धरती की पुकार
काव्य साहित्य | कविता कुमकुम कुमारी 'काव्याकृति'1 Nov 2021 (अंक: 192, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
धरती कहे पुकार के,
अब सुन लो मेरे लाल।
हर सुख-सुविधा तुम यहाँ से पाते,
फिर,क्यों नहीं करते मेरा शृंगार।
धरती कहे . . .
नदियाँ-झड़ने सब सूख रहे हैं,
देखो, जलस्तर पहुँचा पताल।
यह सोच मैं तड़प रही हूँ,
कहीं प्यासा रह न जाए मेरा लाल।
धरती कहे . . .
वन-उपवन भी कट रहे हैं,
देखो, भूमि हुई उजाड़।
वनस्पति-औषधि कहाँ से पाओगे,
क्यों नहीं करते तुम विचार।
धरती कहे . . .
देखो मेरे सीने पर,
कचड़ा का लगा अंबार।
यह सोच मैं डर रही हूँ,
कहीं वायु हो न जाए विषाक्त।
धरती कहे . . .
ग्लोबल वार्मिंग के चलते,
कहीं पड़ न जाए अकाल।
समय रहते तू चेत जा बच्चे,
माँ करती तुझसे गुहार।
धरती कहे . . .
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