यही ठीक है
काव्य साहित्य | कविता नरेंद्र श्रीवास्तव1 Mar 2025 (अंक: 272, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
बदल गये हैं
हम
हमारे निर्णय
हमारे नहीं हैं
हम
थोप लेते हैं, ख़ुद-ब-ख़ुद
हमने
मंथन करना छोड़ दिया है
हमें
ऐसा करना बेगार लगता है
हम
अपना समय,
इसमें
नहीं खोना चाहते
यह समय
हम
व्हाट्सएप, फ़ेसबुक . . . में
लगाना चाहते हैं
उससे मिलती जानकारी
हमें भाती हैं, लुभाती है
वही सच लगती हैं,
बाक़ी सब मिथ्या
पुरानी बातें, पिछला पढ़ा,
हम भूलना चाहते हैं
हमसे जो कहा जाता है,
हम वही करना चाहते हैं, बस
इसके अलावा
हमें फ़ुरसत नहीं है
यहाँ तक कि
ख़ुद की तकलीफ़ों को
समझने का
ख़ुद की ज़रूरतों को
पूरा करने का
ये जो हो रहा है . . .
यही ठीक है,
सर्वश्रेष्ठ है
ऐसा हमारे दिलो-दिमाग़ में
बिठा दिया गया है
और हमने बिठा भी लिया है
फिर मंथन वाली बात . . .
छोड़ो न।
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