ठीक रहा न
काव्य साहित्य | कविता नरेंद्र श्रीवास्तव1 Oct 2023 (अंक: 238, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
उम्मीद
रोज़ आ जाती है
दिलाने दिलासा
दिनभर रहती है
साथ में
पुचकारती रहती है
कभी माँ की तरह,
कभी पिता की तरह
रोने नहीं देती
न ही बौखलाने,
न खीझने
सपनों को,
आशाओं को,
अरमानों को
न टूटने देती है,
न बिखरने देती है
न थकने देती है,
न हारने देती है
और
वाक़ई
एक दिन . . .
मिल जाती है जीत
पूरे हो जाते हैं
सपने, आशायें, अरमान
उम्मीद मुस्कुराती हुई
विदा होती है
कहती हुई—
‘ठीक रहा न।’
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