मेघा रे
काव्य साहित्य | कविता कुमकुम कुमारी 'काव्याकृति'1 Jul 2024 (अंक: 256, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
आ जाओ रे मेघ, इतना मत न इतराओ।
उजड़ रहा खलिहान, थोड़ा नीर बरसाओ॥
हैं बहुत परेशान, तप रही धरा हमारी।
कृपा करो भगवान, हरी भरी रहे क्यारी॥
पशु-पाखी बेचैन, सूखे कंठ तड़प रहे।
देख ज़रा अब देख, कैसे विटप झुलस रहे॥
मत करना अब देर, सुन लो विनती हमारी।
काले-काले मेघ, बरसाओ वारि भारी॥
काले-काले मेघ, व्योम पर देखो छाया।
नाचे मन का मोर, मौसम मनभावन आया॥
झूम उठे नर-नार, देख मोहक हरियाली।
सौंधी-सौंधी गंध, महकती डाली-डाली॥
छेड़ रहे मल्हार, सुनो प्रभु अब तो हरसो॥
बरसो-बरसो अब मेघ, झमाझम झमझम बरसो।
पड़ने लगी फुहार, मौसम ली अँगड़ाई।
हर्षित हुए किसान, मुँह पर ख़ुशियाँ आई॥
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