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मौन—एक साधना

सामान्यतः वाणी को विराम देना या चुप रहना मौन माना जाता है। लेकिन सिर्फ़ चुप रहना और मन के अंदर विचारों का आवागमन होते रहना मौन नहीं है। मौन तो एक साधना है, एक तप है। हमारा मन अत्यंत चंचल है। जब हम अपने मन को बाँधना सीख लेते हैं यानी अपने मन को शून्यता में विचरण करना सिखा देते हैं, तब यह वास्तविक मौन है अर्थात्‌ मन की वृत्ति शून्य होना ही यथार्थ मौन के लक्षण हैं। मौन से एकाग्रता व स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है। मौन हमारे सोच को सकारात्मक व लोककल्याणकारी बनाता है। मौन साधना से हमारे अंदर सृजनशीलता का विकास होता है और हम अपनी आंतरिक ऊर्जा का संचय कर उसे रचनात्मक कार्यों में लगा सकते हैं और अपना तथा अपने परिवेश को सुंदर व सुखमय बना सकते हैं। मौन आध्यात्मिकता के पथ पर आगे बढ़ने का एक माध्यम है। मौन मनुष्य की आंतरिक चेतना को सात्विकता प्रदान करता है। मौन की साधना से मनुष्य जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझ पाने में सक्षम होता है। बड़े-बड़े अनुसंधान कार्यों को करने के लिए मौन की महिमा का गुणगान हमारे धर्मग्रंथों में भी किया गया है। मौन की साधना से हमें वाक् सिद्धि की प्राप्ति हो सकती है। मौन हमारे मन-मस्तिष्क में उठने वाले तनाव, चिंता व कुविचारों को शांत कर हमारे मन को पवित्र बना देता है। मौन की महिमा बताते हुए योगेश्वर श्री कृष्ण ने कहा है कि मौन मेरा प्रत्यक्ष ईश्वरीय रूप है। 

बहुत अधिक बोलने या अर्थहीन वार्तालाप करने से हमारे अंदर व्याप्त ऊर्जा का क्षरण होता है और हम पतन की ओर बढ़ते जाते हैं। हम नित्य-प्रतिदिन समस्याओं से घिरते जाते हैं और हमारा चारित्रिक ह्रास होता जाता है। अतः आवश्यक है कि हम जीवन में मौन को धारण करने का प्रयत्न करें क्योंकि मनुष्य की अधिकतर समस्याओं का समाधान स्वयं मनुष्य के पास ही होता है। इसलिए उन समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने के लिए हम सभी को कम-से-कम वाणी का प्रयोग कर मौन को धारण कर समाधान का चिंतन करना चाहिए। क्योंकि बहुत अधिक वाचालता हमें उच्छृंखल बनाती है जबकि मौन हमें समझदार बनाता है। मौन से हमारा मन शक्ति को धारण करता है जिससे हमारा जीवन ऊर्जास्वित होता है। अधिक बोलने वाले व्यक्ति के मुख से कभी-कभी अवांछित शब्द भी निकल जाते है जिसका दुष्परिणाम स्वयं उस व्यक्ति को भोगना पड़ता है। अतः वाक् संयम साधने के प्रयत्न हम सभी को करना चाहिए। क्योंकि वाक् संयम साध लेने से हमारी बहुत सारे समस्याओं का समाधान यूँ ही हो जाता है और साथ ही अन्य इन्द्रियाँ भी स्वतः ही सध जाती हैं साथ ही हमें आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त करने की शक्ति भी प्राप्त हो जाती है। 

मौन की साधना से हम वाणी के साथ व्यय होने वाली मानसिक शक्ति को बचा सकते हैं और उन शक्तियों का प्रयोग हम आत्मचिंतन व आत्मावलोकन के लिए कर सकते हैं। मौन हमारे चिंतन को विराट स्वरूप प्रदान करता है। मौन के द्वारा हम अपने चित्तवृत्ति को विचलित होने से बचा सकते हैं और आध्यात्मिक सुख व शान्ति को प्राप्त कर सकते हैं। 

मौन की साधना का ही प्रतिफल है कि भगवान श्री गणेश ने महर्षि व्यास के वचनों को लिपिबद्ध कर पुराण रचने का कार्य कुशलता पूर्वक संपादित कर पाए। ख़ासकर साहित्यिक सर्जन या कोई रचनात्मक कार्य बिना मौन को साधे शुभ फल देने में सफल नहीं हो सकता। जब हम मौनावस्था में होते हैं तो हमारे भीतर सद्विचारों का सर्जन होता है और हमारा अन्तःकरण निखर पाता है जिससे कि हम अपनी आत्मा की ध्वनि सुनने में सक्षम हो पाते हैं। मौन की साधना हमें परमात्मा के द्वार तक पहुँचने का रास्ता बताता है और हमें परमानंद की अनुभूति होती है। 

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