धूल-धूसरित दुर्गम पथ ये . . .
काव्य साहित्य | गीत-नवगीत नरेंद्र श्रीवास्तव1 Feb 2022 (अंक: 199, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
धूल-धूसरित दुर्गम पथ ये जिस पर चलना नहीं गवारा।
बोझ ज़िन्दगी का लेकर के, चलते-चलते मैं तो हारा॥
पतझड़-सा मौसम छाया है
नीरसता का वातावरण है।
कल-कारखानों का गुंजन क्यों?
ख़ामोशी की लिए शरण है॥
वीरानी-वीरानी दिखती है, जिधर नज़र करती इशारा।
बोझ ज़िन्दगी का लेकर के, चलते-चलते मैं तो हारा॥
घुटन भरे हैं, दर्द भरे हैं
यादों के भंडार पड़े हैं।
प्यासे हैं ये होंठ कभी के,
यूँ तो आँसू भरे घड़े हैं॥
पीड़ा ही पीड़ा दे पाया, अपनों का संसार ये सारा।
बोझ ज़िन्दगी का लेकर के, चलते-चलते मैं तो हारा॥
दूर कहीं दीपक दिखते
मन में जग जातीं आशायें।
तारे वे तो नीलगगन के,
दे जाते हैं निराशायें॥
मृगमरीचिका-सा क्रम यह, चलता है फिर से दोबारा।
बोझ ज़िन्दगी का लेकर के, चलते-चलते मैं तो हारा॥
मस्ती भरी नन्ही ज़िन्दगी
जैसे-जैसे बड़ी हुई है।
घुटनों के बल चलते-चलते,
अब कंधों पर चढ़ी हुई है॥
दुर्बल देह द्रवित हो कोई, ऐसा कहाँ सौभाग्य हमारा।
बोझ ज़िन्दगी का लेकर के, चलते-चलते मैं तो हारा॥
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