अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

फ़िल्म रूपांतरण : संदिग्ध सकारात्मक अतिक्रमण 

शाब्दिक दृष्टि से देखें तो “रूपांतरण” शब्द ‘रूप’ और ‘अंतरण’ इन दो शब्दों की संधि से बना है। रूपांतरण के लिए पर्यायवाची रूप में अनुकूलन एवं समायोजन जैसे शब्द भी प्रचलित हैं। रूपांतरण/अनुकूलन (Adaptation) अपने आप में एक जटिल एवं समस्यापूर्ण प्रक्रिया है। किसी कृति का एक विधा से दूसरी विधा के रूप में परिवर्तन अक़्सर कतिपय आशंकाओं को जगाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि रूपांतरण की प्रक्रिया में पहले का कुछ छूट जाता है तो नए रूप में कुछ नया जुड़ भी जाता है। इस संदर्भ में जो शुरुआती अकादमिक बहसें हुई वो इस बात पर केन्द्रित रहीं हैं कि हर विधा विशेष को पसंद करने वाले लोग अलग-अलग होते हैं। जब हम कोई ‘पाठ’ या ‘कथा’ पढ़ते हैं तो हमारी विचारशीलता, तर्कशीलता इत्यादि के लिए अत्यधिक स्वतंत्रता होती है। शायद यही कारण है कि एक ही कृति के संदर्भ में समीक्षकों की अलग-अलग राय हमें मिलती है। 

कई बार समीक्षाएँ/व्याख्याएँ इतनी अधिक हो जाती हैं कि कृति विशेष को कई-कई अर्थों एवं संदर्भों में परिभाषित किया जाता है। कहने का अर्थ यह कि कृति विशेष के पाठक के रूप में “वैचारिकी का एक बड़ा जनतंत्र” हमारे सामने प्रस्तुत होता है। जब कि फ़िल्म विशेष की चलती हुई चित्र शृंखलाएँ काफ़ी हद तक अपनी अवधारणाएँ अपने साथ ही आभासित करती हैं। यहाँ व्याख्या और विवेचना के लिए उस तरह का व्यापक अवकाश नहीं होता जैसा कि किसी कृति या पाठ को पढ़ते हुए उसका पाठक महसूस करता है। ये दोनों विधाएँ “समय और अंतराल” को अलग-अलग पद्धति से रूपायित करते हैं। 

रूपांतरण/अनुकूलन (Adaptation) एक गंभीर रचनात्मक प्रक्रिया है। ‘कहानी होना’ और वह ‘होना’ किस तरह होना है, यह महत्वपूर्ण है। पश्चिमी समीक्षकों ने इसी बात को “Story & Discourse” के महत्व के माध्यम से रेखांकित किया। किसी कृति या पाठ के अंदर वह क्या है जो उसके ‘होने’ को महत्वपूर्ण बना देता है ? और “वो जो है” वह ‘कैसे’ है ? इस ‘क्या’ और ‘कैसे’ को समझना उस निर्माता - निर्देशक के लिए बहुत ज़रूरी है, जो उस कृति विशेष को फ़िल्म के रूप में रूपांतरित करना चाहता है। साहित्य के ऐसे अंतर्निहित तत्वों से उसका परिचित होना ज़रूरी है। 

लंबे समय तक समीक्षकों का यह मानना रहा कि शब्दों को चित्रों एवं ध्वनियों के माध्यम से चलायमान करते हुए उन्हीं अंतर्निहित तत्वों का आरोपण हो सके यह बड़ी चुनौती होती तो है, लेकिन इसका ध्यान रखना ज़रूरी है। यह चुनौती उस कृति विशेष के साथ अर्जित विश्वसनीयता को बनाये रखने की भी होती है। जिस कृति या पाठ के आधार पर कोई फ़िल्म बनती है, वह अपने नये कलेवर में उस कृति विशेष के साथ कितनी ‘निकटता एवं एकनिष्ठता’ रख पाती है, यह भी समीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है। 
इसमें कोई संदेह नहीं कि उपर्युक्त रूपांतरण/अनुकूलन समीक्षा के मापदण्डों में फँसकर अधिकांश फिल्में गंभीर आलोचना का शिकार हो जाती हैं/होती रही हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि अलग-अलग माध्यम/विधा के रूप में साहित्य और सिनेमा की अपनी-अपनी विशेषताएँ और सीमाएँ हैं। साहित्य के संदर्भ में हम कह चुके हैं कि वहाँ फ़िल्मों की तुलना में वैचारिकी और तर्कशीलता के लिए अधिक व्यापक और विस्तृत ज़मीन है। लेकिन हम देखते हैं कि रूपांतरण/अनुकूलन के बहाने श्रोत सामग्री और उस श्रोत सामग्री के आधार पर निर्मित फ़िल्म के बीच तुलनात्मक अध्ययन और आलोचना की लंबी परंपरा रही है। लेकिन इस परंपरा की सार्थकता कमतर आँकी जा सकती है क्योंकि, किसी व्यापक रूप से स्वीकृत अकादमिक सिद्धांत/सिद्धांतों के विकास में ये असफल रहे। “फ़िल्म के प्रभाव का उपन्यास की गुणवत्ता पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।“– जैसे विचार नकारे जाने लगे। 

लेकिन “श्रोत सामग्री के प्रति ज़िम्मेदारी” को लेकर बहस होती रही। कुछ समीक्षक इसे फ़िल्म के लिए ज़रूरी मानते तो कुछ इस तरह के आग्रहों को एक बुरी फ़िल्म का कारक। उनका साफ़ मानना रहा कि यदि श्रोत सामग्री को लेकर इतना अधिक आग्रह और दबाव रहेगा तो जो निर्मित होगा वह उसकी ‘नक़ल’ से अधिक कुछ भी नहीं हो पायेगा। ऐसे में ‘नक़ल’ हमेशा ‘असल’ से कमज़ोर साबित होगा। किसी भी कृति की तुलना कला के दूसरे रूप के आधार पर नहीं की जा सकती। यह एक सामान्य समझ है कि कला का पुराना रूप नये से बेहतर होता है और उसका रूपांतरण कहीं से भी पहले से बेहतर नहीं हो सकता। अधिकांश फ़िल्में जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘ऑस्कर’/Oscar या ‘एम्मी’/Emmy जैसे अवार्ड मिले हैं, वे मूल फ़िल्में रही हैं अर्थात वे किसी कृति के रूपांतरण के आधार पर निर्मित नहीं हुई। 

फ़िल्म निर्माण के शुरुआती दिनों में कृतियों के गौरव एवं जनसामान्य के बीच उनकी लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए उन्हें ही फ़िल्मी पर्दे पर दिखाया गया। भारत के संदर्भ में भी हमें यही देखने को मिलता है। भारत में तमाम पौराणिक कथाओं को आधार बनाकर फ़िल्में बनीं जिन्हें लोगों ने ख़ूब पसंद भी किया। मूक फ़िल्मों के दौर में पौराणिक कथाओं को आधार बनाकर फ़िल्म बनाने का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी रहा होगा कि इन कथानकों से जनमानस अच्छे से अवगत था, अतः ‘आवाज़ की कमी’ दर्शकों को अधिक परेशान न करती। दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि इन कथानकों की समाज में स्वीकार्यता व्यापक स्तर पर थी अतः ऐसी फ़िल्मों के व्यावसायिक रूप से असफल होने की संभावना न के बराबर होती। अतः व्यावसायिक दृष्टि से ऐसी फ़िल्मों का निर्माण एक “सेफ़ गेम” था। अतः यह पद्धति शुरुआती दिनों में ख़ूब सफल रही। इस तरह फ़िल्म निर्माण के शुरुआती दिनों से ही ‘रूपांतरण’ ने फ़िल्म व्यवसाय को एक भरोसेमंद आधार दिया। 

फ़िल्में बड़े व्यापक स्तर पर अपनी साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परंपरा से जन सामान्य को जोड़ने का एक सशक्त माध्यम भी मानी जाती हैं। इसलिए भी श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों को केंद्र में रखकर फ़िल्म निर्माण का कार्य होता रहा है। दरअसल फ़िल्मांतरण की सारी बहस मूल रूप से ‘तुलनात्मक’ होती है। ऐसी तुलनात्मक बहसों के बीच हम यह भूल जाते हैं कि फ़िल्म निर्माण का एक स्वायत्त रूप भी है जो अधिक व्यापक और महत्वपूर्ण है। जिस कृति के आधार पर फ़िल्म का निर्माण होता है, अक़्सर यह देखा गया है कि उस कृति के लेखक की बनी हुई फ़िल्म से काफ़ी असहमतियाँ और शिकायतें होती हैं। 

इस संदर्भ में विद्वानों का एक वर्ग यह मानता है कि कृति विशेष के लेखक को एक मनोवैज्ञानिक दबाव और भय इस बात का भी होता है कि उसके कार्य के आधार पर बनने वाली फ़िल्म कहीं उसकी प्रतिष्ठा और शोहरत को कम न कर दे। ‘कोई और’ उसके श्रम का लाभ उठायेगा। अतः ऐसी मनः स्थिति उसे निर्मित फ़िल्म के विरोध में खड़ा कर देती है। André Bazin जैसे विचारकों ने साठ के दशक में रूपांतरण के ख़िलाफ़ ख़ूब लिखा। “Death of the Author” जैसी किताब 1967 में प्रकाशित हुई। 

वर्जीनिया वूल्फ के अनुसार, फ़ोल्म एडाप्टेटर्स को अपनी ख़ुद की भाषा को गढ़ना होगा ताकि जो फ़िल्म वे प्रस्तुत करें वह किसी पुष्प की तरह खिलते हुए अपने सौंदर्य और अपनी ख़ुशबू को ख़ुद फैला सके। अपनी नवीनता के साथ फ़िल्म और सिनेमा का संबंध कई मायनों में एक सफल सहजीवन की तरह साबित हो सकता है।

प्रेमचंद के उपन्यास गोदान, निर्मला, गबन श्रद्धा राम फुल्लौरी की कहानी उसने कहा था, भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास चित्रलेखा, राजेन्द्र सिंह बेदी के उपन्यास एक चादर मैली सी पर केन्द्रित फ़िल्में बड़ी साहित्यिक कृतियों पर केन्द्रित तो रहीं लेकिन फ़िल्म के रूप में असफल ही मानी जाती हैं। इसी तरह भीष्म साहनी के उपन्यास तमस पर इसी नाम से फ़िल्म बनी। मदर इंडिया फ़िल्म 1957 में प्रदर्शित हुई जो कि 1940 में बनी ‘औरत’ फ़िल्म का रीमेक थी। यह फ़िल्म Pearl Buck के मशहूर उपन्यास ‘The Mother’ से प्रेरित मानी जाती है। 

सुबोध घोष के उपन्यास सुजाता पर आधारित फ़िल्म सुजाता सन 1959 में प्रदर्शित हुई। गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी के उपन्यास सरस्वतीचन्द्र पर इसी नाम से 1968 में फ़िल्म बनी। आर.के.नारायण के उपन्यास ‘गाइड’ और फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘गाइड’ और ‘तीसरी कसम’ नामक फ़िल्म बनी। सत्यजीत राय प्रेमचंद की कहानी सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी पर टेलीफ़िल्म बना चुके हैं। शानी के काला जल को दूरदर्शन ने फ़िल्मांकित किया। विमल मित्र के उपन्यास साहब, बीबी और गुलाम पर इसी नाम से फ़िल्म बनी।

फिर भी, सारा आकाश, उसकी रोटी, माया दर्पण और दुविधा जैसी फिल्में साठ और सत्तर के दशक में समकालीन हिन्दी साहित्य के आधार पर बनी फ़िल्में थीं जिनसे क्रमशः कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा और विजयदान देथा जैसे बड़े लेखकों का नाम जुड़ा हुआ है। विजयदान देथा राजस्थानी के लेखक रहे। मणि कौल, एम. एस. सथ्यू और के. ए. अब्बास जैसे निर्माता निर्देशकों ने इन फ़िल्मों के माध्यम से मानव जीवन और उसके संघर्षों का यथार्थवादी चित्रण प्रस्तुत किया। 

जानी मानी लेखिका इस्मत चुगताई की कृति पर आधारित गर्म हवा फ़िल्म 1973 में प्रदर्शित हुई। हंसा वाडेकर की ऑटोबायोग्राफ़ी ‘सांगते आईका’ पर सन 1977 में भूमिका फ़िल्म बनी। चक्र 1980 और बैंडिटक़्वीन 1994 जैसी फिल्में भी क्रमशः जयवंत दड़वी एवं माला सेन की कृतियों से प्रेरित हैं। विजय तेंदुलकर, चुन्नीलाल मदिया, सुधेन्दु रॉय और महाश्वेता देवी जैसे बड़े भारतीय लेखकों की कृतियों पर अस्सी और नब्बे के दशक में क्रमशः अर्ध सत्य, मिर्च मसाला, सौदागर और हज़ार चौरासी की माँ जैसी चर्चित फ़िल्में बनीं। सन 1993 में आयी रूदाली फ़िल्म भी महाश्वेता देवी की कहानी ‘रूदाली’ पर ही केन्द्रित है। 

मिर्ज़ा हादी के उपन्यास उमराव जान अदा पर उमराव जान फ़िल्म बनी। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास देवदास और परिणीता पर इसी नाम से फ़िल्में बनीं। अमृता प्रीतम के उपन्यास पिंजर और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के उपन्यास चोखेर बाली पर इसी नाम से फ़िल्में बनीं। इसी तरह गुलशन नंदा के उपन्यासों के आधार पर 1960-70 के दशक में कटी पतंग, नील कमल, खिलौना और शर्मीली जैसी फ़िल्में बनीं जिन्हें दर्शकों ने पसंद भी किया। मन्नू भंडारी की कहानी ‘सच यही है’ को ‘रजनीगंधा’ नाम से सन 1974 में बासू चटर्जी ने सिनेमा के पर्दे पर प्रस्तुत किया। 

चेतन भगत के उपन्यास वन नाइट एट ए कॉल सेंटर, फ़ाईव पॉइंट समवन, टू स्टेट्स, हाफ गर्लफ्रेंड, द थ्री मिस्टकेस आफ़ माय लाइफ पर आधारित क्रमशः हैलो, थ्री इडियट, टू स्टेट्स, हाफ गर्लफ्रेंड और काइ पो छे जैसी फ़िल्में बनीं। गुजराती नाटककार सौम्या जोशी के प्रसिद्ध गुजराती नाटक पर 102 नॉट आउट नामक फ़िल्म वर्ष 2018 में प्रदर्शित हुई। काशीनाथ सिंह के प्रसिद्ध उपन्यास काशी का अस्सी पर मोहल्ला अस्सी (2018) फ़िल्म बनी। मलिक मोहम्मद जायसी की कालजयी रचना पद्मावत से प्रेरित संजय लीला भंसाली की फ़िल्म पद्मावत सन 2018 में प्रदर्शित हुई। 

इसी तरह शेक्सपियर की कृति ओथेलो (Othello) पर आधारित ओमकारा फ़िल्म, हैमलेट (Hamlet) पर हैदर एवं मैक़बेथ (Macbeth) पर केन्द्रित मक़बूल फ़िल्म बनी। अ कॉमेडी ऑफ एरर्स ( A Comedy of Errors) पर आधारित अंगूर (1982) रोमियो एंड जूलिएट (Romeo and Juliet ) से प्रेरित कई हिन्दी फिल्में मानी जाती हैं। जैसे कि कयामत से कयामत तक(1988), एक दूजे के लिये(1981), एक बार चले आओ(1983), इश्कजादे(2010) और गोलियों की रासलीला राम-लीला(2013)। डॉ. ए.जे.सी. रोनिनस के उपन्यास ‘The Citadel’ पर केन्द्रित फ़िल्म तेरे मेरे सपने बनी। Jane Austen की कृति Emma पर ‘आयशा’/Aisha और रस्किन बॉन्ड की कृति A flight of pigeons, The blue Umbrella और The Best of Ruskin Bond पर केन्द्रित जुनून, द ब्लू अमब्रेला और सात खून माफ़ नामक फिल्में बनीं। 

O. Henry की कृति The Last Leaf पर केन्द्रित लूटेरा, Fyodor Dostoevsky के ‘White Nights’ पर आधारित साँवरिया फ़िल्म चर्चा में रही। इसी क्रम में हरिंदर सिंह के उपन्यास ‘Calling Sehmat: A Novel’ पर बनी फ़िल्म राज़ी, अनुजा चौहान की कृति पर The Zoya factor और Philip Meaor के उपन्यास ‘Confession of a Thug’ पर बनी फ़िल्म ठग्स ऑफ हिंदुस्तान का नाम लिया जा सकता है। सन 2007 में बनी ब्लैक फ्राइडे फ़िल्म एस.हुसैन जैदी के उपन्यास पर आधारित है।    

दरअसल रूपांतरण के कार्य को ‘Post Structuralist’ एवं ‘Post-Modernist’ के रूप में समझना होगा। जब हम एक कृति विशेष को पढ़ते हैं तो उसके साथ हमारी इच्छा, उम्मीद और एक यूटोपिया जुड़ा होता है। कृति विशेष को पढ़ने के साथ हम उसमें अपनी इच्छित छवियों को ख़ुद गढ़ते चले जाते हैं। जो कि व्यक्ति का अपना नितांत अनोखा और व्यक्तिगत रूप होता है। यह कल्पना फ़िल्म में सीमित हो जाती है। शब्दों का स्थान चलायमान चित्र एवं ध्वनियाँ ले लेती हैं। 

कई बार कृति में जो लिखा गया है उससे अधिक दिखाना पड़ता है। और कई बार कई पन्नों में लिखे हुए को चंद मिनटों में पूर्ण करना होता है। क़लम का काम जब कैमरे को करना होता है तो बहुत कुछ बदल जाता है। कैमरे की भाषा किताबों की भाषा से अलग होती है। तकनीक के माध्यम से रूपांतरण का अनुभव वर्तमान समय के लिए रोमांचक और नित नवीन अभिनव बना हुआ है। कलाकार नई प्रौद्योगिकियों के रूपों से मोहित हो गए हैं और "कैप्चर" करने के नवीनतम तरीक़े विकसित करने का प्रयास उनके लिए अधिक रोमांचकारी हो चुका है। 

बहुविचारों की तार्किक स्वीकृति /अस्वीकृति, आत्मकेंद्रियता, आत्मवाद, आत्ममुग्धता और ‘दखल की ललक’ को आज जनसंचार माध्यमों ने अधिक सहज बना दिया है। ये माध्यम व्यापक वैश्विक अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया ‘स्वपूर्ति’ (सेल्फ़ फ़ुलफीलमेंट) के नये केन्द्र बन गये हैं। इस आत्ममोह, आत्मकेन्द्रियता के बीच हम स्वयं को खोने की भयानक त्रासदी से जूझ रहे हैं। हम अवधारणात्मक वशीकरण के शिकार हो चुके हैं। ऐसे में परंपरागत विधियों के कवच में हम सुरक्षित रहेंगे, यह भ्रम होगा। आवश्यकता इस बात की है कि ‘विपरीतों के बीच सामंजस्य’ को विवेकपूर्ण तरीके से स्वीकार किया जाय। 

रूपांतरण की कला हमारी गाढ़ी होती लालसाओं/हसरतों की ड्योढ़ी पर जलते हुए दिये की तरह है। दरअसल फ़िल्म रूपांतरण : रोशनी से भरे हमारे ख़्वाब हैं। किसी के पहचाने हुए जीवन, सपनों, इरादों और अकेलेपन का नवीन भावबोध से भरा वह संस्करण है, जिसकी हर अदा पर हैरत ही हैरत है। इससे गुज़रते हुए कभी लगा कि ‘हम क्या हुए कि बस तार-तार हुए’ तो कभी लगा कि ‘गुमशुदा कोई मौसम, खिला हुआ उजाला बनकर’ आँखों के सामने नाच उठा हो।  

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा 
हिन्दी व्याख्याता 
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय 
कल्याण पश्चिम, महाराष्ट्र

डॉ. उषा आलोक दुबे 
हिन्दी व्याख्याता 
एम.डी. महाविद्यालय 
परेल, महाराष्ट्र

संदर्भ ग्रंथ : 

  1. Film and Literature: An Overview - Dr. Totawad Nagnath Ramrao,  http://www.epitomejournals.com, Vol. 2, Issue 9, September 2016, ISSN: 2395-6968
  2. A Study on Screen Adaptations from Literature with Reference to Chetan Bhagat’s Novel Manmeet Kaur, Divya Rastogi Kapoor, Journal of Advanced Research in Journalism & Mass Communication Volume 5, Issue 1&2 - 2018, Pg. No. 1-6 , Peer Reviewed Journal.
  3. Collision and Immergence of Context and Content: Analysis of Adaptation on Slumdog Millionaire - Ni Li School of Foreign Languages and Literature Wuhan University Wuhan, China, Advances in Social Science, Education and Humanities Research, volume 368.
  4. A companion to literature, film, and adaptation/edited by Deborah Cartmell. ISBN 978-1-4443-3497-5 (cloth), A John Wiley & Sons, Ltd., Publication, John Wiley & Sons Ltd, The Atrium, Southern Gate, Chichester, West Sussex, PO19 8SQ, UK. 
  5. Adaptation as Translation: On Fidelity - Siddhant Kalra, FLAME College of Liberal Arts, Pune. ttps://www.researchgate.net/publication/292615609 
  6. The Guide: Adaptation from Novel to Film- Amar Dutta , Guest Lecturer in English, Sarat Centenary College, postscriptum: An Interdisciplinary Journal of Literary Studies, Vol: 1 (January 2016) Online; Peer-Reviewed; Open Access www.postscriptum.co.in Dutta, Amar. “The Guide: … ” pp. 22-34 
  7. LITERATURE TO FILMS: A STUDY OF SELECT WOMEN PROTAGONISTS IN HINDI CINEMA THESIS Submitted to GOA UNIVERSITY For the Award of the degree of Doctor of Philosophy in English by Mrs. Bharati P. Falari under the Guidance of Dr. (Mrs.) K. J. Budkuley Professor & Head, Department of English, Goa University, Taleigao Plateau, Goa - 403206. October 2013
  8. Literary Film Adaptation for Screen Production: the Analysis of Style Adaptation in the Film Naked Lunch from a Quantitative and Descriptive Perspective. Alejandro Torres - Vergara University of Sheffield United Kingdom. http://revistas.userena.cl/index.php/logos/index ISSN Impreso: 0716- 7520 ISSN Electrónico: 0719-3262 
  9.  ‘Adaptation’, the Film, the Process and the Dialogue C. Yamini Krishna, Rajarajeshwari Ashok, Vishnu Vijayakumar PhD Scholars, Film Studies Department, English and Foreign Languages University, Hyderabad (EFLU). ‘Adaptation’, the Film, the Process and the Dialogue: CAESURAE, SPRING 2016. 
  10. Ganguli, Suranjan. Satyajit Ray - In Search of the Modern. New Delhi: Indialog Publication Pvt. Ltd., 2001. 
  11. जनसंचार के सामाजिक संदर्भ - जवरीमल पारख। अनामिका पब्लिषर्स एँड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली। संस्करण-2001 
  12. समाज-विज्ञान विश्वकोश - खण्ड 04, संपादक - अभयकुमार दुबे। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र)। - राजकमल प्रकाशन, द्वितीय संस्करण-2015 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख

कविता

सजल

नज़्म

कार्यक्रम रिपोर्ट

ग़ज़ल

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक चर्चा

सांस्कृतिक आलेख

सिनेमा और साहित्य

कहानी

शोध निबन्ध

सामाजिक आलेख

कविता - क्षणिका

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं