एक दिन, देखना
काव्य साहित्य | कविता नरेंद्र श्रीवास्तव15 Feb 2025 (अंक: 271, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
मत देखो
अपने सपने बच्चों की आँखों से
मत थोपो
अपनी असफलताएँ बच्चों पर
मत लगाओ
अपने भाग्य का पैबंद बच्चों पर
मत लूटो
अपनी ताक़त से उनकी स्वच्छंदता
मत रखो
अपनी ज़िद का भार बच्चों पर
मत दो
अपने रिश्ते की दुहाई बच्चों को
स्वच्छंद जीने दो
बुनने दो सपने उन्हीं के, उनकी आँखों से
सौंप दो
उन्हें, उनके हिस्से का आकाश, धरती,
उनकी मेहनत, उनका उत्साह, उनकी लगन,
उनका कौशल, उनका अवसर
माली की तरह
रखवाली करते रहो, बस
दानवीर कर्ण की तरह
दान करते रहो,
उनकी चाहत
पूरी करते रहो,
उनकी ज़रूरतें
एक दिन, देखना
तुम्हें
वही लौटायेगा तुम्हारे सपने
तुम्हारी मुस्कान
तोड़ेगा
तुम्हारी छटपटाहट,
तुम्हारी ख़ामोशी।
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