युद्ध में
काव्य साहित्य | कविता डॉ. मनीष कुमार मिश्रा1 Mar 2022 (अंक: 200, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
युद्ध में
कोई एक
सही या ग़लत नहीं होता
यहाँ
सब सही होता है
या फिर
सब ग़लत।
युद्ध में
जायज़-नाजायज़
मूर्खों का शग़ल है
यहाँ कोई नायक
या कि
प्रतिनायक भी नहीं होता
यहाँ जो “होता“ है
वह इतिहास को
नया मोड़ देता है।
युद्ध का चेहरा
प्रश्न की तरह होता है
जिसके चारों तरफ़
हिंसा का अभियान चलता है
उजड़ते और उखड़ते
युद्धरत लोगों को
अँधेरा साहस और सहारा देता है।
युद्ध में
हस्तक्षेप दर्ज़ होता है
अपाहिज़ विचारों पर
थूक कर
यहाँ चीज़ें अस्पष्ट
तथा रहस्यपूर्ण होती हैं
वर्तमान के विध्वंस के बीच
भविष्य की सम्भावना
यहाँ बनी रहती है।
युद्ध
त्रासदी का महानायक है
जो विज्ञापित मूल्यों पर
सिर्फ़ हँसता है
यह शान्ति के ख़िलाफ़ नहीं पर
उसकी अनुपस्थिति में
उसके होने की
उत्कट लालसा है।
युद्ध में
पुराना दर्द
धीरे धीरे पिघलता है
नया हरा घाव
रात के उतार तक
एक मादक नशे की तरह
सुकून देता है
पर नशा उतरते ही
किसी ख़ाली और उदास शाम की तरह
एक दम चुप और शांत।
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