हम अगर कोई भाषा हो पाते
काव्य साहित्य | कविता डॉ. मनीष कुमार मिश्रा15 Sep 2024 (अंक: 261, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
भाषाओं के इतिहास में
भाषाओं का ही
परिमल, विमल प्रवाह है ।
वह
ख़ुद को माँजती
ख़ुद से ही जूझती
तमाम साँचों को
झुठलाती और तोड़ती है
वह
इस रूप में शुद्ध रही कि
शुद्धताओं के आग्रहों को
धता बताती हुई
बस नदी सी
बहती रही
बिगड़ते हुए बनती रही है
और
बनते हुए बिगड़ती भी है ।
दरअसल वह
कुछ होने न होने से परे
रहती है
अपनी शर्तों पर
अपने समय, समाज और संस्कृति की
थाती बनकर ।
उसकी अनवरत यात्रा में
शब्द ईंधन हैं
और अर्थ बोध ऊर्जा
हम अगर
कोई भाषा हो पाते
तो हम
बहुद हद तक
मानवीय होते ।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
साहित्यिक आलेख
कविता
- आज अचानक हुई बारिश में
- आजकल इन पहाड़ों के रास्ते
- आठ मार्च, विश्व महिला दिवस मनाते हुए
- इन पहाड़ों मेँ आकर
- इन रास्तों का अकेलापन
- इस महामारी में
- उतरे हुए रंग की तरह उदास
- उस ख़्वाब के जैसा
- उसने कहा
- एक वैसी ही लड़की
- काश तुम मिलती तो बताता
- चाँदनी पीते हुए
- चाय का कप
- जब कोई किसी को याद करता है
- जीवन के तीस बसंत के बाद
- जो भूलती ही नहीं
- ताशकंद
- ताशकंद शहर
- तुमसे बात करना
- दीपावली – हर देहरी, हर द्वार
- नए साल से कह दो कि
- निषेध के व्याकरण
- नेल पालिश
- बनारस 01 - बनारस के घाट
- बनारस 02 - बनारस साधारण तरीके का असाधारण शहर
- बनारस 03 - यह जो बनारस है
- बनारस 04 - काशी में शिव संग
- ब्रूउट्स यू टू
- मैंने कुछ गालियाँ सीखी हैं
- मोबाईल
- युद्ध में
- वह सारा उजाला
- वो मौसम
- शायद किसी दिन
- शास्त्री कोचासी, ताशकंद
- शिकायत सब से है लेकिन
- हम अगर कोई भाषा हो पाते
- हर घर तिरंगा
- हिंदी दिवस मनाने का भाव
सजल
नज़्म
कार्यक्रम रिपोर्ट
ग़ज़ल
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
सांस्कृतिक आलेख
सिनेमा और साहित्य
कहानी
शोध निबन्ध
सामाजिक आलेख
कविता - क्षणिका
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं