भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी : शताब्दी वर्ष के बहाने
समीक्षा | पुस्तक चर्चा डॉ. मनीष कुमार मिश्रा1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी के जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा वर्ष 2021 में एक महत्वपूर्ण पुस्तक का प्रकाशन हुआ। अँग्रेज़ी में प्रकाशित इस पुस्तक का शीर्षक है "Pandit Bhimsen Joshi : Celebrating his Centenary (A Journey of relentless riyaaz, devotion and pathbreaking music)" इस पुस्तक की लेखिका हैं डॉ. कस्तूरी पायगुड़े राणे। आप ललित कला केंद्र, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय एवं FLAME युनिवर्सिटी, पुणे में संगीत की प्राध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं। आप एक जानीमानी शास्त्रीय गायिका हैं। पद्मश्री किरण सेठ द्वारा स्थापित प्रतिष्ठित संस्था SPIC MACAY से भी आप जुडी हुई हैं।
एक संगीत साधिका के रूप में लेखिका कस्तूरी पायगुड़े राणे पंडित भीमसेन जोशी से अपने छात्र जीवन से ही प्रभावित थीं। एक कलाकार, स्वर साधक, आयोजक, रिकार्डिंग आर्टिस्ट एवं गुरु के रूप में पंडित जोशी लेखिका को प्रभावित करते रहे। सवाई गंधर्व महोत्सव, पुणे में आप पंडित जी को संगीत प्रस्तुति देते हुए सुन चुकी थीं, लेकिन उनसे मिलने का पहला मौक़ा वर्ष 2000 में मिला। अवसर था पुणे के प्रतिष्ठित फ़र्गुसन कालेज में SPIC MACAY के राष्ट्रिय सम्मलेन का। पंडित जी इस सम्मलेन में उपस्थित थे। SPIC MACAY के आयोजनों से पंडित जी वर्ष 1980 से ही जुड़े थे। पद्मश्री किरण सेठ के माध्यम से ही लेखिका को यह अवसर मिला कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी के जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्यः में प्रस्तावित पुस्तक से लेखिका के रूप में जुड़कर अपना महती योगदान दे सकें। कोरोना के भयावह समय में अक्टूबर 2020 के आस-पास लेखिका ने इस पुस्तक का लेखन कार्य शुरू करते हुए जनवरी 2021 तक इसे पूर्ण करने की चुनौती को भी बख़ूबी अंजाम दिया। दरअसल पंडित जी का शताब्दी समारोह 04 फ़रवरी 2021 से शुरू हो रहा था अतः मंत्रालय हर हाल में यह पुस्तक जनवरी 2021 तक प्रकाशित करना चाहता था। अध्ययन, शोध और साक्षात्कार की लंबी शृंखला के बाद अंततः यह पुस्तक निर्धारित समयावधि में पाठकों के बीच आ चुकी है। पुस्तक की लेखिका डॉ. कस्तूरी पायगुड़े राणे अपने अथक श्रम, समर्पण, धैर्य और अकादमिक निष्ठा के लिए बधाई की पात्र हैं।
158 पृष्ठों की यह किताब मुख्य रूप से 17 लघु अध्यायों में विभक्त है। इन अध्यायों के माध्यम से पंडित भीमसेन जोशी की पारिवारिक पृष्ठभूमि, उनका बचपन, संघर्ष, गुरु की तलाश, सतत यात्रायें, तालीम, अवसर, आयोजन, पुरस्कार एवं सम्मान, विदेश यात्रायें, समकालीन संगीत के साथी, संगीत घरानों की परंपरा, कर्नाटक संगीत, शिष्य परंपरा, रेडियो एवं ग्रामोफोन रिकार्डिंग समेत अनेकों पहलुओं को बहुत ही सहज एवं सरल तरीक़े से लेखिका ने प्रस्तुत किया है। पंडित जी से जुड़े कई रोचक संस्मरणों को भी बड़ी बारीक़ी के साथ अध्यायों में बुना गया है। समकालीन संगीत और भारतीय शास्त्रीय संगीत को लेकर पंडित भीमसेन जोशी के विचारों को भी बड़ी प्रमुखता के साथ उद्धृत किया गया है। किताब का कलेवर एवं चित्र छवियाँ बहुत सुंदर हैं। किराना घराने की वंश वृक्षावली एवं संदर्भ ग्रंथों की सूची पुस्तक के अंत में व्यवस्थित तरीक़े से प्रदान की गई है। पंडित जी पर शोध कार्य करने वाले अध्येताओं के लिए ये सूची निश्चित ही महत्वपूर्ण साबित होगी।
पहले अध्याय में पंडित भीमसेन जोशी के बचपन की चर्चा करते हुए लेखिका बताती हैं कि सन् 1922 में गुरुराज जोशी कर्नाटक के धारवाड़ जिले के गड़ग नामक स्थान से बिहार के गया आ जाते हैं, अपनी उच्च शिक्षा के लिए। आप एक शिक्षक, शिक्षाविद् और संस्कृत के विद्वान थे। आपकी धर्म पत्नी धारवाड़ में ही थी। 04 फरवरी 1922 को आप की पत्नी गोदावरीबाई एक पुत्र को जन्म देती हैं। यह दिन ‘रथ सप्तमी’ और ‘सूर्य जयंती’ का था जो हिंदूओं में बड़ा शुभ माना जाता है। माँ-बाप ने इस बालक का नाम ‘भीमसेन’ रखा जो आगे चलकर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का नामचीन गायक बना। 16 भाई-बहनों में आप सबसे बड़े थे। आप का परिवार कन्नड़ देशस्थ माधव ब्राह्मण परिवार था। आप के दादा भीमाचार्य एक प्रसिद्ध कीर्तनकार और समर्पित संगीतज्ञ थे। आप की माँ गोदावरीबाई एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। बालक भीमसेन को सुलाने के लिए वे अपने मधुर कंठ से भगवान के भजन गाती, संभवतः इन्हीं सुरीले भजनों और लोरियों से बालक भीमसेन की संगीत शिक्षा शुरू हुई हो।
दूसरा अध्याय संगीत घरानों की परंपरा से संबंधित है। पंडित जी सात वर्ष की आयु से ही तानपुरा और हारमोनियम बजाने का प्रयास करने लगे थे। बच्चे की संगीत के प्रति रुचि एवम् झुकाव को समझने में पिता को देर न लगी और उन्होंने इसी क्षेत्र में उसे शिक्षित करने का महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया। ख्याल और अभंग की अपनी प्रस्तुतियाँ के लिए पंडित जी आज भी पूरे विश्व के संगीत प्रेमियों में प्रमुखता से याद किये जाते हैं। पंडित जी किराना घराने से शिक्षित हुए थे। भारतीय शास्त्रीय संगीत में घरानों की पुरानी परंपरा है। हर घराने का अपना अनुशासन होता है। स्वर, लय, ताल, बंदिश और रागों की प्रस्तुति का अपना विशिष्ट अंदाज़। खयाल गायकी के लिए जो घराने जाने जाते है उनमें ग्वालियर घराना, आगरा घराना, किराना घराना, जयपुर घराना, भेंडी बाज़ार और पटियाला घराना प्रमुख हैं।
तीसरा अध्याय कर्नाटक संगीत की परंपरा और विरासत को लेकर संक्षेप में ही सही लेकिन संगीत में इस राज्य के योगदान को समर्पित है। बालकृष्ण बुआ इचलकरंजिकर सन् 1880 में महाराष्ट्र के मिरज में आये। आप ग्वालियर खयाल घराने से तालीम हासिल कर चुके थे। उनके मिरज आने के बाद कई गायक दक्षिण की तरफ़ आये, जो कि उन दिनों बाम्बे प्रेसिडेन्सी के नाम से जाना जाता था। मिरज, सांगली, कोल्हापुर, इचलकरंजी, औंध, कुरुंदवाद और भोर जैसी रियासतों का शासन था। ये रियासतें मैसूर रियासत से भी सटे हुई थीं। कई खयाल गायकों को इन रियासतों से पद-प्रतिष्ठा एवम् मान-सम्मान प्राप्त हुआ। इन गायकों में अब्दुल करीम खान (किराना घराने के संस्थापक), नथ्थन खान (आगरा घराना), अलादिया खान (जयपुर, अतरौली खयाल घराना), भास्कर बुआ बखारले आदि उस्तादों ने उत्तर भारत से कई अन्य युवाओं को इस तरफ़ खींचा और स्थानीय संगीत प्रेमियों को भी संगीत कला में पारंगत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। ‘बाम्बे कर्नाटक’ इलाक़े में मैसूर रियासत के माध्यम से शास्त्रीय संगीत लोकप्रिय हुआ। पंचाक्षरी बुआ और नीलकंठ बुआ वे पहले कन्नड़ भाषी थे जिन्होंने हिंदुस्तानी संगीत में नाम कमाया। ये दोनो ही धारवाड़ ज़िले से थे। पंचाक्षरी बुआ से बसवराज राजगुरू ने शिक्षा ली थी। बसवराज ने सवाई गंधर्व से भी संगीत के गुर सीखे। सवाई गंधर्व की शिष्य परंपरा में हुबली से गंगूबाई हंगल और गड़ग से भीमसेन जोशी जैसे प्रमुख नाम हैं। मंजी खान और मुरजी खान से सीखने से पहले मल्लिकार्जुन मंसूर ने नीलकंठ बुआ से संगीत की पहली शिक्षा ली। सितार वादक रहिमत खान और वीणा वादक मोहम्मद खान ने भी अपनी कर्मभूमि इसी धारवाड़ को बनायी।
चौथा अध्याय किराना घराना और भीमसेन जोशी नाम से है। इस अध्याय के अंतर्गत किराना घराने की विशेषताओं का वर्णन किया गया है। किराना गायकी, स्वर, पुकार, सरगम, तान, बंदिश, अलाप, अतिविलंबित लय इत्यादि की चर्चा करते हुए इसकी विशेषताओं को इस अध्याय में स्पष्ट किया गया है। इस घराने के लोकप्रिय राग जैसे ललित, पुरिया, तोड़ी, मुल्तानी, शुद्ध खयाल, कोमल रिशभ असवारी, दरबारी कन्नड़, पटदीप इत्यादी।
अध्याय पाँच में अब्दुल करीम खान के जीवन संघर्ष और संगीत यात्रा की चर्चा की गई है। अब्दुल करीम खान का जन्म सन् 1872 में हुआ। आप के पिता उस्ताद काले खां के पारिवारिक संगीत की जड़ें गोपाल नायक से जुड़ी हुई हैं। जो कि 15 वीं सदी में देवगिरी के राजा रामदेवराय के दरबार में गायक थे। आप ने अपने पिता और चाचा नन्हे खां से संगीत की शिक्षा ली। उत्तर प्रदेश के शामली ज़िले के छोटे से शहर कैराना को छोड़ आप बड़ोदा आये जहाँ एक कवि और संगीतकार के रूप में आप ने नाम कमाया। यहीं रहते हुए उन्होंने ताराबाई माने से दूसरी शादी की। बाद में आप महाराष्ट्र के मिरज में बसे और यहीं आस-पास के रियासतों से कई लोगों को संगीत की शिक्षा दी।
छठवां अध्याय गुरू की तलाश/चयन से संबंधित है। इस अध्याय में सवाई गंधर्व की विस्तार से चर्चा की गई है। फिरोज दस्तुर एवम गंगूबाई हंगल इन्हीं के शिष्य परंपरा से रहे। आप का जन्म सन् 1886 में हुआ। शुरू में आप रामचंद्र कुंडगोलकर सौंशी के नाम से जाने गए। आप का जन्मस्थान कुडगोल, जिला धारवाड कर्नाटक रहा। आप के पिता गणेश सौंशी अब्दुल करीम खां के यहॉं एक क्लर्क थे। आपने बलवंतराव कोल्हटकर से 75 ध्रुपद कंपोजीशन, कुछ तराने और ताल सीखे। कोल्हटकर की मृत्यु 1998 में हुई। आगे चलकर अब्दुल करीम खां ने सन् 1901 से सवाई गंधर्व को तालीम दी। आगे चलकर सवाई गंधर्व ने संगीत के क्षेत्र में बड़ा नाम कमाया। गंधर्व की मृत्यु पुणे में सन् 1952 में 66 वर्ष की उम्र में हुई।
सातवां अध्याय ‘Delving into the Legend’s Early years’ नाम से है। इस अध्याय में पंडित जी की बचपन से ही संगीत के प्रति रुचि और संगीत की धुन में कहीं भी चले जाने की आदतों का रोचक वर्णन है। उनकी इन्हीं आदतों के कारण पिता ने पंडित जी की शर्ट पर ही लिख दिया था "शिक्षक जोशी का लड़का" ताकि लोग उसे उन तक पहुँचा सकें। पंडित जी अक़्सर स्कूल से घर आते हुए एक ग्रामोफोन रिकार्ड की दुकान पर रुककर वहाँ बजनेवाले संगीत को सुनते। यहीं पर बालक जोशी ने नारायणराव व्यास और पंडितराव नागरकर को सुना। कुछ कन्नड़ भाषा के प्रसिद्ध भजन भी उन्होंने यहीं सुनकर सीखे। पिता ने चन्नप्पा कुर्ताकोटी से जोशी की 7 वर्ष की आयु में विधिवत संगीत शिक्षा शुरू करायी। बाद में पंडित श्यामाचार्य से भीमसेन जोशी ने संगीत शिक्षा ली। जब अपनी पसंदीदा दुकान पर भीमसेन जोशी ने अब्दुल करीम खान को सुना तो अधीर हो गए और 11 साल की उम्र में वे घर से गुरु की तलाश में भाग गये।
आठवां अध्याय Off to Gwalior – Pursuit Begins दरअसल पंडित भीमसेन के ग्वालियर पहुँचने की रोमांचक कहानी है। घर से भागकर वे गड़ग से १५० किमी दूर बीजापुर आये। यहाँ कुछ दिन भटकने के बाद उन्होंने ग्वालियर जाने का निर्णय किया। अतः बीजापुर से वे पहले पुणे आये। पुणे से बाम्बे और बाम्बे से दिल्ली। लेकिन बिना टिकट की यात्रा के लिए उन्हें भुसावल में ही उतार दिया गया और स्टेशन मास्टर की हिरासत में दो दिन भूखा-प्यासा रखा गया। बाद में दुबारा बिना टिकट यात्रा न करने की हिदायत के साथ छोड़ा गया। लेकिन वे दुबारा ट्रेन से खंडवा आ गये जहाँ उन्हें फिर दो दिन हिरासत में रखा गया। इसी तरह यात्रा करते हुए तीन महीने बाद वे ग्वालियर पहुँचे। यहाँ उन्होंने हाफिज अली खान से मुलाक़ात की और माधव संगीत विद्यालय में प्रवेश हेतु उनका लिखा पत्र भी प्राप्त किया। हाफिज अली खां को सुनने और उनसे बहुत कुछ सीखने का मौक़ा उन्हें यहीं मिला। पूछवाले ने भीमसेन को खैरागपुर बंगाल के केशव मुकुंद लुखे से संगीत सीखने की सलाह दी। चार महीने उनसे संगीत सीखने के बाद भीमसेन, भीष्मदेव चटर्जी से संगीत सीखने आये जो अब्दुल खां के शिष्य थे। कुछ दिन कलकत्ता रहने के बाद वे वापस दिल्ली और फिर जालंधर आ गये। जालंधर रहते हुए उन्होंने आर्य संगीत विद्यालय में प्रवेश लिया जहाँ ‘ध्रुपद धमार’ सीखा। यहीं ‘सम्मेलन’ में उन्हें विनायकराव पटवर्धन से मिलने का मौक़ा मिला। उनसे खयाल गायकी की बारीक़ियाँ सीखने की जब भीमसेन ने बात की तो उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि– फिर तुम यहाँ क्या कर रहे हो? तुम्हारे अपने पैतृक ज़िले में सवाई गंधर्व हैं जो कुंडगोल गाँव में रहते हैं। यह गाँव गड़ग के बग़ल का गाँव था। इस तरह पंडित भीमसेन वापस अपने घर आये। फिर सन् 1936 में सवाई गंधर्व के मार्गदर्शन में आप की संगीत शिक्षा प्रारंभ हुई।
अध्याय नौ पंडित भीमसेन जोशी की तालीम से संबंधित है। सन् 1936 में सवाई गंधर्व के मार्गदर्शन में जो तालीम शुरू हुई उसने भीमसेन की आवाज को निखार दिया। सन् 1942 में पैरालाइसिस के कारण सवाई गंधर्व आगे नहीं सिखा सके। वहाँ से वापस घर आकर पंडित जी ने छोटे-मोटे आयोजनों में प्रस्तुति देनी शुरू कर दी थी। धीरे-धीरे उन्हें आमंत्रण देश-भर से मिलने लगे। बम्बई, पुणे और नागपुर जैसे शहरों में उनका अक़्सर जाना होने लगा। धीरे-धीरे उन्हें इससे अच्छी धनराशि मिलने लगी। ऑल इंडिया रेडिओ के लखनऊ स्टेशन पर ‘स्टॉफ़ आर्टिस्ट’ के रूप में भी आपकी नियुक्ति हुई। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने और बर्मा की तरफ़ से भारत पर जापान के हमले की आशंका के बीच पिता के कहने पर सन् 1942 के अंत तक घर वापस लौट आये।
पुस्तक का दसवां अध्याय 1946 Year of Fortune पंडित जी के जीवन में बड़े अवसरों की कहानी है। जनवरी 1946 में सवाई गंधर्व के षष्ठिपूर्ति के अवसर पर पुणे के समारोह में उन्हें प्रस्तुति का अवसर मिला। सवाई गंधर्व पैरालाइसेस से धीरे-धीरे ठीक हो रहे थे। अब वे ख़ुद से चल सकते थे और वे इस समारोह में उपस्थित थे। अपने गुरु के सामने यह उनकी पहली प्रस्तुति थी। यह प्रस्तुति कामयाब रही। इसी प्रस्तुति के बाद ही उन्हें बाम्बे, सोलापुर और अहमदनगर समेत कई शहरों के बड़े-बड़े आयोजकों द्वारा उन्हे कार्यक्रम प्रस्तुति का आमंत्रण मिला। अपने जीवनकाल में पंडित जी ने दस हज़ार से अधिक प्रस्तुतियाँ दीं।
अध्याय ग्यारह A New Era of Guardianship में आज़ादी के बाद संगीत और कला क्षेत्र के नये सिरे से संरक्षण, विकास और लोकप्रियता की स्थितियों का वर्णन है। इस समय तक भीमसेन जोशी काफ़ी लोकप्रिय हो गये थे। वे एक तरफ़ परंपरागत शास्त्रीय गायकी को पूरी तरह अपनाते हुए आगे बढ़ रहे तो दूसरी तरफ जनसामान्य की आकांक्षाओं एवम् उनके बीच लोकप्रिय कलारूपों को भी समझते थे। मराठी संगीत प्रेमियों ने तान और खयाल के लिए भीमसेन जोशी पर भरपूर प्रेम लुटाया। ‘तानकरी’ मराठी भाषा भाषियों में हमेशा आदर सम्मान पाते रहे हैं। ‘संतवाणी’ की गायकी ने भी उनकी लोकप्रियता में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
अध्याय बारह Global Tours के माध्यम से पंडित जी की वैश्विक यात्राओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। सन् 1964 के बाद उन्हें विदेशों में सांगीतिक प्रस्तुतियाँ देने का अवसर मिला। विदेशों में अपने कई कार्यक्रम के आयोजन की भी ज़िम्मेदारी पंडित भीमसेन जी ने स्वयं निभाई। पश्चिमी और मिडल ईस्ट के देशों में आप की काफ़ी लोकप्रियता थी। विदेशों में अपनी पहली प्रस्तुति पंडित भीमसेन जी ने 1964 में क़ाबुल में दी थी। इसमें बाद सन् 1978 में आप अमेरिका, कनाडा और इंग्लैंड की यात्रा पर गये। आगे इटली, रोम, दुबई, अबूधाबी, बहरीन इत्यादि देशों की आप ने यात्रायें की।
अध्याय तेरह The changing Scenario में किताब की लेखिका ने नई पीढ़ी की संगीत को लेकर बदलती रुचि को पुणे के परिप्रेक्ष्य में अनुभवों के आधार पर व्याख्यायित करने का प्रयास किया है। इस संदर्भ में वर्ष 2000 में भीमसेन जी से अपनी मुलाक़ात की बातों का ज़िक्र वे करती हैं। पंडित जी बदलावों के प्रति सूक्ष्म नज़र रखते हुए विश्वास व्यक्त करते कि भारतीय शास्त्रीय संगीत समय के साथ अपनी गति और लय को बनाये रखने हमेशा सफल रहेगा। वे ‘अलापी’ को रागों की आत्मा मानते थे। वे मानते थे कि सच्चा कलाकार अपनी प्रस्तुति के पहले स्वयं आनंदित होता है फिर दर्शकों के रिस्पान्स के बारे में सोचता है। वे नये कलाकारों को रियाज़ लगातार करते रहने की सलाह भी देते थे। यह अपनी कला को माँजने के लिए ज़रूरी है ।
अध्याय चौदह Reflection में उन महान संगीत की विभूतियों का ज़िक्र है जिनसे अपने जीवन काल में पंडित जी मिले और उन मुलाक़ातों में इतना ‘प्रभाव’ रहा कि अंर्तमुखी भीमसेन जी इन स्मृतियों का ज़िक्र यदा-कदा करते रहे। इनमें जनबा आमिर खां का ज़िक्र वे विशेष तौर पर करते जिनसे वे राग ‘अभेगी’ सीखने की बात करते हैं। पंडित जी इसे खान साहब का श्रेष्ठतम उपहार मानते थे। इसी तरह केसरबाई केरकर, कुमार गंधर्व, गंगुबाई हंगल, फिरोज दस्तुर, वंसराव देशपांडे जैसे नामों का उल्लेख है। SPICMACY से उनके जुड़ाव की चर्चा भी इस अध्याय में है जो कि सन् 1980 से ही थी।
अध्याय पंद्रह Honours And Awards में पंडित जो मिले पुरस्कारों एवम् सम्मानों की विस्तार से चर्चा की गई है। जिसमें मुख्यरूप से पद्मश्री 1972, संगीत नाटक अकादमी अवार्ड 1975, पद्मभूषण 1985, संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप 1998, तानसेन सम्मान 1998, पद्मविभूषण 1999, देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारतरत्न 2002, महाराष्ट्र भूषण 2005 समेत अनेकों अन्य पुरस्कारों की चर्चा है। इनके अतिरिक्त पुणे विश्वविद्यालय में भीमसेन जोशी चेअर एवं सवाई गंधर्व फेस्टिवल की भी विस्तार से चर्चा की गई है।
अध्याय सोलह Role as Guru & his musical excellence में पंडित जी का एक गुरु के रूप में चित्रण है। पंडित जी अपनी सांगीतिक प्रस्तुतियों के लिए लगातार यात्रा पर रहते थे, इस कारण अधिक शिष्यों को नहीं सिखा सके। लेकिन वे अपने शिष्यों को लगातार प्रोत्साहित करते थे। जिन कार्यक्रमों में पंडित जी जाते उनमें अपने उपस्थित शिष्यों को भी प्रस्तुति देने के लिए प्रेरित करते। माधव गुड़ी, नारायण देशपांडे, श्रीकांत देशपांडे, रामकृष्ण पटवर्धन आप के प्रमुख शिष्य रहे। पंडित जी ने हमेशा नवाचारों का समर्थन किया।
अध्याय सत्रह Pandit Joshi : life well lived इस किताब का अंतिम अध्याय है। इस अध्याय में पंडित जी के पारिवारिक जीवन की विस्तार से चर्चा है। पंडित जी के विवाह और पुत्रों से संबंधित जानकारी भी इसी अध्याय में है। पंडित जी का पहला विवाह सन् 1944 में सुनंदा हुन्गुंड से हुआ था जिनसे आप को दो लड़के और दो लड़कियाँ थीं। औरंगाबाद की वत्सला धोन्डोपंत मुधोलकर से सन् 1951 में पंडित जी ने दूसरा विवाह किया। आप दोनों संगीत नाटकों में सहकलाकार के रूप में कार्य कर चुके थे। ‘भाग्यश्री’ नाटक ऐसा ही एक नाटक था।
समग्रतः कहा जा सकता है कि भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी के जन्म शताब्दी वर्ष के बहाने लेखिका ने अपनी श्रद्धांजलि इस अमूल्य अकादमिक धरोहर के रूप में प्रस्तुत की है। नम प्रस्तरों से फूटते और फिर अंखुआते पंडित भीमसेन जोशी के जीवन की जद्दोजहद को आनेवाली पीढ़ियाँ प्रेरणा के रूप में स्वीकार कर सकती हैं। पंडित भीमसेन जोशी का जीवन आधे मन से किया गया कोई समझौता नहीं अपितु अपने सपनों के लिए प्राणपन से लड़ने और डटॆ रहने की एक साहसिक यात्रा है। पंडित भीमसेन जोशी का जीवन विश्वास से भरा हुआ एक जादुई आलिंगन है। उन्होंने अपनी सारी कमियों, सारे अँधेरों को अपने अंदर घोलकर रोशनी के तिलिस्म में बदल दिया था। मानवीय संवेदनाओं का सूत पंडित जी ने संगीत की स्वर लहरियों में खोज लिया था। उनका संगीत मनुष्यता का बहुवचनवाद है, जिसने एक भाव से सभी को गले लगाया। यही भारतीयता की आत्मा भी है। पंडित भीमसेन जोशी का जीवन अपने सपनों के लिए आवारा हो जाने की दास्तान है, लेकिन इस आवारगी में एक अनुशासन, एक सलीक़ा था। इस आवारगी में लौटती उम्मीदों के साथ अनुभवों का आनंद, करुणा का उभार और हर मुसीबत को बौना साबित करने की ख़ुशी थी। इस पुस्तक की लेखिका डॉ. कस्तूरी पायगुड़े राणे को इस अनुपम कृति के लिए बधाई।
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
प्राध्यापक, हिंदी विभाग
के.एम. अग्रवाल महाविद्यालय
कल्याण-पश्चिम, महाराष्ट्र
मो- 9082556682
manishmuntazir@gmail.com
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