आधुनिक युग में अति महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ गया है बच्चों का बचपन
आलेख | सामाजिक आलेख कुमकुम कुमारी 'काव्याकृति'1 Jan 2023 (अंक: 220, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
परिवर्तन सृष्टि का अटूट नियम है। वक़्त के साथ हर चीज़ बदलती है परन्तु विगत दो से तीन दशकों में बदलाव की रफ़्तार बहुत तेज हो गई है। यह बदलाव कई बार हमारे जीवन में उथल-पुथल भी ला रहे हैं। आज जब हम अपने बचपन के दिनों को याद करते हैं और अपने बच्चों के बचपन को देखते हैं तो दोनों के बचपन में आसमान-ज़मीन का अंतर दिखता है।
वर्तमान समय काफ़ी तेज़ी से बदल रहा है। इस बदलाव के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव देखे जा सकते हैं। आज दुनिया काफ़ी सिमट गई है और इसी में सिमट गया है आज के बच्चों का बचपन।
हमारे समय में भी पढ़ाई होती थी हम भी पढ़ते थे पर पढ़ाई का बोझ सिर पर लेकर नहीं घूमते थे। कुछ ही किताबों और एक लालटेन में हम कई भाई-बहन पढ़ लेते थे। न कोई प्रतिस्पर्धा न ही कुछ छूटने-खोने का डर। संयुक्त परिवार, अपनों का साथ और दुनिया भर की मौज-मस्ती में बीता हमारा बचपन। कल क्या होगा कोई चिंता नहीं। तनावरहित पढ़ाई और दोस्तों के साथ ख़ूब खेलना ही हमारे बचपन का हिस्सा था। पढ़ाई ज्ञानार्जन के लिए होता था किसी प्रतिस्पर्धा के लिए नहीं। हमें तो याद नहीं है कि कभी मेरे माता-पिता यह कहकर पढ़ने बैठाया हो कि पढ़-लिखकर मुझे डॉक्टर, इंजीनियर या कोई बड़ा अधिकारी बनना है। वो तो बस इतना ही कहते कि शिक्षा से बुद्धि का विकास होता है और बुद्धि के विकास के लिए किताबी कीड़ा बनने की आवश्यकता क्या है? वो तो नानी-दादी के क़िस्से-कहानियों व घर में हो रहे रामायण वाचन से भी हो जाता है।
परन्तु आज समय काफ़ी बदल गया है और इस बदलाव की आँधी में हम भी बदल गए। पता नहीं किस चीज़ को पाने के लिए हम अपने बच्चों पर इतना दबाव डाल रहे हैं। हम अपने बच्चों को किताबी कीड़ा बना कर रख दिया है। छोटी उम्र से ही हम बच्चों के मन में प्रतिस्पर्धा का भाव भरते जा रहे हैं। परिवार से दूर सामाजिक क्रियाकलापों से दूर हम बच्चों को मशीनी दुनिया में ले जाकर छोड़ दिया है।
हमें आज भी याद है कि जब हमारे घर पर कोई अतिप्रिय परिवार-जन यथा मौसी, फुआ आदि आती थीं तो हमारा सारा समय उनके इर्द-गिर्द ही बीतता था। परन्तु आज का युग जिसे हम आधुनिक युग कहते हैं और ख़ुद को आधुनिक कहलाने पर गर्व महसूस करते हैं, बिल्कुल बदल गया है। आज यदि कोई हमारे घर आने की बात करता है तो हम यह सोचकर असहज हो जाते हैं कि उनके आने से हमारे बच्चों की पढ़ाई बाधित होगी। आज के बच्चे रिश्तेदारों से दूर होते जा रहे हैं। आधुनिक शिक्षा व्यवस्था ने रिश्तों की समझ वाले पाठ को ही पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया है।
बचपन जो जीवन का सबसे ख़ूबसूरत समय होता है; उसे हम आज के बच्चों से छीनते जा रहे हैं। एकल परिवार, बढ़ता शहरीकरण, भौतिकतावादी मानसिकता ने आज के बच्चों का बचपना छीन लिया है। आज के बच्चे ख़ुद में सिमटते जा रहे हैं। आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम सभी जी-जान लगाकर दौड़े जा रहे हैं। ज्ञात सुख-सुविधा को छोड़ अज्ञात सुख की प्राप्ति हेतु अपने जीवन की सबसे सुखद अवस्था को त्याग रहे हैं। बच्चे आज रिश्तों के मूल्यों को भूलते जा रहे हैं उनमें सामंजस्य का भाव नगण्य होता जा रहा है और उनके इस मानसिकता के जनक हम आप ही हैं।
आख़िर किस चीज़ की प्राप्ति के लिए हम अपने बच्चों के साथ इतने क्रूर होते जा रहे हैं? क्या हम भावनारहित मशीनीयुग बनाना चाहते हैं? अगर नहीं तो रुकिए थोड़ा विचार कीजिए अपने बच्चों के बचपन को अति महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ने मत दीजिए।
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