स्वामी विवेकानंद: आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद के पितामह
आलेख | सांस्कृतिक आलेख डॉ. मनीष कुमार मिश्रा15 Jan 2023 (अंक: 221, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
हिन्दी विभाग
के.एम.अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण पश्चिम – महाराष्ट्र
manishmuntazir@gmail.com
डॉ. मनीषा पाटील
अँग्रेजी विभाग
गुरुनानक कॉलेज
GTB नगर, मुंबई
manisha@gncasc.org
स्वामी विवेकानंद जी का जन्म मकर संक्रांति 12 जनवरी सन् 1863 में कोलकाता के सिमला पाली, ग़ौर मोहन मुखर्जी लेन, के एक संपन्न परिवार में सुबह 6:33 पर हुआ। आप अपने माता-पिता की छठवीं संतान थे। आप के दो अन्य भाई महेन्द्रनाथ और भूपेन्द्रनाथ थे। आप तीनों भाई आजीवन अविवाहित रहे। मात्र 39 साल की उम्र में स्वामी विवेकानंद ने जो ख्याति अर्जित की वो दुर्लभ है। भारत के सबसे प्रभावशाली शिक्षाविद् और आध्यात्मिक विचारक के रूप में स्वामी जी हमेशा के लिए अमर हो चुके हैं। उनके निडर एवं साहसी व्यक्तित्व के लिए कई लोग उन्हें एक ‘आइकन’ एक आदर्श के रूप में मानते हैं। युवाओं के लिए उनके सकारात्मक उपदेश, सामाजिक समस्याओं के प्रति उनका व्यापक दृष्टिकोण और वेदांत दर्शन पर अनगिनत व्याख्यान और प्रवचन हमेशा ही उनके व्यक्तित्व को एक प्रकाश पुंज के रूप में पूरी दुनियाँ को आकर्षित करता रहेगा। विवेकानंद का व्यक्तित्व ज्ञान और विचार की व्यापकता और गहराई के लिए हमेशा ही उल्लेखनीय रहेगा। सामाजिक-आर्थिक और नैतिक संरचना में व्याप्त बुराइयों के प्रति संवेदनशीलता, अद्वैत तप और समाज सेवा को लेकर उनकी दृष्टि बेहद स्पष्ट थी।
स्वामी जी के दादा दुर्गा चंद्र दत्त बड़े ज़मींदार और धनी व्यक्ति थे। आप ने बाद में संन्यास ले लिया था। विश्वनाथ दत्त आप के इकलौते पुत्र थे। स्वामी विवेकानंद के पिता विश्वनाथ दत्त कोलकाता उच्च न्यायालय में वकील/अटॉर्नी थे। आप की माँ भुवनेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। माँ के व्यक्तित्व की व्यापक छाप विवेकानंद पर पड़ी। आप के पिता कम उम्र में ही सब कुछ त्याग कर संन्यासी हो गए थे, जिसका प्रभाव भी स्वामी जी के ऊपर हुआ। बचपन से ही आप साधू-संतों को ध्यान से सुनते और जो कुछ उनके पास होता, उसे खुले दिल से दान कर देते। आप का वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बनने के उपरांत आप स्वामी विवेकानंद के रूप में जाने गए। आप की स्मरण शक्ति विलक्षण थी। अपने मित्रों के बीच बड़े लोकप्रिय और सदैव उनका आप नेतृत्व करते। गाय, बंदर और पक्षियों से आप को विशेष लगाव था। आप पाक कला में भी निपुण थे। आप को घुड़सवारी, तैराकी, कुश्ती, मुक्केबाज़ी और शास्त्रीय संगीत से विशेष लगाव था। आप को संगीत की शिक्षा देने वालों में उस्ताद बेनी गुप्ता और अहमद खान का नाम लिया जाता है। स्वामी जी बंगाली गीत नहीं गाते थे, लेकिन परमहंस जी के लिए आप ने बंगाली गीत सीखे। आप ने जो पहला बंगाली गीत सीखा वह था–“मन चलो निजी निकेतन”
सन् 1877 में आप के पिता सपरिवार रायपुर आ गए। यहीं रहते हुए स्वामी जी नें हिन्दी सीखी। क्या ईश्वर है? यह प्रश्न भी आप के मन में पहली बार यहीं रहते हुए आया। सन् 1879 में आप पुनः परिवार के साथ कोलकाता आ गए। कई लोग यह मानते हैं कि रायपुर ही स्वामी जी की “आध्यात्मिक जन्मभूमि” रही। स्कूल की शिक्षा पूरी करके आप ने प्रेसीडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश मिशनरी कॉलेज में शिक्षा का क्रम जारी रखा। आप के प्राचार्य डॉ. हेस्टी (Hastie) आप से प्रभावित थे। आप बचपन से ही ध्यान लगाते थे। कहते हैं कि बचपन में ध्यान की अवस्था में एक सर्प आप के पास आ गया लेकिन आप को इस बात का भान ही नहीं हुआ। सन् 1881 में आप ने फ़ाईन आर्ट्स की परीक्षा पास की और सन् 1884 में आप स्नातक हुए। स्नातक होने के बाद आप ने मेट्रोपोलिटेंट इंस्टीट्यूट (वर्तमान विद्यासागर कॉलेज) से क़ानून की पढ़ाई शुरू की। लेकिन आप अंतिम परीक्षा में शामिल न हो सके। आप के पिता की मृत्यु सन् 1884 में हुई।
स्वामी जी की आश्चर्यजनक याददाश्त के कारण उन्हें कुछ लोग ‘श्रुतिधरा’ भी कहते थे। ब्रह्म समाज का भी आप के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा। आप ब्रह्म समाज के सदस्य भी रहे। ब्रह्म समाज से जुड़ने के बाद नरेन्द्र को ब्रह्म समाज के प्रमुख महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर से मिलने का मौक़ा मिला और अपनी आदत के अनुसार उनसे पूछा कि “क्या उन्होंने ईश्वर को देखा है?” तब देवेन्द्रनाथजी ने उनके प्रश्न का उत्तर देने की बजाय उनसे कहा कि “बेटे, तुम्हारी नज़र एक योगी की है” और इसके बाद भी उनकी ईश्वर की खोज जारी रही। आप अपने चिंतन में “प्रमाण” को प्रमुख मानते थे। आप केशव चंद्र सेन से भी कुछ दार्शनिक प्रश्नों को लेकर मिले किन्तु यहाँ भी आप को समाधान नहीं मिला।
नवंबर 1880 में आप पहली बार रामकृष्ण परमहंस जी से मिले। पिता की मृत्यु के बाद तो आप दक्षिणेश्वर में रामकृष्ण परमहंस जी से मिलने कई बार गए। यहीं पर काली माता से उन्होंने आर्थिक तंगी दूर करने की बजाय विवेक और वैराग्य माँगा। पिता की मृत्यु के बाद आर्थिक तंगी दूर करने के लिए आप ने कुछ समय के लिए मेट्रोपोलिटेंट इंस्टीट्यूट में शिक्षक के रूप में भी कार्य किया। सन् 1885 में रामकृष्ण जी को गले का कैंसर हो गया तो वे कोलकाता चले आए। यहाँ रहते हुए स्वामी विवेकानंद ने गुरु की बहुत सेवा की। 16 अगस्त सन् 1886 में रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु तक तो आप उनके सबसे प्रिय शिष्यों में अपनी जगह बना चुके थे। कोई गुरु अपने शिष्य के लिए महान वचनों को कहे यह हमेशा ही महत्त्वपूर्ण होता है। रामकृष्ण परमहंस विवेकानंद को महानताओं का प्रतीक मानते थे। वे उन्हें सोलह पंखुड़ियों वाला कमल नहीं अपितु सहस्रदल कमल के रूप में संबोधित करते थे। अद्वैत वेदांत की शिक्षा आप को अपने गुरु से ही मिली।
स्वतंत्रता और समानता जैसे सिद्धान्त जो कि फ्रांसीसी राज्य क्रांति के नींव में थे, उनसे भी आप प्रभावित रहे। संस्कृत और अंग्रेज़ी भाषा के आप बड़े ज्ञाता थे। पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान और लोकतांत्रिक पद्धतियों की भी उन्हें गहरी समझ थी। शेले के सर्वात्मवाद और वर्ड्सवर्थ के दार्शनिक मान्यताओं के आप प्रशंसक थे। अपने गुरु की मृत्यु के पश्चात् वे स्वयं और रामकृष्ण परमहंस के अन्य शिष्यों ने सब कुछ त्याग करके, मठवासी बनने की शपथ ली और वे सभी बरंगोर में निवास करने लगे जो कि किराये पर लिया गया स्थान था। सन् 1887 में नरेंद्रनाथ सहित रामकृष्ण के पंद्रह शिष्यों ने मठवासी होने की प्रतिज्ञा ली। और वहीं से नरेंद्र, स्वामी विवेकानंद बने। ‘विवेकानंद’ शब्द का अर्थ है—ज्ञान की अनुभूति का आनंद। ये सभी पंद्रह शिष्य उत्तरी कलकत्ता के बारानगर में एक साथ रहते थे, जिसे रामकृष्ण मठ के नाम से जाना जाता था। वे सभी योग और ध्यान का अभ्यास करते थे।
गुरु की मृत्यु के बाद स्वामी जी ने पाँच वर्षों तक पूरे देश का भ्रमण किया। इन यात्राओं के बीच उन्होंने संस्कृत और भारतीय धर्म शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। सन् 1888 में आप ने अपनी यात्रा काशी से शुरू की। यहाँ वे भूदेव मुखोपाध्याय और बाबू परम दास से मिले। इसके बाद वे अयोध्या, लखनऊ, आगरा, वृंदावन, हाथरस और ऋषिकेश गए। हाथरस में ही आप स्टेशन मास्टर शरत चंद्र गुप्ता से मिले जो आगे चलकर आप के शिष्य बने। 1888 से 1890 के बीच बैद्यनाथ, इलाहाबाद, गाजीपुर, नैनीताल, अल्मोड़ा, श्रीनगर, देहरादून, हरिद्वार और हिमालय के अनेक स्थलों की आप ने यात्रा पूरी की। अपनी यात्रा के अंत में सन् 1891 के आस-पास आप दिल्ली आए। यहाँ से अलवर, जयपुर, अजमेर, माउंट आबू और फिर आप महाराष्ट्र आए। महाराष्ट्र के अहमदाबाद और लिम्बडी की यात्रा आप ने की। यहीं आप की मुलाक़ात ठाकोरे जी से हुई जिनसे मिलकर आप को पश्चिम में वेदांत की शिक्षा देने का ख़्याल आया। आगे की यात्रा में आप जूनागढ़, पोरबंदर, कच्छ, द्वारका और बड़ोदा होते हुए पुणे और महाबलेश्वर आए। सन् 1892 में आप मध्यप्रदेश के खंडवा और इंदौर में रहे। दिसंबर 1892 में आप कन्याकुमारी के एक मंदिर में आए। यहीं उनकी बाल गंगाधर तिलक से भी मुलाक़ात हुई। भारत के अंतिम छोर की आख़िरी चट्टान पर बैठकर आप ने अपने भविष्य की राह सुनिश्चित की। यह जगह आज “विवेकानंद शिला” के नाम से जानी जाती है।
गुजरात और मद्रास के अपने गुरु भाइयों एवं शिष्यों के माध्यम से आप को शिकागो में आयोजित होनेवाली धर्म संसद के बारे में पता चला। पहले उन्हें यहाँ जाने में संकोच हो रहा था, लेकिन एक दिन स्वप्न में उन्हेंं गुरु का आदेश प्राप्त हुआ जिसके बाद वो शिकागो जाने के लिए तैयार हुए। 31 मई 1893 में आप अमेरिका के शिकागो में आयोजित सर्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने गए। सिंगापुर, हाँगकाँग और टोकियो होते हुए वे अमेरिका पहुँचे। अमेरिका पहुँचने पर उन्हेंं पता चला कि सम्मेलन में भाग लेने के लिए उन्हेंं इस आशय का पत्र देना होगा कि वे अपने धर्म के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में आए हुए हैं। स्वामी जी ने ऐसा कोई पत्र किसी से लिया नहीं था। उन्हेंं लगा कि अमेरिका आने का उनका प्रयोजन अधूरा रह जाएगा। अपनी चिंता से उन्होंने उस अमेरिकी प्रोफ़ेसर J.H. Wright को अवगत कराया जिनसे उनकी ट्रेन में मुलाक़ात हुई थी। प्रोफ़ेसर साहब आप के व्यक्तित्व से प्रभावित थे अतः उन्होंने सम्मेलन के अध्यक्ष को “Letter of Introduction” लिखा।
लेकिन समस्या यहीं ख़त्म नहीं हुई। सूचना मिली कि कतिपय कारणों से सम्मेलन कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया गया है। स्वामी जी के पास न तो अधिक धन राशि बची थी ना ही वहाँ रहने का कोई ठिकाना था। ऐसे में कुछ लोग जो स्वामी जी की सादगी और विचारों से प्रभावित थे उन्होंने स्वामी जी को अपने घर में शरण दी। आख़िर धर्म संसद के आयोजन का समय आ गया। स्वामी जी ने 11 सितंबर 1893 को वहाँ अपना ऐतिहासिक व्याख्यान दिया। 11 मिनट के आप के व्याख्यान के बाद तो पूरा अमेरिका आप का मुरीद हो चुका था। स्वामी विवेकानंद जी को वहाँ की प्रेस ने “Cyclonic Monk from India” का नाम दिया था। द न्यूयार्क हरॉल्ड ने स्वामी जी के विषय में लिखा कि, “Vivekananda was undoubtedly the greatest figure in the parliament of Religion; after hearing him we feel how foolish it is to send missionaries to this learned Nation.” अमेरिका के अख़बार आप की प्रशंसा से पट गए। धर्म संसद में 11 बार आप के व्याख्यान अलग-अलग प्रसंगों पर हुए। 27 सितंबर 1893 को धर्म संसद का कार्यक्रम समाप्त हुआ। उन्होंने ऐसी ही कई जगहों, घरों, कॉलेजों में अपने व्याख्यान दिए। अमेरिका से आप पेरिस होते हुए इंगलैंड गए। आप के तमाम व्याख्यानों को श्रीमान J.J. Goodwin ने लिपिबद्ध किया। वहाँ से 1895 में भारत लौटने पर आप का शाही स्वागत हुआ। कोलकाता में हज़ारों की भीड़ आप को देखने के लिए उतावली दिखी। अमेरिका में दिये आप के व्याख्यानों का संग्रह “Lectures from Colombo to Almora” शीर्षक से प्रकाशित हुआ। देश-विदेश के कई लोग आप से प्रभावित होकर आप के शिष्य बने। ऐसे ही प्रमुख नामों में सिस्टर निवेदिता भी थी। जिन प्रमुख लोगों से आप की मुलाक़ात हुई उनमें प्रोफ़ेसर मैक्स मूलर, पॉल ड्युसेन, ए. स्टर्डी, श्रीमान सेवियर एवं मिस मार्गरेट प्रमुख थीं।
सन् 1897 में आप ने कोलकाता के बैलूर में “रामकृष्ण मिशन” की स्थापना की। सन् 1898 में आप दुबारा पश्चिम की यात्रा पर गए। इसी बीच आप ने सैनफ्रांसिस्को में “शांति आश्रम” की स्थापना की। यहीं से वापस भारत लौटने पर 04 जुलाई सन् 1902 को आप का देहांत हो गया। स्वामी जी ने कुछ व्याख्यान हिन्दी में भी दिये थे जो कि उपलब्ध नहीं हैं। आप का सम्पूर्ण साहित्य अंग्रेज़ी में 08 खण्डों में “Complete Works of Swami Vivekananda” शीर्षक से प्रकाशित है। इनमें आप के लिखे पत्र और कुछ कवितायें भी शामिल हैं। आप की पहली पुस्तक “कर्मयोग” सन् 1896 में न्युयॉर्क से, “राजयोग” इंगलैंड से और “भक्तियोग” मद्रास से प्रकाशित हुई थी। इन पुस्तकों के प्रकाशन के बाद डॉ. आर.सी. मजूमदार और श्री आर.जी. प्रधान जैसे विद्वानों ने आप को “आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद का पितामह” घोषित किया।
अपने मौलिक चिंतन और सेवा कार्य के प्रति जुनून के कारण सभी में विशेष रूप से लोकप्रिय भी थे। उन्होंने ग़रीबों और दलितों की सेवा पर ज़ोर दिया एवं इसे बड़ा पवित्र कार्य माना। एक दार्शनिक उपदेशक और समाज सुधारक के रूप में स्वामी विवेकानंद ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। मानवता का उत्थान उनके जीवन का परम लक्ष्य था। उन्होंने विचारों की गतिशीलता पर ज़ोर दिया तथा मानव जीवन की उत्कृष्टता के लिए शरीर और आत्मा की पवित्रता की बात की। शिक्षा संबंधी अपने विचारों को लेकर वो स्पष्ट रूप से कहते थे कि अधिकांश देशों में औपचारिक स्कूली शिक्षा पर ज़ोर दिया जाता है न कि श्रेष्ठ मानव-निर्माण संबंधी गतिविधियों पर। परिणाम यह है कि इतनी शिक्षा के बाद भी अराजकता का कोई अंत नहीं है। स्वामी जी यह समझ चुके थे कि मानव मात्र की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है। स्वामी जी कहते थे कि, “। am अ Socialist not because । think it is a perfect system, but because half-a-loaf is better than no bread.” ग़रीबों के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति के लिए वे समाज के बड़े वर्ग को हमेशा चेताते रहे।
वे साफ़ मानते थे कि धन का आधिक्य मूलभूत मानवीय मूल्यों पर हावी नहीं होना चाहिए। विवेकानंद जैसा द्रष्टा ही बहुत पहले ही इस मानवीय पीड़ा के कारण को समझ सकता था और उसका प्रचार कर सकता था। शिक्षा का दर्शन मानव जाति के कल्याण और उद्धार के लिए है यह सीख विवेकानंद से ही मिलती है। आप कर्म के बिना ज्ञान को निरर्थक मानते थे। अद्वैत वेदान्त को व्यावहारिक बनाने पर आप ने विशेष ज़ोर दिया। वेद, वेदान्त, गुरु की शिक्षा और अपने मौलिक चिंतन को उन्होंने अपने विचारों की धुरी बनाई। विवेकानंद जी ने कभी उस ईश्वर की चर्चा नहीं की जो मृत्यु के बाद सुख प्रदान करे। उन्होंने अपने वेदान्त के सिद्धान्त को सार्वभौमिक माना। वे भक्ति, ज्ञान और कर्म के समन्वय में विश्वास करते थे। वे वेदान्त को प्रतिदिन की पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की कुंजी के रूप में देखते थे। धर्म के प्रति आप का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और बुद्धिवादी रहा। आप ने सांप्रदायिकता का खुल के विरोध किया। हिन्दू धर्म की मानवतावादी व्याख्या प्रस्तुत करने में आप पूरी तरह सफल रहे।
आप ने राष्ट्रवाद का सांस्कृतिक एवं धार्मिक सिद्धान्त प्रतिपादित किया। ग़ुलाम भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख जगाने में विवेकानंद का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। वे भारत के राष्ट्रवाद का प्रधान तत्त्व धर्म को मानते थे। वे हमारी आध्यात्मिकता की तुलना हमारे जीवन रक्त से करते हैं। भारत के कल्याण को अपना कल्याण माननेवाले वे एक क़द्दावर विचारक थे। वे चिंतन और कार्य की स्वतंत्रता के परम हिमायती थे। समाज में किसी भी प्रकार के भेदभाव और शोषण का आप ने खुलकर विरोध किया। आप ने अधिकारों की जगह कर्तव्य को हमेशा ही प्रमुखता दी। आप सार्वभौमिकता और विश्व बंधुत्व के सबसे बड़े हिमायती रहे। छुआछूत, स्त्री अधिकार, बाल विवाह का विरोध एवं दलित उत्थान जैसे विषयों को लेकर आप जीवन भर सक्रिय रहे। स्वामी जी शुद्ध भारतीय शिक्षा पद्धति के समर्थक थे। आप शिक्षा पाठ्यक्रमों में धर्मग्रंथों को इस उद्देश्य से सम्मिलित करवाना चाहते थे कि इससे धार्मिक आडंबर और अंधविश्वास को व्यापक रूप से नियंत्रित किया जा सकेगा। स्वामी जी कहते हैं कि, “Soul is a circle whose circumference is nowhere (limitless), but whose center is in somebody. Death is but a change of center. God is a circle whose circumference is nowhere and whose center everywhere. When we can get out of the limited center of body, we shall realize God, our true self.”
वास्तव में, शिक्षा का उनका दर्शन उपनिषदों, गीता, अद्वैत वेदांत एवं भागवत के शाश्वत सत्य पर आधारित है। विवेकानंद के लिए, “शिक्षा पूर्णता की अभिव्यक्ति है।” उनकी दृष्टि में शिक्षा जीवन का स्वरूप है। विवेकानंद ऐसे उच्च नैतिक आदर्श की तलाश करते हैं जैसे कि-सार्वभौमिक प्रेम, जो मनुष्य और मनुष्य के बीच सभी बाधाओं को पार करते हुए उन्हें एक सूत्र में जोड़ सके। वे एक ऐसे आधार को तलाशते हैं जो एक दुनिया के गठन को बढ़ावा देता है। इसे हम “अस्तित्व की आध्यात्मिक एकता” के रूप में भी समझ सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि, दुनिया का एकीकरण करने में इस तरह की शिक्षा की तत्काल आवश्यकता है।
19वीं शताब्दी के निर्णायक काल में भारत के शिक्षित लोग अधिकतर थे जो पश्चिम की संस्कृति से प्रभावित थे। इनके अंदर आत्मगौरव के लिए कोई सूत्र नहीं था। लेकिन विवेकानन्द की दृष्टि में शिक्षा जड़ विचार नहीं अपितु एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से जीवन के आंतरिक मूल्यों का निर्माण किया जा सकता है। पश्चिम की सामाजिक-राजनीतिक संस्कृति से ऊपर उठकर उन्होंने सोचने की एक नई दृष्टि दी। उनके विचार में सच्ची शिक्षा निहित है जो आधुनिक विज्ञान के साथ वेदांत का सम्मिश्रण या संलयन करती हुई दिखाई पड़ती है। पुनरुत्थानवादी भारत के अग्रदूत के रूप में उनके पास अपनी मौलिक सोच थी जिसके केंद्र में मनुष्यता थी। मानवता के सार्वभौमिक शिक्षक, विवेकानंद ने पूर्व और पश्चिम दोनों की समस्याओं को गहराई से महसूस किया। उनके द्वारा निर्धारित समाधान राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों थे। एक मनुष्य के रूप में अपने व्यक्ति को पूर्वाग्रहों और अंधविश्वासों से मुक्त करना विवेकानंद अनिवार्य मानते थे। शिक्षा की अपनी अवधारणा में विवेकानंद का वेदांतिक दृष्टिकोण का बहुत अधिक योगदान है।
भारत में शिक्षा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए स्वामी जी मनोविज्ञान, योग और अद्वैत के विचार के उपयोग पर बल देते हुए दिखाई पड़ते हैं। वे धर्म को माध्यम और योग को उचित तरीक़ा मानते हैं। विवेकानंद स्पष्ट रूप से मानते थे कि शिक्षा पेशे के लिए नहीं अपितु जीवन के लिए होनी चाहिए। जीवन के लिए शिक्षा आवश्यक रूप से व्यापक होनी चाहिए। यह एक निरंतर जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है। आदर्श शिक्षा का अर्थ केवल सूचना एकत्र करना नहीं है। विवेकानंद ने परिभाषित किया है कि शिक्षा, “मनुष्य में पहले से ही पूर्णता की अभिव्यक्ति” के रूप में और धर्म, “मनुष्य में पहले से ही दिव्यता की अभिव्यक्ति” के रूप में। इस तरह सच्ची शिक्षा और सच्चा धर्म लगभग विनिमेय शब्द हैं। विवेकानंद की भारत के नवनिर्माण की योजना में ग़रीबी, बेरोज़गारी को दूर करना और जनता को शिक्षित करना महत्त्वपूर्ण है ताकि उनकी खोई हुई वैयक्तिकता हो बहाल किया जा सके। आज हम विवेकानंद के विचारों से पूरी तरह मेल खाते हुए पूरे भारत में अनेकों को देखते हैं। विवेकानंद के मानव-निर्माण के विचारों के मूल उद्देश्यों का समर्थन करते हुए आज कई विचारक उनके गुणगान गाते नहीं थकते। स्वामी जी चाहते थे कि सारी शिक्षा की नींव आध्यात्मिकता के मूल आधार पर रखी जाए
एक राष्ट्र या समाज के जीवन को बनाए रखने और एकीकृत करने के साथ-साथ पूरा करने के लिए, जिस समग्र मानवीय चिंतन की ज़रूरत थी वो स्वामी विवेकानंद के विचारों में स्पष्ट होती है। एक राष्ट्र के जीवन में संस्कृति इस अर्थ में व्यापक और एकीकृत है कि समाज जो कुछ भी करता है इसके लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसकी “संस्कृति की अभिव्यक्ति” को ही ज़िम्मेदार माना जा सकता है। हालाँकि विभिन्न संस्थानों, रीति-रिवाज़ों और शिष्टाचार के साथ-साथ विचार पैटर्न भी अपनी संस्कृति को व्यक्त करने में मदद करता है, संस्कृति ऐसी कोई चीज़ नहीं है किसी एक या एक से अधिक के संदर्भ में व्यक्त होती रहे। इसे तो अति व्यापक रूप से पहचाना और परिभाषित किया जाना चाहिए। किसी संस्कृति को समझना, उसे जीना और उसमें विकसित होना एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक परंपरा है। इसमें भाग लिए बिना एक संस्कृति की सराहना करना काफ़ी कठिन है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है–
“National union in India must be the gathering up of the scattered spiritual forces. A nation in India must be the union of those whose hearts beat to the same spiritual tune.”
भारतीय संस्कृति के हिंदू विचारकों में यह विवेकानंद थे जिन्होंने सार को समझने की कोशिश की और भीतर से भारतीय संस्कृति का अर्थ भी। उनके पास ऐसे व्यक्ति के क़रीब रहने का दुर्लभ विशेषाधिकार था जो भारतीय आध्यात्मिकता का एक जीवित अवतार माने जाते हैं। एक साधु के रूप में भारत की लंबाई और चौड़ाई में उनकी व्यापक यात्राएँ, भारतीय स्रोत साहित्य की उनकी गहन समझ, और उनका व्यक्तिगत बोध इसके उच्चतम मूल्यों ने उन्हें संस्कृति के अर्थ को गहराई से समझने में मदद की। हिंदू धर्म की सबसे रचनात्मक तरीक़े से व्याख्या करने की उनकी क्षमता से कहीं अधिक उनकी सफलता भारत को उसकी आध्यात्मिक नींद से जगाने में, उसका मार्गदर्शन करने में निहित है। विवेकानंद अधिकांश अन्य महान और रचनात्मक लोगों की तरह अपनी अंतर्दृष्टि के लिए अधिक जाने जाते हैं। विवेकानंद ने भारतीय जीवन के लगभग सभी पहलुओं को छुआ है और उन्हें उनके सही परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश की। स्वामी जी के शब्दों में—
“When the blood is strong and pure, no disease germs can live in the body. Our life blood is spirituality, if it flows clear, if it flows strong and pure and vigorous, everything is right; political, social, any other material defects, even the poverty of the land will all be cured if that blood is pure. For if the disease-germ is thrown out, nothing will be able to enter into the blood.”
स्वामी विवेकानंद के व्याख्यानों और भाषणों से बहुत से युवाओं को समाज-सेवा और चरित्र-निर्माण की प्रेरणा मिली। स्वामी विवेकानंद ने अपना जीवन समर्पित कर दिया युवाओं को समाज-सेवा के महत्त्व को पढ़ाने और मार्गदर्शन करने में। स्वामी विवेकानंद अपने पूरे जीवनकाल में युवाओं के लिए एक शक्तिशाली प्रेरणा थे। स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है क्योंकि 1984 में, भारत सरकार ने इसकी औपचारिक घोषणा की। स्वामी जी समझते थे कि किसी भी सामाजिक परिवर्तन के लिए भारी ऊर्जा की आवश्यकता होती है और हमेशा रहेगी। इसलिए उन्होंने युवाओं से आह्वान किया कि वे न केवल अपनी मानसिक ऊर्जा का निर्माण करें, बल्कि शरीर से भी ताक़तवर बनें। वे चाहते थे कि युवाओं में अदम्य इच्छाशक्ति और महासागर पीने की ताक़त हो। वह युवाओं को शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से तैयार करना चाहते थे।
स्वामी विवेकानंद के इतिहास के काम को हमेशा भारत के इतिहास में बड़े योगदान के रूप में याद किया जाता है। वह एक भारतीय हिंदू भिक्षु जिन्होंने अपना पूरा जीवन हिंदू धर्म के विश्वासों और मान्यताओं को फैलाने में लगा दिया। जिनके लिए धार्मिक होने का अर्थ है जीवन व्यतीत करना एक तरीक़ा जिससे हम अपनी उच्च प्रकृति, सच्चाई, अच्छाई और सुंदरता को अपने विचारों में प्रकट करते हैं। इस लक्ष्य की ओर ले जाने वाले सभी आवेग, विचार और कार्य स्वाभाविक रूप से उदात्त, सामंजस्यपूर्ण और सच्चे अर्थों में नैतिक हैं। स्वामी विवेकानंद का स्पष्ट मानना था कि हमें तकनीकी शिक्षा और अन्य सभी चीज़ों की आवश्यकता है, जो उद्योगों का विकास कर सकें। वे ऐसे विकास की बात करते हैं जो संतुलित राष्ट्र के साथ हमें पश्चिम की गतिशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जोड़ने का काम करे।
इस तरह के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक मिशनरी भावना की आवश्यकता है। हमें अपनी विकास सोच विकसित करना है। हमें क्षमताओं और अधिकारों की दिशा में हमारे कमोडिटी केंद्रित दृष्टिकोण को स्थानांतरित करना होगा। विकास की वास्तविक भावना के लिए हमें अंतर्ज्ञान के आधार पर एक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इस सम्बन्ध में मेरा अंतर्ज्ञान यह कह रहा है कि संस्थानों का संरचनात्मक परिवर्तन आवश्यक है। वास्तविकता के वर्तमान चरण में, लिबर्टी और मानव भावना की स्वतंत्रता विचारों के बहुत ही रोचक ध्रुवीकरण को बनाती है। हमें एक समाज या संस्थागत प्रणाली की आवश्यकता है जहाँ सभी के लिए अपनी क्षमताओं को अनुकूलित करने के अवसर हो सकते हैं। नीतियाँ जो सामाजिक रूप से उपयोगी और उत्पादक हैं और किसी भी विखंडन से परे हैं। हमें एक इंटरेक्टिव संस्थान की ज़रूरत है जो जीवन के शिखर को छूता है। स्वामी जी इसी के लिए एक अध्यात्म केन्द्रित शिक्षा की बात करते हैं।
संपूर्ण शैक्षिक कार्यक्रम को इस प्रकार नियोजित किया जाना चाहिए कि यह युवाओं को देश की भौतिक प्रगति में योगदान देने के लिए तैयार करे लेकिन भारत की आध्यात्मिक विरासत के सर्वोच्च मूल्य को बनाए रखना हम सब की ज़िम्मेदारी है। भारत की सबसे प्रतिष्ठित विज्ञान संस्था – इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंसेज, बेंगलूरू (आईआईएससी) की स्थापना के पीछे विवेकानंद की प्रेरणा थी। सन् 1893 में, जापान के योकोहामा से कैनेडा के वैंकूवर तक पानी के जहाज़ पर स्वामी जी यात्रा कर रहे थे। यहीं एक भारतीय उद्योगपति से भारतीय समाज के कायाकल्प को लेकर उनकी चर्चा हुई। इस घटना के क़रीब पाँच वर्षों बाद नवंबर 1898 में जमशेदजी टाटा ने स्वामी विवेकानंद को पत्र लिखकर यह स्मरण करवाया कि जहाज़ यात्रा की उनकी चर्चा अब सार्थक होगी। टाटा ने स्वामी जी के विचारों से प्रभावित होकर भारतीय विद्यार्थियों के लिए एक विज्ञान शोध संस्था बनाने का निश्चय कर लिया था। 2 लाख स्टर्लिंग पाउंड की राशि इस कार्य के लिए टाटा ने प्रदान की थी। इस तरह आईआईएससी के निर्माण की कहानी बनी।
विवेकानंद एक सच्चे वेदांतवादी थे। वे एक व्यावहारिक संत थे, गतिशील विश्व प्रेरक और मानव प्रेमी, जो मानव जाति को किसी भी चीज़ से अधिक प्यार करता है। वह एक उत्साही अध्ययनकर्ता थे। दर्शनशास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य सहित अनेकों विषयों की उन्हें गहरी जानकारी थी। विवेकानंद को वेदों, उपनिषदों सहित हिंदू शास्त्रों में भी रुचि थी। भगवद गीता, महाभारत और पुराण उनकी प्रिय पुस्तकों में थी।
विवेकानंद ने अपनी यात्राओं के माध्यम से वर्षों तक वेदांतिक शास्त्रों और दर्शन का प्रचार किया। विवेकानंद एक प्रखर विद्वान, प्रख्यात वेदांतवादी, दार्शनिक और ब्रह्मचारी थे। वे भारतीय अध्यात्म के अमृत में डूबे हुए थे। विवेकानंद ईश्वर को सर्वोच्च शक्ति के रूप में वर्णित करते हैं। वह सर्वशक्तिमान, और सर्वज्ञ है। मनुष्य ईश्वर का अवतार है, ईश्वर मनुष्य में प्रकट होता है। वह आगे कहते हैं कि आत्मा दिव्य और अमर है। इसलिए पूर्ण आत्मा (ब्रह्मा) और व्यक्तिगत आत्मा के बीच कोई अंतर नहीं है। विवेकानंद वेदांतिक दर्शन से बहुत प्रभावित थे। उनका मानना था कि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्माता (भगवान) के साथ एकता प्राप्त करना है। स्वामी जी का धर्म के प्रति व्यापक दृष्टिकोण था। उनका धर्म प्रकृति में सार्वभौमिक है। उनके लिए मनुष्य की पूजा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है। दूसरे शब्दों में मानवता की सेवा ही ईश्वर की सेवा है। उनके अनुसार वास्तविक सुख न तो शरीर में है न मन में, बल्कि जीवन की स्वतंत्रता में। इस प्रकार जीवन का लक्ष्य स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता का प्रेरक है ब्रह्मांड, स्वतंत्रता लक्ष्य है। एक अखंड राष्ट्र के रूप में भारत का स्वरूप बहुवचनात्मक है। बाह्य विविधताओं से परिपूर्ण इस देश में कुछ आंतरिक मूल तत्त्व हैं जो इसकी अखंडता के लिए कवच के समान हैं। भारतीयता जैसी अवधारणाएँ इन्हीं प्रांजल तत्त्वों की खोह में सुरक्षित रहती हैं। पूरे विश्व में इस तरह का दूसरा उदाहरण नहीं है। ये तत्त्व ही प्रकाश के वे अंतःकेंद्र हैं जो पवित्र, निर्मल विचारों और मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिये साहित्य और संस्कृति के माध्यम से सच्चा बयान प्रस्तुत करते हैं। एक राष्ट्र के रूप में हमें ऊर्जावान, प्रज्ञावान और अग्रगामी बनाते हैं। यह भी सिखाते हैं कि दृष्टि के विस्तार में हम एक हैं।
स्वामी जी के अनुसार हमें अपनी मानवीय उदारता को और विस्तार देना होगा, ताकि विस्तृत दृष्टिकोण हमारी थाती रहे। निरर्थकता में सार्थकता का रोपण ऐसे ही हो सकता है। स्वीकृत मूल्यों का विस्थापन और विध्वंस चिंतनीय है। विश्व को बहुकेंद्रिक रूप में देखना, देखने की व्यापक, पूर्ण और समग्र प्रक्रिया है। समग्रता के लिए प्रयत्नशील हर घटक राष्ट्रीयता का कारक होता है। जीवन की प्रांजलता, प्रखरता और प्रवाह को निरंतर क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है। वैचारिक और कार्मिक क्रियाशीलता ही जीवन की प्रांजलता के प्राणतत्व हैं। जीवन का उत्कर्ष इसी निरंतरता में है। भारतीय संस्कृति के मूल में समन्वयात्मकता प्रमुख है। सब को साथ देखना ही हमारा सही देखना होगा। अँधेरों की चेतावनी और उनकी साख के बावजूद हमें सामाजिक न्याय चेतना को आंदोलित रखना होगा। खण्ड के पीछे अख्ण्ड के लिये सत्य में रत रहना होगा। सांस्कृतिक संरचना में प्रेम, करुणा और सहिष्णुता को निरंतर बुनते हुए इसे अपना सनातन सत्य बनाना होगा।
शिक्षा का विवेकानंद दर्शन उनके सामान्य दर्शन की एक शाखा है। उनका मानना था कि मनुष्य जन्म के समय पूर्ण होता है। अतः शिक्षा पहले से हीआदमी में पूर्णता की अभिव्यक्ति है। पूर्णता मनुष्य में पहले से ही निहित है और शिक्षा उसी की अभिव्यक्ति है। सभी पूर्णता प्राप्त करने के हक़दार हैं। स्वामी विवेकानंद का शिक्षा दर्शन वेदांतिक दर्शन का प्रतिबिंब है। उनके अनुसार मनुष्य के आन्तरिक विकास का सर्वोत्तम साधन शिक्षा है। वे कहते थे कि शिक्षा और सभी प्रशिक्षण का अंतिम उद्देश्य मनुष्य बनाना होना चाहिए। स्वामी जी के अनुसार भारत को एक महान राष्ट्र बनने के लिए केवल एक ही काम करने की आवश्यकता है, और वह है—समन्वय। वे कहते थे कि:
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जब तक जीना, तब तक सीखना, अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।
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हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए ध्यान रखें कि आप क्या सोचते हैं।
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यह कभी मत कहों कि ‘मैं नहीं कर सकता’, क्योंकि आप अनंत हैं।
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जब तक तुम अपने आप में विश्वास नहीं करोगे, तब तक भगवान में विश्वास नहीं कर सकते।
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उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक अपना लक्ष्य प्राप्त ना कर सको।
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हम जितना बाहर आते हैं और जितना दूसरों का भला करते हैं, हमारा दिल उतना ही शुद्ध होता हैं और उसमें उतना ही भगवान का निवास होगा।
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जब एक सोच दिमाग़ में आती हैं तो वह मानसिक और शारीरिक स्थिति में तब्दील हो जाती है।
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संसार एक बहुत बड़ी व्यायामशाला हैं जहाँ हम ख़ुद को शक्तिशाली बनाने आते हैं।
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सच हज़ारों तरीक़े से कहा जा सकता है तब भी उसका हर एक रूप सच ही हैं।
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जिस वक़्त मुझे यह महसूस हुआ कि भगवान शरीर रूपी मंदिर में रहते हैं, उस पल से मैं हर एक व्यक्ति के सामने खड़े हो कर उनकी पूजा करता हूँ। उस पल से मैं सारी बंदिशों से मुक्त हो गया। सभी चीज़ें जो बाँधती हैं वो ख़त्म हो गई, और मैं स्वतंत्र हो गया।
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बाहरी स्वभाव आतंरिक स्वभाव का बड़ा रूप हैं।
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जैसे अलग-अलग धाराएँ अलग-अलग जगह से आती हैं पर सभी एक सागर में मिल जाती हैं, उसी तरह भिन्न-भिन्न विचारों के लोग भले सही हो या ग़लत सभी भगवान के पास जाते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानंद का जीवन उनका देखा हुआ एक उदात्त स्वप्न है। उनके विचार और कार्य एक तरह से उनके जीवन के अनुवाद जैसा है। उनका एक-एक शब्द एक नए भारत के इंतज़ार में गढ़ा हुआ सा है। वे चाहते थे कि सबकुछ छोड़ने के बाद भी हमारे अंदर करुणा, सहिष्णुता और प्रेम बचा रहे। फ़क़ीरी राह पर वे एक जुनून के साथ निकले थे। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में हमारी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना की जड़े हैं। उनकी संवेदना का सम्बन्ध मानवीय करुणा और जन जागरण से है। स्वामी विवेकानंद मनुष्यता की एक शाश्वत उम्मीद बनकर हमेशा अपनी प्रासंगिकता बनाए रखेंगे। स्वामी जी हमारी शाश्वत सनातन परंपरा का पुनर्पाठ करने वाले पुरोधा हैं। आवश्यकता इस बात की है कि उनके मूल स्वरूप पर पड़े आवरण को हटाकर अपनी परंपरा, संस्कृति एवं आध्यात्मिक उदात्तता के आलोक में उन्हें देखा और समझा जाय।
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