मैंने कुछ गालियाँ सीखी हैं
काव्य साहित्य | कविता डॉ. मनीष कुमार मिश्रा23 Jan 2016
मैंने पूछा –
इन दिनों नया क्या सीख रही हो
उसने कहा-
पता है
मैंने कुछ गालियाँ सीखी हैं
यहाँ की प्रादेशिक भाषा में
मैंने कहा –
तुम्हें गालियों की क्या ज़रूरत पड़ गयी
उसने कहा –
यहाँ अब देश नहीं
प्रादेशिकता महत्वपूर्ण होने लगी है
प्रादेशिक भाषा में गाली देने से ही
हम अपने सम्मान की रक्षा कर पाते हैं
पराये नहीं अपने समझे जाते हैं
इस देश के कई प्रदेशों में
आत्म-सम्मान से जीने के लिए
अब गालियाँ ज़रूरी हैं।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
साहित्यिक आलेख
कविता
- आज अचानक हुई बारिश में
- आजकल इन पहाड़ों के रास्ते
- आठ मार्च, विश्व महिला दिवस मनाते हुए
- इन पहाड़ों मेँ आकर
- इन रास्तों का अकेलापन
- इस महामारी में
- उतरे हुए रंग की तरह उदास
- उस ख़्वाब के जैसा
- उसने कहा
- एक वैसी ही लड़की
- काश तुम मिलती तो बताता
- चाँदनी पीते हुए
- चाय का कप
- जब कोई किसी को याद करता है
- जीवन के तीस बसंत के बाद
- जो भूलती ही नहीं
- ताशकंद
- ताशकंद शहर
- तुमसे बात करना
- दीपावली – हर देहरी, हर द्वार
- नए साल से कह दो कि
- निषेध के व्याकरण
- नेल पालिश
- बनारस 01 - बनारस के घाट
- बनारस 02 - बनारस साधारण तरीके का असाधारण शहर
- बनारस 03 - यह जो बनारस है
- बनारस 04 - काशी में शिव संग
- ब्रूउट्स यू टू
- मैंने कुछ गालियाँ सीखी हैं
- मोबाईल
- युद्ध में
- वह सारा उजाला
- वो मौसम
- शायद किसी दिन
- शास्त्री कोचासी, ताशकंद
- शिकायत सब से है लेकिन
- हम अगर कोई भाषा हो पाते
- हर घर तिरंगा
- हिंदी दिवस मनाने का भाव
सजल
नज़्म
कार्यक्रम रिपोर्ट
ग़ज़ल
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
सांस्कृतिक आलेख
सिनेमा और साहित्य
कहानी
शोध निबन्ध
सामाजिक आलेख
कविता - क्षणिका
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं