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मालेगांव सिनेमा : ‘सामुदायिक सहयोग’ और ‘स्थानीयता की उत्सवधर्मिता’

आज हम जिस कठिन और विवादास्पद समय से जूझ रहे हैं, ऐसे समय को ‘स्थानीय सिनेमा’ किसी भी मुख्यधारा के व्यावसायिक सिनेमा से अधिक बेहतर तरीक़े से सिनेमा के पर्दे पर ला रहा है। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं में जिस तरह की अनैतिकता, भ्रष्टाचार और अमानवीयता पनप चुकी है, उससे टकराना उसे चुनौती देना, ख़ुद बहुत बड़ी चुनौती है। औरतों, बच्चों, दलितों एवम्‌ हाशिये के समाज और उनके संसाधनों का दोहन आज एक गंभीर वैश्विक समस्या है। सरकार या कॉरपरेट घराने जिन फ़िल्मों को आर्थिक रूप से संयोजित करते हैं, वे उनकी निर्माण प्रक्रिया एवम्‌ विषय को भी गहराई से प्रभावित करते हैं। लेकिन जहाँ इनकी पूँजी का दबाव नहीं है अर्थात जहाँ व्यक्तिगत संसाधनों से पूँजी की व्यवस्था की जा रही है, वहाँ यह सरकारी दबाव काम नहीं करता।

स्थानीय सिनेमा के निर्माण में एक चुनौती यह भी है कि जो क्षेत्रीय या राष्ट्रीय सिनेमा अपने समय का सफल सिनेमा है,उसके मुक़ाबले उन्हें कुछ नया प्रस्तुत करना होता है। जबकि उस क्षेत्रीय या राष्ट्रीय सिनेमा की तुलना में स्थानीय सिनेमा से जुड़े लोगों के पास पूँजी और संसाधनों का अभाव रहता है। दोनों की तुलना ही नहीं हो सकती। ऐसे में अपने सीमित दायरे और संसाधनों के साथ कुछ ऐसा बनाना जिसे स्थानीय लोग मुख्यधारा के सिनेमा की अपेक्षा अधिक पसंद करें, यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण है।

‘मालेगाँव का सुपरमैन’ इस तरह की एक असाधारण फ़िल्म साबित हुई, जिसने पूरे विश्व के फ़िल्म निर्माताओं व कलाकारों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा। इस फ़िल्म ने साबित कर दिया कि स्थानीय सिनेमा भी ‘रेडकॉरपेट’ तक पहुँच सकता है और उसी तरह प्रशंसा व सम्मान पा सकता है जैसे कि मुख्यधारा के सिनेमा को मिलता है। स्थानीय रंगों में रँगा कोई सिनेमा जब राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याती बटोरता है तो यह एक बड़ा ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण अवसर होता है उस सिनेमा से जुड़े लोगों के लिए। प्रतीकात्मक एवम्‌ व्याख्यात्मक सौंदर्यबोध की दृष्टि से भी स्थानीय सिनेमा के अध्ययन एवम्‌ विवेचन की पर्याप्त संभावनायें हैं। 

‘चल-चित्र संस्कृति’ का प्रभाव हमारे जीवन में चाहे-अनचाहे बहुत प्रबल है। यह हमारी कल्पनाशीता को तो प्रभावित करता ही है; साथ ही साथ किसी बात के ग़लत या सही होने की बहस या रायशुमारी में हमारे प्रतिनिधित्व को बल भी प्रदान करता है। ख़ुद को और दूसरों को देखने के एक ख़ास दृष्टिकोण को विकसित करने में ‘चल चित्र संस्कृति’ महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। यह इस संस्कृति का ही प्रभाव है कि हम फ़िल्मों की तर्ज़ पर ख़ुद को या समाज को बदलने में लग जाते हैं। इस ‘फ़िल्मी कला’ ने एक ‘वैश्विक भाषा’ के निर्माण में भी अहम भूमिका निभायी है। फ़िल्म किसी भी भाषा में बनी हो, अर्थात फ़िल्म के संवाद की भाषा कोई भी हो लेकिन फ़िल्म को देखकर दर्शक यह समझ जाता है कि फ़िल्म किस संदर्भ में है और क्या कहना चाहती है। ‘कैमरे की भाषा’ का यह जादू है कि वो अपने ख़ास अंदाज़ में संवाद कर लेती है। वहाँ किसी भाषा विशेष की कोई बहुत बड़ी भूमिका नहीं रह जाती। वैसे भी जब आप ‘फ़िल्मों की भाषा’ के बारे में सोचते हैं तो जो बोली जाने वाली भाषा है या संवाद की भाषा है, वह उस भाषा का एक अंग भर हो जाती है। 

फ़िल्म की समग्र भाषा में हाव-भाव, संकेत, तकनीक, संगीत, दृश्यांकन इत्यादि की भी सहभागिता होती है। ये सब फ़िल्म की भाषा का ही अंग होते हैं।

हमारे वर्तमान जीवन के यथार्थ में जिन छबियों का महत्वपूर्ण योगदान है उनमें सिनेमा भी एक है। इतना ही नहीं अपितु इस यथार्थ के निर्माण में एक घटक के रूप् में भी ‘चलचित्र संस्कृति’ की अपनी ख़ास उपस्थिति एवम्‌ प्रभाव है। किसी भी समाज की संस्कृति में ’प्रतीकों’ का अपना महत्त्व है। प्रतीकों की सार्वभौमिक उपस्थिति यह विश्वास दिलाती है कि हम अपनी ही दुनिया का अंश हैं। इन प्रतीकों की व्याख्या अलग हो सकती है लेकिन इनकी उपस्थिति मानवजाति को विश्वास से ज़रूर भरती रही है। ‘चल चित्र संस्कृति’ ने इस ‘प्रतिकात्मकता’ के विश्वास और इसकी सार्वभौमिकता को बल प्रदान किया। यह अपने आप में पूरे मानव समाज के लिए बहुत बड़ी चीज़ है। इन प्रतीकों पर केन्द्रित प्रतिक्रिया, अर्थ और मूल्यों से जुड़ी तमाम व्याख्याओं में कुछ ऐसा होता है जो सिनेमा को पर्दे से निकालकर मानव जीवन की गंभीर विवेचनाओं का केन्द्र बना देती हैं। यह इस सिनेमा की बहुत बड़ी शक्ति है।

इसी बात को अगर मालेगाँव सिनेमा के संदर्भ में जोड़ें तो हम पायेंगे कि पश्चिम के सुपरमैन जैसे उत्तम और ताक़तवर प्रतीक चरित्र को हवाई चप्पल और नाड़े वाली चड्डी पहनाकर जिस मालेगाँव के सुपरमैन की कल्पना को साकार किया गया है वह विलक्षण है। इस फ़िल्म के निर्देशक नासिर का यह साफ़ मानना है कि पॉवर लूम में 12-16 घंटे काम करनेवाला मालेगाँव का सुपरमैन उस तरह से नहीं हो सकता था।

स्थानांतरण ने फ़िल्मों के संदर्भ में कई सिद्धांतों को दिया है। मालेगाँव की 80 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है, जो देश के कई भागों से आकर यहाँ बसे हैं। इन सब लोगों की भाषा; लहज़ा इत्यादि ने आस-पास की बोली भाषाओं से संलयन के फलस्वरूप अपनी एक अलग बोली विकसित की। इस मालेगाँव की बोली की अपनी परंपरा बनी हुई है। इसकी लोक प्रियता अपने क्षेत्र विशेष में है। यह समुदाय "मालेगाँव का सिनेमा" को लेकर प्रयोगधर्मी भी रहा है। और इनके कुछ प्रयोग बहुत सराहनीय रहे हैं। 

अपनी फ़िल्मों के लिए नायिकायें वे आस-पास के ज़िलों से चुनते या तलाशते हैं। ऐसी नायिकाओं को प्रतिदिन हज़ार से पन्द्रह सौ तक का मेहनताना भी इन्हें देना पड़ता था। साथ ही साथ इन महिला नायिकाओं को इस बात का भरोसा भी दिलाना पड़ता कि उन्हें फ़िल्म में किसी ‘आपत्तिजनक’ दृश्य को नहीं फ़िल्माना है। कई बार तो दृश्य के आधार पर भी नायिकायें अपना मेहतनाता सुनिश्चित करवाती थीं। इस बात  की चर्चा नासिर ने ‘मालेगाँव का सुपरमैन’ के संदर्भ में भी की है। ग़रीब और अशिक्षित मुस्लिम परिवारों में ‘स्त्रियों’ को लेकर कई तरह की बंदिशे हैं। मालेगाँव की ग़रीब बस्तियों में रहनेवाला यह निम्न मध्यमवर्गीय मुस्लिम समाज कई तरह की जड़ताओं से जकड़ा हुआ है। कई तरह की बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। यहाँ की हास्य प्रधान फ़िल्मों में इसके कई उदाहरण मिल जाते हैं। 

समाज के ख़िलाफ़ जाकर कोई बात सिनेमा के माध्यम से कहना इस तरह के ‘स्थानीय सिनेमा’ के लिए बहुत कठिन है। शायद यही कारण है कि मालेगाँव की फ़िल्में पैरोडी केन्द्रित हास्य प्रधान फ़िल्में होती हैं। जिनका मूल उद्देश्य मात्र ‘सस्ता मनोरंजन’ है। वे विवादो में नहीं पड़ना चाहते। लेकिन इस मनोरंजन के साथ ही वे अपनी ‘पहचान’ भी दर्ज करते हुए अपने लिए नई पहचान तलाशने की कोशिश भी करते रहते हैं।

समाज और स्त्री का संबंध भारतीय परिप्रेक्ष्य में थोड़ा जटिल रहा है। एक तरफ़ तो सैद्धांतिक एवम्‌ मान्यताओं के अनुरूप वाली विचारधारा है जो स्त्री को देवी मानती है। उसे बराबरी का स्थान देती है। उसके अधिकारों की न केवल पैरवी करती है अपितु उसे पूजने तक कि वकालत करते हुए दिखायी पड़ती है। दूसरी तरफ़ वह ज़मीनी हक़ीक़त है जहाँ स्त्रियों के शोषण की लंबी कहानी है। संवेदनाओं के सामाजिक भौतिक धरातल पर ‘स्त्री की छवि’ एवम्‌ समालीन संदर्भो में उसकी स्थानीय सिनेमा के संदर्भ में हम विवेचना करें तो कई पर्ते खुलेंगी।

मुख्य भारतीय सिनेमा या बॉलीवुड भले स्त्री की वर्तमान छवि को लेकर काफ़ी आगे निकल गया हो लेकिन स्त्री उसी रूप में स्थानीय सिनेमा में बहुत कम चित्रित हो पायी है। अलग-अलग समुदायों एवम्‌ समाजों का स्त्री के संदर्भ में दृष्टिकोण अभी भी अलग है। मालेगाँव का सिनेमा उसी का एक उदाहरण है। जहाँ स्त्रियों के फ़िल्मों में काम करने पर भी नज़र टेढ़ी हो जाती है। यह वही समय है जब मुख्य भारतीय सिनेमा स्त्री केन्द्रित किरदारों के साथ स्त्री के अधिकारों एवम्‌ स्वतंत्रता को लेकर बड़ी बहसों का प्रतिनिधत्व कर रही है।

सरकारी आँकड़े यह बताते हैं कि अस्सी के दशक के अंतिम दिनों में भारत में लगभग 70 लाख (7 मिलियन) से अधिक टेलीविजन सेट पूरे देश के अंदर लगे हुए थे।

टेलीविजन सेट के इस विस्तार और वीसीआर की तकनीक ने सिनेमा को भी अधिक लोकप्रिय बनाया। वीडियो कैसेट, टीवी और वीसीआर के माध्यम से कहीं भी फ़िल्म देखना आसान हो गया। इस तरह ‘सिनेमाघरों’ की जगह ‘घर-घर में सिनेमा’ देखने की नई स्थितियाँ बनी। ये बहुत लोकप्रिय भी हुई। ‘विडियो पार्लर’ और ‘विडियो लाइब्रेरी’ जैसे स्थल लोकप्रिय होने लगे। इन वीडियो पार्लरों से सरकार बाक़ायदा नियमित रूप से अपना कर भी वसूलती थी।

इन विडियो पार्लर के माध्यम से ‘पायरेटेड वीडियों’ द्वारा फ़िल्मों को दिखाये जाने से निर्माताओं को बड़ा नुक़सान भी हो रहा था। ऐसे कई मामले सामने भी आये जहाँ कई वीडियो पार्लर के ख़िलाफ़ इसलिए क़ानूनी कार्यवाही हुई क्योंकि वे ‘पायरेटेड वीडियो’ द्वारा फ़िल्म दिखाते हुए पकड़े गये थे।

इन वीडियो पार्लरों द्वारा ‘एडल्ट फ़िल्मों’ को दिखाने की संस्कृति भी तेज़ी से फैल रही थी जो कि गैरक़ानूनी थी। पुलिस कई बार वीडियो पार्लर पर छापे मारकर इस तरह फ़िल्म देखनेवाले दर्शकों एवम्‌ पार्लर मालिकों को पकड़ती थी और उन पर भारतीय क़ानून की इससे संबंधित धाराओं एवं प्रावधानों के आधार पर कड़क कार्यवाही भी करती थी।

देश में वीडियो तकनीक से जुड़ी सामग्री पर लगभग 300 प्रतिशत कर-भार था। परिणाम स्वरूप इस तकनीक से जुड़ी सामग्री की कालाबाज़ारी तेज़ी से होने लगी। इन सामानों को ‘चोर बाज़ार’ से आसानी से ख़रीदा जा सकता था।

मध्यमवर्गीय ग्राहकों के लिए बहुत महँगे सामानों को ख़रीदने की क्रय क्षमता नहीं थी। यही कारण रहा कि स्मगलिंग और काला बाज़ारी, चोरी इत्यादी के माध्यम से इलेक्ट्रॉनिक सामानों का एक बड़ा बाज़ार देश के कई इलाक़ों में फलने-फूलने लगे। इस तरह वीसीआर और वीडियो कैसेट के माध्यम से लगातार पायरेटेड फ़िल्मों का बाज़ार बढ़ता रहा। सरकार चाहकर भी कोई ठोस क़दम इन्हें रोकने का नहीं उठा पायी। विडीयो पार्लर भी ‘प्रोनोग्राफी’ व ‘पायरेटेड वीडियो’ की फ़िल्मों का बहुत बड़ा एवं विस्तृत अड्डा बन गये।

यह वह समय था जब भारतीय फ़िल्म उद्योग घाटे का सामना कर रहा था लेकिन पायरेटेड फ़िल्मों का जाल अपना मुनाफ़ा बढ़ा रहा था।

बड़े बैनर की फ़िल्में तो पूरे देश में एक साथ रिलीज़ भी हो जाती थीं लेकिन छोटे बजट की फ़िल्मों के लिए यह संभव नहीं था। ऊपर से फ़िल्में ‘पायरेसी’ का शिकार हो जाती थीं। इससे फ़िल्म निर्माताओं को भी नुक़सान हो रहा था और सरकार को भी। ‘पायरेसी’ का व्यापार अनैतिक व्यापार था। किसी अन्य की ‘मौलिकता’ का हनन था। लेकिन यह बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि देश में यह व्यवसाय फलते- फूलते हुए लगातार लोकप्रिय बना रहा।

यह तो निश्चित था कि इन ‘वीडिओ पार्लर’ ने ‘सिनेमा घरों’ का एक सस्ता विकल्प ज़रूर दिया लेकिन यह भी सच था कि दोनों जगहों पर फ़िल्में देखने वाला वर्ग अलग-अलग था।

आर्थिक रूप से विपन्न और निम्न मध्यमवर्गीय लोगों, कम उम्र के बच्चों इत्यादि में तो सस्ते मनोरंजन केन्द्र के रूप में ‘वीडियो पार्लर’ लोकप्रिय हुए। लेकिन समाज का संपन्न और सुविधापूर्ण तरीक़े से 70 एमएम पर्दे पर फ़िल्मों को देखनेवाला वर्ग ‘सिनेमाघरों’ से जुड़ा रहा। हमारी फ़िल्मों का नुक़सान तो हुआ लेकिन इसे एक समानांतर सस्ती व्यवथा के विकास और विस्तार के रूप में देखना अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से अधिक उचित होगा।

भारत में आर्थिक उदारीकरण की नीति के फलस्वरूप कई क्षेत्रों में क्रांतिकारी बदलाव हुए। सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी आमूल-चूल परिवर्तन हुआ। मनोरंजन के कई केन्द्र विकसित हुए। क़ानूनी–गैर क़ानूनी तरीक़ों से मनोरंजन का उद्योग फल-फूल रहा था। ‘वीडियो पार्लर’ और ‘पायरेसी’ की दुनियाँ के बीच स्थानीय केबल टीवी, फ़िल्मों और संगीत के कैसटों का नया बाज़ार तेज़ी से उभरने लगा। देश के वो इलाक़े जो फ़िल्म निर्माण के बड़े क्षेत्र नहीं थे वहाँ पर एक नया बाज़ार उभरने लगा। पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, मणिपुर इत्यादी ऐसे ही नये इलाक़े थे। छोटे-छोटे स्थानीय कलाकार और निर्माता स्थानीय भाषा में गीत-संगीत के कैसेट, हास्य के वीडियो और एक-दो घंटे की फ़िल्में बनाकर उन्हें अपने इलाक़ों में बेचकर मुनाफ़ा कमाने लगे। मुंबई जैसे पहले से स्थापित केंद्रों पर ये रिकार्डिंग जैसे कार्य करके उसे अपने इलाक़ों में बेचते थे। 

बड़े शहरों के आस-पास ऐसे कई इलाक़े इस तरह की कैसेट या छोटी फ़िल्मों के लिए मशहूर हुए। ऐसे ही एक छोटे शहर के रूप में मालेगाँव भी प्रसिद्ध हो रहा था , जो मुंबई से लगभग 280 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। अपने पॉवरलूमों के लिए भी मालेगाँव हमेशा से जाना गया। आगे चलकर यही मालेगाँव हॉलीवुड और बॉलीवुड की कामयाब फ़िल्मों की पैरोडी स्थानीय भाषा में करके बनायी गयी अपनी फ़िल्मों के लिए भी जाना गया।  मालेगाँव के फ़िल्म प्रेमी दर्शक भी स्थानीयता के कारण इन फ़िल्मों को पसंद करते हैं। ऐसी फ़िल्मों की कामयाबी और लोकप्रियता में आम लोगों की दर्शकों के रूप में रुचि एवं उत्साह का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रहा है।

इसी तर्ज़ पर मालेगाँव की फ़िल्में ‘री सायकल’ होकर अपनी नई और अनोखी छबि के साथ-साथ सामने आ रहीं थी। आशुतोष गोवारिकर द्वारा 2001 में निर्देशित फ़िल्म ‘लगान’ ऑस्कर में नामिनेट होने की वजह से काफ़ी चर्चा में रही। इस सफल फ़िल्म को मालेगाँव सिनेमा ने ‘मालेगाँव की लगान’ नाम से बाज़ार में उतारा।

अब इस फ़िल्म ने अँग्रेजों द्वारा भारतीयों के शोषण इत्यादि को अपना विषय न बनाकर मालेगाँव की जो स्थानीय समस्या है उसे केन्द्र में रखा। मालेगाँव में जिस तरह की नागरिक अपेक्षायें अपने नगरपालिका से है, उसी को इस फ़िल्म में सामने रखा गया है। ‘नल में पानी न आना’ ही उनकी बहुत बड़ी समस्या है। इसलिए ‘लगान’ फ़िल्म के लोकप्रिय "घनन, घनन घिर घिर आये बदरा. . ." नामक गीत की जगह उसी संगीत पर वे अपना गीत प्रस्तुत करते हैं। जिसके बोल हैं, "पानी तो टपका दे, बदबू आये बदबू आये, कहे कपड़े बदल बदल . . ." इस गीत में समस्या का प्रतिनिधित्व भी है और हास्य का पुट भी। कहने को यह "पायरेटेड’ गीत/फ़िल्म है लेकिन इसमें इनकी अपनी एक दृष्टि है जो इन्हें अलग पहचान देती है।

भारत में फ़िल्मों और संगीत के बाज़ार में घरेलू कंपनियों का वर्चस्व रहा। महँगे विदेशी उत्पादों की क्रय शक्ति मध्यम वर्ग में नहीं था और पायरेटेड संस्कृति का नया  विस्तृत भारतीय मीडिया बाज़ार, इस स्थिति में नहीं था कि क़ानूनी तौर पर इन्हें आसानी से नियंत्रित किया जा सके। बहुकेन्द्रित भारतीय बाज़ार का ढाँचा भी इसके नियंत्रण में एक बड़ा रोड़ा था। विदेशी कंपनियों के लिए इस बाज़ार पर कब्ज़ा करना मुश्किल था। मनोरंजन उद्योग का यह बड़ा ही अनौपचारिक ढाँचा विदेशी कंपनियों के लिए बड़ी चुनौती थी।

यह अनौपचारिक घरेलू ढाँचा स्थानीय स्तर पर जो व्यवसाय जिन बुनियादी ढाँचागत व्यवस्थाओं के साथ करता था उनमें वैश्विक-अर्थव्यवस्था और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की कोई हिस्सेदारी किसी भी रूप में बनती ही नहीं थी। विश्व बाज़ार में जो बड़े-बड़े संगठन व्यापार कर रहे थे उन्हें भारत में ऐसा कोई ढाँचा या सहयोगी मिला ही नहीं जिनके साथ वे इस बड़े बाज़ार पर कब्ज़ा करते। मोशन पिक्चर एसोसिशन ऑफ़ अमेरिका (एमपीएअ) और बिजनेस सॉफ़्टवेअर अलायेंन्स (बीएसए) कुछ ऐसे ही बड़े वैश्विक संगठन थे। जब भी कोई विदेशी संगठन "अधिकार प्राप्त" संगठनों को बात-चीत के लिए तलाशता तो उसे क्षेत्रीय निर्माताओं से बात करनी पड़ती जो कि राज्य विशेष में मज़बूती से व्यापार करते थे।

केन्द्रीय स्तर पर समग्र क्षेत्रीय बाज़ार के लिए बात करने की प्रक्रिया विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के कारण अधिक कारगर नहीं थी। ऐसे में "पायरसी" के ख़िलाफ़ क़ानून इत्यादि की कोशिश कतिपय राज्यों के साथ हो सकी लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर नहीं। यद्यपि पश्चिमी देशों की ही तरह भारत में भी मज़बूत न्यायप्रणाली है जो केन्द्र, राज्य सरकारों द्वारा पुलिस इत्यादि की सहायता से व्यवस्थित ढंग से संचालित भी होती है। लेकिन मनोरंजन उद्योग में व्याप्त व्यवस्था के बीच ‘न्याय की गुहार’ अधिक व्यवहारिक नहीं थी।

समग्र भारत में "पायरेटेड" फ़िल्मों का उद्योग एक संगठित अपराध की तरह कार्य कर रहा था जिसमें कई राज्यों के क्षेत्रीय उद्योगपतियों व राजनेताओं की बड़ी हिस्सेदारी थी। कई शहरों में ऐसे बाज़ार उभरने लगे जो इस "पायरेटेड उद्योग" को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभा रहे थे। जैसे कि दिल्ली का "पालिका बाज़ार" और मुंबई का ‘लेमिग्टन रोड’। ऐसे ही अनेकों बाज़ार पूरे देश में लोकप्रिय हो रहे थे। भारत में जो डिजिटल संस्कृति विकसित हो रह ही थी। उसमें इस "पायरेटेड" उद्योग का बहुत बड़ा योगदान रहा। नैतिकता और क़ानूनी नज़रिये से इन पर प्रश्न ज़रूर खड़े हो सकते हैं लेकिन इनके द्वारा जो एक नई संस्कृति के फैलाव में योगदान दिया गया, उसे झुठलाया नहीं जा सकता।

सस्ते चायनीज़ हार्डवेअर की उपलब्धता ने की इस बाज़ार को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई। इस सस्ती और पायरेटड तकनीक उपलब्धता ने सांस्कृतिक सहभागिता, शिक्षा, नवाचार और मनोरंजन इत्यादि के क्षेत्र में बहुत बड़े स्तर पर अपनी अहम भूमिका निभाई। पूरे देश के कई इलाक़ों में इस नई ‘डिजिटल संस्कृति’ का जाल बढ़ता गया। कई छोटे-छोटे ‘उपकेन्द्र’ ऐसे उभरे जो इस तरह की तकनीक के बाज़ार भी थे और उसके उपयोग से एक नये तरह के निर्माण केन्द्र भी। एक बात यह भी समझनी होगी कि भारत में तकनीकी आधुनिकता किसी ‘नये’ तकनीक या नवाचार से नहीं आया, अपितु "रिसायकलिंग तकनीक" ही इसका केन्द्र रहा है। इसी तकनीक ने भारत को ‘सॉफ़्टवेअर जायन्ट" बना दिया।

भारत में कई ऐसे बाज़ार उभरे जो पुराने और पायरेटेड तकनीकी वस्तुओं के थे। जैसे कि दिल्ली का ‘पालिका बाज़ार’ और मुंबई का ‘लेमिनटन रोड’ जिसकी चर्चा हम पहले भी कर चुके हैं। ये एक नई बाज़ार व्यवस्था थी जो तेज़ी से फैल रही थी।

ऐसे ही कुछ अन्य जगहों की सूची बनायी जाय तो दिल्ली का ‘नेहरू पैलेस’ भी एक महत्त्वपूर्ण नाम होगा। यह पूरे एशिया में सेकेन्डहैंड कम्प्युटर के सबसे बड़े मार्केट के रूप में जाना जाता है। यहाँ तकनीक से जुड़ी लगभग हर तरह की दुकानें मिल जायेंगी जो ‘असेम्बलिंग’ से लेकर किसी ख़ास तकनीकी ‘पार्ट’ तक को उचित मूल्य पर ग्राहकों के लिए उपलब्ध करा देती है।

"सड़कों का बाज़ार" किस तरह काम करता है? और कितना बड़ा काम करता है? इसके अध्ययन की स्थिति न भी ज्ञात हो तो भी यह तो निश्चित है कि "पायरेटेड मीडिया बाज़ार" का बहुत बड़ा व्यापार इन सड़कों पर हो जाता है। यह बाज़ार पूरे देश में फैला हुआ है। इनके पास जिस हाल में चीज़ें उपलब्ध होती हैं वे बड़ी से बड़ी मीडिया कंपनी के लिए एक चुनौती ही है। इन सड़कों पर सामान बेचने वाले यह अच्छी तरह जानते हैं कि कौन से समय में, किस स्थान पर क्या बेचना है? अर्थात कौन सी सड़क पर धार्मिक चीज़ें रखनी हैं और कहाँ पोनोग्राफी की सीडी बेचनी है। कहाँ क्षेत्रीय भाषाओं की सीडी अधिक बिकेगी तो कहाँ हिंदी और हॉलीवुड की फ़िल्मों की माँग होगी, वे सब जानते हैं।

कई राज्यों में "पायरेसी" की नैतिकता का प्रश्न हास्यास्पद है। जैसे कि दुकानदार क्षेत्रीय भाषा की फ़िल्मों की पायरेटेड सामग्री नहीं रखते और न ही उसे बेचते हैं। लेकिन अन्य भाषाओं की फ़िल्मों के पायरेटेड सामान रखने में उन्हें कोई बुराई नज़र नहीं आती। क्षेत्रीयता के प्रति ऐसा सम्मान दक्षिण भारतीय राज्यों की सच्चाई है। चेन्नई का ‘बर्मा बाज़ार’ ऐसा ही एक उदाहरण है। और बैंगलोर का ‘नेशनल मार्केट"। देश भर में ऐसे कुछ बाज़ारों की सूची निम्नलिखित है: 

  • नेहरू पैलेस – दिल्ली 

  • गफ़्फ़ार मार्केट – दिल्ली 

  • टैंक रोड – दिल्ली 

  • चाँदनी चौक – दिल्ली 

  • मनीष मार्केट – मुंबई 

  • लेमिंटन रोड – मुंबई 

  • चिनाय ट्रेड सेंटर – हैदराबाद 

  • हांगकांग बाज़ार – हैदराबाद 

  • साउथ बर्मा बाज़ार – चेन्नई 

  • नेशनल मार्केट – बैंगलोर 

  • महात्मा गांधी रोड़ – बैंगलोर 

  • दालमंडी – वाराणसी 

  • चाँदनी चौक – कोलकता 

  • हांगकांग मार्केट – सिलीगुड़ी 

  • बाकरगंज मार्केट – पटना 

  • लक्ष्मण मार्केट – प्रयागराज 

इस तरह के ‘पायरेटेड’ बाज़ार में गोपनीय समूह भाषा का उपयोग होता है। जिसमें शब्दों का विशेष अर्थ होता है जिसे बेचने और ख़रीदने वाला अच्छी तरह से समझते हैं। स्थानीय वीसीडी और विदेशी फ़िल्मों की डीवीडी के लिए अलग-अलग शब्द इस्तमाल होते हैं। ऐसे वी कुछ शब्दों की सूची यहाँ देखिये:

  • माल-पायरेटेड सीडी इत्यादी

  • ब्लू माल-स्थानीय वीसीडी कॉपी

  • सिलवर माल-डीवीडी से कॉपी विदेशी और हिंदी सीडी

  • बाटर का माल-हॉलीवुड की फ़िल्में

  • गरम माल-नई फ़िल्मों की सीडी

  • चिकनी / पटाखा-प्रोनोग्राफी सीडी

सामूहिक अनुभूति ने एक तरह की ‘सामूहिक विचारधारा’ को भी बल प्रदान किया। अपनी भाषा, अपने लोगों और अपने तरीक़े से फ़िल्मों के निर्माण की स्थितियों ने एक स्थानीय पहचान और अस्मिता भाव से लोगों को जोड़ा। यह बड़ा ही महत्वपूर्ण है कि आप अपनी पहचान बनाने की क़वायद में शामिल हैं, अपनी तस्वीर में अपनी पसंद का रंग भरना सुखद रहता है। इस तरह के स्थानीय सिनेमा अपने क्षेत्र विशेष की समस्याओं को बहुत हलके-फुलके तरीक़े से प्रस्तुत करते हैं। अगर हास्य के अलग इनके निर्माण एवम्‌ संवादों का विश्लेषण किया जाये तो यह साफ़ हो जाता है कि अपनी जड़ों से जुड़कर जिस तरह ये समस्याओं को प्रस्तुत करते हैं; उतने सूक्ष्म और व्यापक स्तर पर मुख्य-धारा का सिनेमा भी कभी-कभार ही सामने आता है। यह इन फ़िल्मों की बड़ी शक्ति है। 

मालेगाँव में भी फ़िल्मों को रिलीज़ करने का अपना तरीक़ा है। पहले फ़िल्म के पोस्टर लगते हैं फिर टिकट की बिक्री शुरू होती है। इन फ़िल्मों का बाक़ायदा प्रीमियर भी रखा जाता है। यहाँ पर माली टेलीफ़िल्म अवार्ड फ़ंक्शन भी होता है। जहाँ मालेगाँव में बनी फ़िल्मों के कुछ ‘हिस्से’ दिखाये जाते हैं। यहाँ के लोगों को लगता है कि सरकार को इन्हें प्रोत्साहित करने के लिए क़दम उठाना चाहिए। पायरेसी की परेशानी से अब मालेगाँव की फ़िल्में ख़ुद जूझ रही हैं। सोनी सब चैनल पर "मालेगाँव का चिंटू" दिखाया गया। यह मालेगाँव के लिए बड़ी बात थी। आज मालेगाँव में यह फ़िल्म इंडस्ट्री कई लोगों को रोज़गार दे रही है। मालेगाँव धीरे-धीरे ‘मालीवुड’ के रूप में अपनी पहचान बना रहा है। मालीवुड की फ़िल्में अब वहाँ के मिनी थियेटर तक सीमित नहीं हैं। अब वे इंटरनेट के माध्यम से पूरी दुनिया के दर्शकों के लिए उपलब्ध हैं।

‘स्थानीय सिनेमा’ जब वैश्विक होने लगता है तो उसे अंदर राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक समझ का होना अनिवार्य हो जाता है। क्योंकि इसके अभाव में वे वैश्विक दर्शकों से अपने आप को जोड़ नहीं पायेंगे। भ्रष्टाचार, ग़रीबी, संघर्ष, प्रेम और हास्य कुछ ऐसे भाव हैं जिन्हे पूरी दुनिया समझती है। ऐसे में मालेगाँव सिनेमा को भारत या भारत के बाहर जो दर्शक पसंद करेंगे वे निश्चित तौर पर अपनी परिस्थितियों, परेशानियों इत्यादि के साथ उस फ़िल्म को कहीं न कहीं जोड़कर देखेंगें। इन सब स्थितियों में मालेगाँव सिनेमा अगर सफल रहा तो अकरम जैसे निर्देशकों को अपने यूट्यूब चैनल के दर्शक 10 मिलीयन तक पहुँचाने में कोई दिक़्क़त नहीं होती। लेकिन मालेगाँव के सिनेमा को अपने विषयों में वह मूल भाव बनाये रखना होगा जो सरहदों के पार भी पसंद किया जा सके। बड़े बैनर की फ़िल्में भी सिर्फ़ ‘सह उत्पादन / निर्माण’ और "वैश्विक वितरण" प्रणाली के दम पर ही फ़िल्में लोकप्रिय नहीं बना सकेंगी। उन्हें अपने विषयों पर गंभीरता से काम करना होगा।

प्रवासी फ़िल्मों की कहानियों में हम एक ऐसे समुदाय से जुड़ते हैं जो अपना देश छोड़कर किसी नये देश में बसा है। वहाँ उसे किस तरह की सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक एवम्‌ आर्थिक परेशानियों से जूझना पड़ता है, कहानियाँ इसी के आसपास घूमती हैं। इस तरह बहुसांस्कृतिक परिस्थितियों में जीवन का चित्रण इन कहानियों का मूल होता है। ऐसी फ़िल्में भावुकता प्रधान भी होती हैं। परदेश में अपने देश की याद भारतीय फ़िल्मों का एक हिट फ़ॉर्मूला रहा है। एनआरआई भारतीय परिवारों का अपनी सभ्यता और संस्कृति में रची-बसी बहू की तलाश में इंडिया आने वाली कहानियाँ भी एक समय में ख़ूब चलीं। इस तरह की फ़िल्मों के लिए यह ज़रूरी है कि आप जिन दो परिवेशों या समुदायों को दिखायें उनकी बेहतर जानकारी और अनुभव आप के पास हो। ऐसी फ़िल्मों के निर्माण का ख़र्च अक़्सर बढ़ जाता है। बड़े बजट की फिल्में तो यह ख़र्चा झेल सकती हैं लेकिन छोटे बजट की फ़िल्मों के लिए यह संभव नहीं होता।

ऐसे में छोटे बजट की स्थानीय फ़िल्में बहुत कुछ दर्शकों के विवेक पर छोड़कर आगे बढ़ जाती हैं। उदाहरण के लिए ‘मालेगाँव की लगान’ फ़िल्म ली जा सकती है। इस फ़िल्म में 11 खिलाड़ियों वाली अँग्रेज़ों की टीम के लिए विदेशी कलाकार लाना इनके लिए संभव नहीं था। अतः निर्देशक भारतीय कलाकारों को ही अँग्रेज़ बना देता है और यह बात दर्शकों के विवेक पर छोड़ देता है कि भारतीय दिखने वाले उन कलाकारों को दर्शक विदेशी समझें। कई लोगों को यह बात हास्यास्पद लग सकती है लेकिन जिन परिस्थितियों और आर्थिक दबाव में ये फ़िल्मे बनती हैं, वहाँ इसका कोई बेहतर उपाय भी समझ में नहीं आता।

अपनी परेशानियों को बताते या चित्रित करते हुए ख़ूबी इसी बात में है कि आप उसे दूसरे समूहों, समाजों इत्यादि के संदर्भों से भी जोड़ सकें। शायद वैश्विक स्तर पर सफलता का यह एक कारगर मापदंड हो सकता है सभी फ़िल्मों के लिए। सन्‌ 2000 के बाद हम पाते हैं कि दृश्य कलाओं के माध्यम से ऐसे विषयों को लेकर संवेदनशीलता बढ़ी, जिनके बारे में भारतीय समाज खुलकर बोलने से कतराता था। तकनीकी ज्ञान, इसकी सहज उपलब्धता और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण स्थापित सिनेमा निर्देशकों के अतिरिक्त पूरी एक नई पीढ़ी अपने अनुभवों के आकाश के साथ अपने विचारों एवम्‌ कलात्मक गुणों को अभिव्यक्त कर रहे हैं। देश भर के अनेकों छोटे मंचों से इन्हें प्रोत्साहित भी किया जा रहा है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के आगमन ने इन कलाकारों को एक नया मंच दे दिया।

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
शोध अध्येता
ICSSR IMPRESS प्रोज़ेक्ट, नई दिल्ली

विशेष: Support of ICSSR and MHRD (IMPRESS Scheme) is acknowledged for this study 

संदर्भ सूची: 

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