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हिंदी की राजभाषा यात्रा

अभी तक विश्व के अनेक देशों में राजभाषा स्वीकृत नहीं हुई है। इसी तरह राष्ट्रभाषा का भी मामला अनेक देशों में लंबित है। भारत के संदर्भ में राजभाषा हिंदी को संविधान लागू होने से पहले स्वीकृत किया गया था। यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है। भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को स्वीकृत किया गया जबकि राजभाषा हिंदी को 14 सितंबर 1949 को स्वीकार किया गया था। यह भाषा सम्बन्धित मामला भारत जैसे बहुभाषिक देश में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 

लेकिन यह जानना बहुत ज़रूरी है कि 14 सितंबर 1949 को लोकसभा में जो चर्चा हुई थी, उस चर्चा में भारतीय भाषाओं के संदर्भ में क्या विचार मंथन हुआ था। 

भारतीय संविधान सभा के तत्कालीन अध्यक्ष एवं स्वतंत्र भारत के प्रथम महामहिम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने लोकसभा में राज भाषा हिंदी पर हुई चर्चा के उपरांत दिनांक 14.9.1949 को सभा को संबोधित किया। राज भाषा हिंदी को स्वीकार करने पर उन्होंने हिंदीतर सदस्यों का विशेष आभार व्यक्त किया क्योंकि राष्ट्रीय एकता एवं स्वाभिमान के लिए किसी एक भारतीय भाषा को राज भाषा के रूप में स्वीकार करना आवश्यक था। इस भाषण में उन्होंने इस बात का भी ज़िक्र किया है कि राज भाषा हिंदी को बहुमत से स्वीकार किया गया है। वर्तमान राजनीति में हिंदी को राष्ट्रभाषा न मानने की होड़ लगी है जो देश की एकता के लिए घातक है। हमें भारतीय भाषा भगिनी परिवार में एकता एवं समन्वय रखना चाहिए क्योंकि इस राष्ट्र की संस्कृति एक है। जिस तरह एक देश, एक ध्वज, एक राष्ट्र गीत एवं एक राष्ट्र भाषा की संकल्पना को विश्व में स्वीकार किया जाता है उसी तरह हमारे देश में राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीकों का सम्मान करना चाहिए जो अनिवार्य भी और हितकारी भी होगा। 

भारतीय संविधान के क़लम 343 के अनुसार हिंदी राज भाषा है जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। हिंदी के विकास के लिए जो विशेष निर्देश जारी किए गए हैं उसके अनुसार हिंदी भाषा किसी एक प्रांत की विशेष भाषा नहीं है बल्कि उसका स्वरूप संपूर्ण राष्ट्र के सभी भाषाओं के प्रचलित शब्दों के आधार पर किया जाना सुनिश्चित किया गया है। संस्कृत को मूल आधार बना दिया गया है और हिंदी में विश्व के सभी भाषाओं के शब्दों को स्वीकार करने में कोई परहेज़ नहीं है जब वे शब्द देश-विदेश में प्रचलित है। 

डॉ. विमलेश कांति वर्मा जी ने अपनी पुस्तक “राष्ट्र भाषा से राज भाषा तक” की भूमिका में यह स्पष्ट कर दिया है कि १९४९ से १९५० तक के दस्तावेज़ के आधार पर यह पुस्तक लिखी है। भारत की स्वाधीनता के बाद से संविधान बनने और पारित होने तक के चार वर्षों में देश के महान नेताओं के बीच हिंदी को संवैधानिक मान्यता दिए जाने के सम्बन्ध में हुई बहस का विवरण इस पुस्तक में उपलब्ध है। 

हिंदी भाषा के विवाद में तत्कालीन भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष एवं स्वतंत्र भारत के प्रथम महामहिम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी उस भाषण को फिर एक बार सभी को पढ़ना चाहिए। सम्बन्धित भाषण भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित राष्ट्र भाषा से राज भाषा तक पुस्तक से साभार प्रस्तुत है। 

“अब आज की कार्यवाही समाप्त होती है, किन्तु सदन को स्थगित करने से पूर्व मैं बधाई के रूप में कुछ शब्द कहना चाहता हूँ। मेरे विचार में हमने अपने संविधान में एक अध्याय स्वीकार किया है जिसका देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। हमारे इतिहास में अब तक कभी भी एक भाषा को शासन और प्रशासन की भाषा के रूप में मान्यता नहीं मिली थी। हमारा धार्मिक साहित्य और प्रकाशन संस्कृत में सन्निहित था। निस्संदेह उसका समस्त देश में अध्ययन किया जाता था, किन्तु वह भाषा भी कभी समूचे देश के प्रशासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होती थी। आज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा लिखी है जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी और उस भाषा का विकास समय की परिस्थितियों के अनुसार ही करना होगा। 

मैं हिंदी का या किसी अन्य भाषा का विद्वान होने का दावा नहीं करता। मेरा यह भी दावा नहीं है कि किसी भाषा में मेरा कुछ अंशदान है, किन्तु सामान्य व्यक्ति में हमारा उस भाषा का क्या रूप होगा जिसे हमने आज संघ के प्रशासन की भाषा स्वीकार की है। हिंदी में विगत में कई-कई बार परिवर्तन हुए हैं और आज उसकी कई शैलियाँ हैं, पहले हमारा बहुत-सा साहित्य ब्रजभाषा में लिखा गया था। अब हिंदी में खड़ी बोली का प्रचलन है। मेरे विचार में देश की अन्य भाषाओं के संपर्क से उसका और भी विकास होगा। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि हिंदी देश की अन्य भाषाओं से अच्छी-अच्छी बातें ग्रहण करेगी तो उससे उन्नति ही होगी, अवनति नहीं होगी। 

हमने अब देश का राजनीतिक एकीकरण कर लिया है। अब हम एक दूसरा जोड़ लगा रहे हैं जिससे हम सब एक सिरे से दूसरे सिरे तक एक हो जाएँगे। मुझे आशा है कि सब सदस्य संतोष की भावना लेकर घर जाएँगे और जो मतदान में हार भी गए हैं, वे भी इस पर बुरा नहीं मानेंगे तथा उस कार्य में सहायता देंगे जो संविधान के कारण संघ को भाषा के विषय में अब करना पड़ेगा। 

मैं दक्षिण भारत के विषय में एक शब्द कहना चाहता हूँ। 1917 में जब महात्मा गाँधी चंपारण में थे और मुझे उनके साथ कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था तब उन्होंने दक्षिण में हिंदी प्रचार का कार्य आरंभ करने का विचार किया और उनके कहने पर स्वामी सत्य देव और गाँधी जी के प्रिय पुत्र देव दास गाँधी ने वहाँ जाकर यह कार्य आरंभ किया। बाद में 1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में इस प्रचार कार्य को सम्मेलन का मुख्य कार्य स्वीकार किया गया और वहाँ कार्य चलता रहा। मेरा सौभाग्य है कि मैं गत 32 वर्षों में इस कार्य से सम्बद्ध रहा हूँ, यद्यपि मैं इसे घनिष्ठ सम्बन्ध का दावा नहीं कर सकता। मैं दक्षिण में एक सिरे से दूसरे सिरे तक गया और मेरे हृदय में बहुत प्रसन्नता हुई कि दक्षिण के लोगों ने भाषा के सम्बन्ध में महात्मा गाँधी के अनुरोध के अनुसार कैसा अच्छा कार्य किया है। मैं जानता हूँ कि उन्हें कितनी ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किन्तु उनमें इस मामले में जो जोश था वह बहुत सराहनीय था। मैंने कई बार पारितोषिक-वितरण भी किया है और सदस्यों को यह सुन कर मनोरंजक लगेगा कि मैंने एक ही समय पर दो पीढ़ियों को पारितोषिक दिए हैं, शायद तीन को ही दिए हों—अर्थात दादा, पिता और पुत्र हिंदी पढ़ कर, परीक्षा पास करके एक ही वर्ष पारितोषिकों तथा प्रमाण पत्रों के लिए आए थे। यह कार्य चलता रहा है और दक्षिण के लोगों ने इसे अपनाया है। आज मैं कह नहीं सकता कि वे इस हिंदी कार्य के लिए कितने लाख व्यय कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि इस भाषा को दक्षिण के बहुत से लोगों ने अखिल भारतीय भाषा मान लिया है और इसमें उन्होंने जिस जोश का प्रदर्शन किया है उसके लिए उत्तर भारतीयों को उन्हें बधाई देनी चाहिए, मान्यता देनी चाहिए और धन्यवाद देना चाहिए। 

यदि आज उन्होंने किसी विशेष बात पर हठ किया है तो हमें याद रखना चाहिए कि आख़िर यदि हिंदी को उन्हें स्वीकार करना है तो वे ही करेंगे, उनकी ओर से हम तो नहीं करेंगे, और आख़िर यह क्या बात है जिस पर इतना वाद-विवाद हो गया है? मैं आश्चर्य कर रहा था कि हमें छोटे-से मामले पर इतनी बहस करने की, इतना समय बर्बाद करने की क्या आवश्यकता है? आख़िर अंक हैं क्या? दस ही तो हैं। इन दस में, मुझे याद पड़ता है कि तीन तो ऐसे हैं जो अँग्रेज़ी में और हिंदी में एक से हैं। जैसे अंक 1, 2, 3 और 0। मेरे ख़्याल में चार और हैं जो रूप में एक से हैं किन्तु उनसे अलग-अलग कार्य निकलते हैं। उदाहरण के लिए हिंदी का 4 अँग्रेज़ी के 8 से बहुत मिलता-जुलता है, यद्यपि एक 4 के लिए आता है और दूसरा 8 के लिए। अँग्रेज़ी का 6 हिंदी के 7 से बहुत मिलता है, यद्यपि उन दोनों के भिन्न-भिन्न अर्थ है। हिंदी का 9 जिस रूप में अब लिखा जाता है, मराठी से लिया गया है और अँग्रेज़ी के 9 से बहुत मिलता है। अब केवल दो-तीन अंक बच गए जिनके दोनों प्रकार के अंकों में भिन्न-भिन्न रूप हैं और भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। अतः यह मुद्रणालय की सुविधा या असुविधा का प्रश्न नहीं है जैसा कि कुछ सदस्यों ने कहा है। मेरे विचार में मुद्रणालय की दृष्टि से हिंदी और अँग्रेज़ी अंकों में कोई अंतर नहीं है। 

किन्तु हमें अपने मित्रों की भावनाओं का आदर करना है जो उसे चाहते हैं, और मैं अपने सब हिंदी मित्रों से कहूँगा कि वे इसे उस भावना से स्वीकार करें, इसलिए स्वीकार करें कि हम उनसे हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि स्वीकार करवाना चाहते हैं और मुझे प्रसन्नता है कि इस सदन ने अत्यधिक बहुमत से इस सुझाव को स्वीकार कर लिया है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आख़िर यह बहुत बड़ी रियायत नहीं है। हम उनसे हिंदी स्वीकार करवाना चाहते थे और उन्होंने स्वीकार कर लिया, और हम उनसे देवनागरी लिपि को स्वीकार करवाना चाहते थे, वह भी उन्होंने स्वीकार कर ली। वे हमसे भिन्न प्रकार के अंक स्वीकार करवाना चाहते थे, उन्हें स्वीकार करने में कठिनाई क्यों होनी चाहिए? इस पर मैं छोटा-सा दृष्टांत देता हूँ जो मनोरंजक होगा। हम चाहते हैं कि कुछ मित्र हमें निमंत्रण दें। वे निमंत्रण दे देते हैं। वे कहते हैं, आप आकर हमारे घर में ठहर सकते हैं, उसके लिए आपका स्वागत है। किन्तु जब आप हमारे घर आएँ तो कृपया अँग्रेज़ी चलन के जूते पहनिए, भारतीय चप्पल मत पहनिए जैसा कि आप अपने घर में पहनते हैं। उस निमंत्रण को केवल इसी आधार पर ठुकराना मेरे लिए बुद्धिमत्ता नहीं होगी। मैं चप्पल को नहीं छोड़ना चाहता। मैं अँग्रेज़ी जूते पहन लूँगा और निमंत्रण को स्वीकार कर लूँगा और इसी सहिष्णुता की भावना से राष्ट्रीय समस्याएँ हल हो सकती हैं। 

हमारे संविधान में बहुत से विवाद उठ खड़े हुए हैं और बहुत से प्रश्न उठे हैं जिन पर गंभीर मतभेद थे किन्तु हमने किसी न किसी प्रकार उनका निपटारा कर लिया। यह सबसे बड़ी खाई थी जिससे हम एक दूसरे से अलग हो सकते थे। हमें यह कल्पना करनी चाहिए कि यदि दक्षिण हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि को स्वीकार नहीं करता, तब क्या होता? स्विटज़रलैंड जैसे छोटे-से, नन्हे से देश में तीन भाषाएँ हैं जो संविधान में मान्य हैं और सब कुछ काम उन तीनों भाषाओं में होता है। क्या हम समझते हैं कि हम केंद्रीय प्रशासकीय प्रयोजनों के लिए उन भाषाओं को रखने की सोचते जो भारत में प्रचलित हैं तो क्या हम सब प्रांतों के साथ रख सकते थे, सभी में एकता करा सकते थे? प्रत्येक पृष्ठ को शायद पंद्रह-बीस भाषाओं में मुद्रित करना पड़ता। 

यह केवल व्यय का प्रश्न नहीं है। यह मानसिक दशा का भी प्रश्न है जिसका हमारे समस्त जीवन पर प्रभाव पड़ेगा। हम केंद्र में जिस भाषा का प्रयोग करेंगे, उससे हम एक दूसरे के निकटतम आते जाएँगे। आख़िर अँग्रेज़ी से हम निकटतम आए हैं क्योंकि यह एक भाषा थी। अँग्रेज़ी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया है, इससे अवश्यमेव हमारे सम्बन्ध घनिष्टतर होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परंपरा एक ही हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं। अतएव यदि हम इस सूत्र को स्वीकार नहीं करते तो परिणाम यह होता कि इस देश में बहुत-सी भाषाओं का प्रयोग होता या वे प्रांत पृथक हो जाते जो बाध्य होकर किसी भाषा विशेष को स्वीकार करना नहीं चाहते थे। हमने यथासंभव बुध्दिमानी का कार्य किया है। मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी सन्तति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।” 

संदर्भ: “हिंदी, राष्ट्रभाषा से राजभाषा तक”, लेखक: डॉ. विमलेश कांति वर्मा, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार

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