल्ली
2. कबीर और रैदास : एक तुलनात्मक अध्ययन – डॉ चंद्रदेव राय, सौहार्द प्रकाशन, आजमगढ़।
3. संत और सूफ़ी साहित्य – पंडित परशुराम चतुर्वेदी, नागरीप्रचारणी सभा, नई दिल्ली।
4. शैली विज्ञान का इतिहास – पांडेय शशिभूषण “शितांशु”, नेशनल पब्लिशिंग हाऊस, जयपुर।
5. दर्शन दिग्दर्शन – राहुल सांकृत्यायन, किताब महल।
6. संस्कृति के चार अध्याय – रामधारी सिंह दिनकर, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
7. लोक वेद और वेदांत – आर.पी.पाण्डेय, आर्य बुक डीपो, नई दिल्ली।
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