संत शिरोमणि नामदेव की वाणी में मराठी हिंदी का संगम
आलेख | सांस्कृतिक आलेख विजय नगरकर1 Mar 2025 (अंक: 272, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
संत शिरोमणि नामदेव जी का पूरा नाम नामदेव दामाशेठ रेलेकर है, जिनका जन्म महाराष्ट्र के हिंगोली ज़िले के नरसी गाँव में 26 अक्टूबर, 1270 को हुआ था।
उनके पिता का नाम ‘दामाशेठ’ माता का नाम ‘गोणाई (गोणा बाई)’ था। नामदेवजी का विवाह-कल्याण निवासी राजाई (राजा बाई) के साथ हुआ था। उनके चार पुत्र थे-नारायण, विट्ठल, महादेव, गोविन्द। पुत्री का नाम लिम्बाबाई था। नामदेव जी की बड़ी बहन का नाम ‘आऊबाई’ और उनके नानाजी ‘गोमाजी’, नानीजी ‘उमाबाई’ था।
संत नामदेव ने विसोबा खेचर को गुरु के रूप में स्वीकार किया था।
नामदेव उत्तर भारत में, विशेष रूप से निर्गुण भक्ति परंपरा के भीतर, हिंदी कविता के शुरूआती विकास में एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे। उन्हें उत्तर में भक्ति उद्देश्यों के लिए हिंदी का उपयोग करने वाले पहले कवियों में से एक माना जाता है।
नामदेव की हिंदी कविता के बारे में कुछ मुख्य बातें इस प्रकार हैं:
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नामदेव निर्गुण भक्ति परंपरा के एक महत्त्वपूर्ण कवि थे। उन्होंने हिंदी में कई रचनाएँ कीं, जो उनके आध्यात्मिक विचारों को दर्शाती हैं।
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माना जाता है कि हिंदी निर्गुण काव्य धारा की शुरूआत नामदेव से हुई।
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नामदेव ने मराठी में भी रचनाएँ कीं, लेकिन उनकी हिंदी रचनाएँ भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
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उनकी कविताओं में प्रेम, भक्ति, और सामाजिक समानता के विचारों पर ज़ोर दिया गया है।
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नामदेव ने मूर्तिपूजा का विरोध किया और निराकार भगवान की भक्ति पर ज़ोर दिया।
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उन्होंने जातिवाद का भी विरोध किया और सभी मनुष्यों को समान माना।
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उनकी रचनाओं में गुरु का महत्त्व बताया गया है और गुरु भक्ति को मोक्ष का मार्ग बताया गया है।
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नामदेव की कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ ‘नामदेव वाणी’ में संकलित हैं।
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उनकी रचनाओं में अध्यात्म, दर्शन, और सामाजिक मुद्दों का मिश्रण मिलता है।
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कहा जाता है कि कबीर जैसे अन्य संतों पर भी नामदेव का प्रभाव था।
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नामदेव ने अपनी रचनाओं के माध्यम से जनता में भक्ति और ज्ञान का प्रसार किया।
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नामदेव ने सगुण और निर्गुण दोनों तरह की भक्ति के विचारों को व्यक्त किया।
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नामदेव की रचनाओं में ‘माया’ की अवधारणा पर भी विचार किया गया है।
संत शिरोमणि नामदेव जी की मराठी और हिंदी भाषा का संगम:
संत नामदेव की हिंदी कविताओं में कई मराठी शब्दों का प्रयोग मिलता है। स्रोतों में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि नामदेव ने मराठी और हिंदी दोनों भाषाओं में कविताएँ लिखीं, और उनकी हिंदी कविताओं में मराठी शब्दों का मिश्रण मिलता है:
भाषा का मिश्रण: संत नामदेव की हिंदी रचनाओं में अक्सर हिंदी और मराठी शब्दों का मिश्रण पाया जाता है। उस युग के संत-कवियों के लिए भाषाओं का मिश्रण कोई असामान्य बात नहीं थी, ख़ासकर उन लोगों के लिए जो विभिन्न भाषाई क्षेत्रों में घूमते थे, या जिनकी शिक्षाएँ विविध दर्शकों के लिए थीं। स्रोतों में विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि नामदेव की हिंदी कविताओं में कई मराठी शब्द हैं।
मातृभाषा का प्रभाव: मराठी संत नामदेव की मातृभाषा थी, और स्वाभाविक रूप से इसका प्रभाव उनकी अन्य भाषाओं पर भी पड़ा। ऐसा लगता है कि उनकी हिंदी रचनाओं में उनकी मूल मराठी भाषा की कुछ शब्दावली और व्याकरणिक संरचनाएँ बनी रहीं।
रोज़मर्रा की भाषा का प्रयोग: स्रोतों से पता चलता है कि नामदेव की भाषा, चाहे वह मराठी में हो या हिंदी में, आम लोगों के लिए सरल और सुलभ थी। यह भी एक कारण हो सकता है कि उनकी हिंदी कविताओं में आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले मराठी शब्द शामिल हों।
भाषाई विश्लेषण: विद्वानों ने ध्यान दिया है कि नामदेव की हिंदी कविताओं की भाषा उनकी मराठी भाषा से प्रभावित है। उन्होंने उनकी भाषा का तुलनात्मक विश्लेषण किया है, ताकि यह बताया जा सके कि उनकी हिंदी कविताओं में शैली और शब्दों का प्रयोग उनकी मराठी पृष्ठभूमि को दर्शाता है।
मराठी शब्दों के उदाहरण: स्रोतों में उनकी हिंदी कविताओं में प्रयुक्त मराठी शब्दों की कोई विशिष्ट सूची नहीं दी गई है, लेकिन कुछ शब्दों को पाठ में मराठी के रूप में वर्णित किया गया है:
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‘आणि’: ‘आणि’ शब्द को एक मराठी शब्द बताया गया है।
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‘कालिका’: ‘कालिका’ शब्द को मराठी शब्द बताया गया है।
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‘विठ्ठला’: पाठ में ‘विठ्ठला’ शब्द की चर्चा की गई है, जो पंढरपुर के देवता विठोबा से संबंधित है।
संत नामदेव की हिंदी कविताओं में मराठी शब्दों की उपस्थिति उनकी भाषाई पृष्ठभूमि को दर्शाती है और साथ ही, यह एक विस्तृत दर्शक वर्ग, विशेष रूप से उन लोगों के लिए, जो हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं से परिचित हैं, उनकी शिक्षाओं को सुलभ बनाने के एक सचेत प्रयास को दर्शाती है। भाषा मिश्रण का यह प्रयोग उस समय के संतों और कवियों के लिए असामान्य नहीं था।
पंढरपुर से उत्तर भारत की यात्रा:
उत्तर भारत में विदेशी आक्रमण से अनेक धर्म स्थान संकटग्रस्त हो गए थे। हिंदू धर्म के अनेक स्थानों को भ्रष्ट किया जा रहा था। धार्मिक आस्था पर चोट पहुँच रही थी। उस समय भागवत धर्म की ध्वजा लेकर समाज को जोड़ने के लिए संत नामदेव जी ने महाराष्ट्र से पंजाब तक यात्रा की। वह अमृतसर के निकट घुमाण गाँव में बस गए। संत नामदेव के अभ्यासक मानते हैं कि सिख धर्म की आधारशिला नामदेव जी के निर्गुण एवं नाम परंपरा से सुदृढ़ हुई थी। भगत नामदेव जी के विशिष्ट रचनाओं को पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब ग्रंथ में सम्मान पूर्वक दाख़िल किया गया।
यह एक संयोग था कि देश की महान भक्ति महिमा के कारण संत नामदेव जी की जन्मभूमि नरसी बामणी के पास नांदेड़ में ‘गुरु दा गद्दी’ की स्थापना की गई।
हुजूर साहिब गुरुद्वारा महाराष्ट्र राज्य के नांदेड़ ज़िले में स्थापित है। यह स्थान गुरु गोविंद सिंह जी का कार्य स्थल रहा है। यह सिक्ख धर्म के पाँच प्रमुख तख़्त साहिब में से एक है। जिसे तख़्त सचखंड साहिब, श्री हुजूर साहिब और नादेड़ साहिब के नाम से जाना जाता है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा की स्थापना की और गुरु ग्रंथ साहिब को गुरु का दर्जा दिया और इसे चिरस्थायी गुरु के रूप में बुलंद किया।
पंजाब और महाराष्ट्र के बीच भगत नामदेव जी ने आम लोगों का रिश्ता मज़बूत किया।
उपदेश:
संत नामदेव ने तत्कालीन समाज में फैली विषमताओं, रूढ़िवादिता, ऊँचनीच, जाति पाँति के भेदभाव, धार्मिक कट्टरपंथ आदि को मिटाने का प्रयास किया।
नामदेव के बाद कबीरदास, रामानंद, गुरूनानक, रैदास, गरीबदास आदि संतों ने भी उन्हीं की परम्परा का अनुसरण कर लोक शिक्षण, सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों की स्थापना की। उनकी मान्यता थी कि ईश्वर एक ही है और सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी एवं पूजनीय है।
संत नामदेव के हिंदी पदों का भारतीय साहित्य में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनके पदों ने भक्तिकाल के साहित्य को समृद्ध बनाया है। उनके पदों से हमें भक्ति, ज्ञान और सामाजिक चेतना की प्रेरणा मिलती है।
संत नामदेव जी ने अंतिम इच्छा के अनुसार अपने आराध्य दैवत भगवान विट्ठल के मंदिर की सीढ़ी पर उनकी समाधि का निर्माण किया गया। उनके अभंग में इस इच्छा का उल्लेख किया गया है।
“वतन आमुची मिरासी पंढरी, विठोबाचे घरी नांदणूक!!
नामा म्हणे आम्ही पायरीचे चिरे, संत पाय हिरे देती वरी!!”
अर्थात हमारा वतन विठ्ठल भगवान की पंढरी (पंढरपुर) है, विठोबा के घर ब्याह हुआ। नामा कहे हम सीढ़ी के पत्थर, जिस पर संतों के पदों का हीरे जैसा पावन स्पर्श)
पंजाब के घुमाण में संत नामदेव जी
घुमाण गाँव का प्रमुख गुरुद्वारा है। इसमें नामदेव की एक बड़ी मूर्ति है। दरअसल सिख धर्म मूर्तिपूजा पर रोक लगाता है। लेकिन यह दुनिया का एकमात्र गुरुद्वारा है जहाँ इस संत की मूर्ति मौजूद है। वहाँ उन्हें बाबा नामदेव जी महाराज के नाम से संबोधित किया जाता है। घुमाण पंचक्रोशी में बाबा नामदेव जी महाराज की कृपा के बिना कोई भी कार्य प्रारंभ नहीं होता है।
संत नामदेव के जीवन के बीस वर्ष पंजाब में भगवत धर्म का प्रचार करते हुए बीते, वे करताल और एक तारा बजाते हुए मधुर स्वर में भजन गाते थे तथा ईश्वर की भक्ति करते थे। पंजाब की संत परम्परा में नामदेव प्रथम संत कहे जाते हैं। इनके शिष्यों को नामदेविया कहा जाता है। नामदेव जी का प्रभाव इतना अधिक था कि श्री गुरुग्रन्थ साहिब में उनके 61 पद, 3 श्लोक और 18 रागों को स्थान दिया गया। इनकी मृत्यु पंजाब में हुई तथा उनके नाम से घुमाणा में एक गुरुद्वारा भी है।
घुमाण में स्थित विठोबा मंदिर एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक स्थल है जो भगवान विठोबा को समर्पित है। यह मंदिर 5वीं शताब्दी का है और इसकी स्थापत्य शैली इसकी प्राचीनता को दर्शाती है। मंदिर में 13वीं शताब्दी के शिलालेख हैं जो इस मंदिर की उत्पत्ति 6वीं शताब्दी में बताते हैं।
मंदिर का निर्माण लाल बलुआ पत्थर से किया गया है और इसमें एक ऊँचा गर्भगृह है। गर्भगृह में भगवान विठोबा की खड़ी छवि स्थापित है, जो 5वीं शताब्दी की है। यह छवि भगवान विष्णु के अवतारों में से एक, पांडुरंगा को दर्शाती है। छवि को सोने और चाँदी के आभूषणों से सजाया गया है।
मंदिर के पूर्वी प्रवेश द्वार को नामदेव द्वार के नाम से जाना जाता है। यह द्वार बाबा नामदेव के नाम पर रखा गया है, जो 13वीं शताब्दी के एक महान वैष्णव संत थे। बाबा नामदेव ने घुमाण में 17 वर्षों तक तपस्या की थी।
घुमाण विठोबा मंदिर पंजाब के सबसे महत्त्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में से एक है। यह मंदिर हिंदुओं के लिए एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल है और इसे अक्सर भक्तों द्वारा दर्शन के लिए जाना जाता है।
महाराष्ट्र दैवत ‘श्री विठ्ठल’ संत नामदेव जी के कारण सिख धर्म के पवित्र श्री गुरु ग्रंथ साहिब में ‘बिठलु’ नाम से शामिल हुआ है।
हिंदू मुस्लिम धर्म की कट्टरता पर दो टूक बात करते हुए संत नामदेव जी ने उपदेश भी किया है। यही मार्ग संत कबीर, एकनाथ और गुरुदेव नानक जी ने अपनाया है।
संत नामदेव जी का प्रथम हिंदी परिचय
नामदेवजी का जीवन-चरित्र मराठी से पहले हिंदी बोली में लिखा गया था। अनंतदास नाम के एक संत हुए, जिन्होंने ‘नामदेवपरचयी’ नामक ग्रंथ लिखा है। परचयी का अर्थ है परिचय। इसमें उन्होंने नामदेवजी का संपूर्ण जीवन-चरित्र लिखा है। नामदेवपरचई ग्रंथ लिखने वाले संत अनंतदास कबीर के गुरु भैया पिपा के नाती थे। पिपा गागरोनगढ़ के उच्चकुलोत्पन्न चव्हाण राजपूत राजा थे। उन्होंने अपना राजपद छोड़कर स्वयं शिंपी जाति धारण कर ली थी। यह नामदेवजी का उन पर प्रभाव था। संत कुबाजी कुंभार की जगह इस पिपा ने महंती स्वीकार कर अपनी जाति भी विसर्जित कर दी थी। यह वास्तविक अर्थों में आधुनिक भारत की शुरूआत थी। यह संत पिपा ने अँग्रेज़ों के आने से पहले ही शुरू कर दी थी। उस पिपा के नाती अनंतदास ने नामदेवजी का जीवनचरित्र हिंदी भाषा में लिखा है। इसमें उन्होंने कहा है कि:
“कलयुग प्रथम नामदेव भइया
केशव अपने कर करी लईया”
स्वयं कबीर ने भी लिखा है:
“जागे शुक उद्धव अक्रूर
हणमंत जाग लीये लंगूर
संकर जागे चरण सेव
कली जागे नामा जयदेव”
कबीर और अनंतदास ने दोनों ने नामदेवजी को कलियुग में पहला भक्त कहा है। कृष्ण के बाद कई हज़ार वर्षों बाद नामदेव आए। कृष्ण के मृत्यु के तुरंत बाद कलियुग शुरू हो गया था। इस बीच के समय में कई कृष्ण भक्त हो गए होंगे। लेकिन नामदेवजी ने जो कर दिखाया, वह किसी को भी नहीं आया। इसलिए वे पहले, जिन्होंने केशव को अपने अधीन कर लिया, ऐसा लोग कहते हैं।
संत नामदेव जी और गुरुदेव नानक जी के पदों में समानता मिलती है। सिख धर्म के अभ्यासक विद्वान मानते है कि “भक्त नामदेवजी की बाणी जो श्री गुरु ग्रंथसाहिब में दर्ज है, सतिगुरु नानक देवजी आप ही उनके वतन से लाये तथा सिक्ख कौम के लिए अपनी बाणी के साथ ही सम्भाल के रखी है।”
संत शिरोमणि नामदेव जी के बारे में कुछ धारणाएँ
मैकालिफ़ अनुसार:
बम्बई प्रांत के ज़िला सतारा में नरसी नाम का एक गाँव है। मैकालिफ के अनुसार नामदेव जी का जन्म इसी गाँव में हुआ था कार्तिक सुदी एकादसी शाका संवत् 1192 (तदानुसार नवंबर सन् 1270)। जाति के धोबी (छींबे) थे।
गाँव नरसी नगर कराद के नज़दीक है। कराद रेल का स्टेशन है, पूणे से मिराज जाने वाली रेलवे लाइन पर। गाँव नरसी के बाहर केशी रान (शिव) का मंन्दिर था। नामदेव जी के पिता उसके श्रद्धावान भक्त थे।
नामदेव जी ने अपनी उम्र का बहुत सारा समय पंढरपुर में गुज़ारा। पंढरपुर के नज़दीक गाँव वदवल के वाशिंदे महात्मा विशोभा जी की संगति का नामदेव जी को अवसर मिलता रहा।
नामदेव जी का देहांत अस्सी साल की उम्र में (असू वदी 13) सन् 1350 में गाँव पंढरपुर में हुआ था।
पूरनदास की जनमसाखी के अनुसार:
पूरनदास की लिखी जनमसाखी में लिखा है कि पंढरपुर के नज़दीक गाँव गोपालपुर में नामदेव जी का जन्म हुआ था। 55 साल की उम्र में नामदेव पंजाब के ज़िला गुरदासपुर के एक गाँव भटेवाल में आ टिके। लोगों की बहुत ज़्यादा आवाजाही हो जाने के कारण नामदेव ने यहाँ से कुछ दूरी पे एक जंगल जैसे स्थान पर जा डेरा लगाया। वहीं उनका देहांत हुआ। अब उस गाँव का नाम घुमाण है। हर साल माघ की दूसरी तारीख़ को वहाँ मेला लगता है। पूरनदास के अनुसार नामदेव जी का जन्म सन् 1313 में हुआ था और देहांत 21 माघ संवत् 1521 (सन् 1464 ईसवी)।
‘भक्त माल’ के अनुसार:
पुस्तक ‘भक्त माल’ में भी भक्त नामदेव के बारे में कुछ यूँ ही लिखा हुआ है, पर उसमें उनके पंजाब आने का ज़िक्र नहीं है।
मरी हुई गाय वाली घटना:
मैकालिफ़ लिखता है कि नामदेव जी अपने एक मित्र ज्ञानदेव के साथ हिन्दू तीर्थों पर आए थे, दिल्ली भी आए। तब हिन्द का बादशाह मुहम्मद तुग़लक था। इसी बादशाह ने मरी हुई गाय ज़िन्दा करने के लिए नामदेव को ललकारा था। पर पुस्तक ‘जनम साखी’ में ये घटना सन् 1380 की बताई गई है। जिस बादशाह ने नामदेव जी को क़ैद किया था उसका नाम ‘पैरो’ दिया गया है। दिल्ली के तख़्त पर उस वक़्त फिरोजशाह तुग़लक था, संन 1351 से 1388 तक। मुहम्मद तुग़लक ने सन् 1325 से 1351 तक राज किया था।
दक्षिण की तरफ़ भी:
मैकालिफ़ के अनुसार नामदेव जी ज्ञानदेव के साथ दक्षिण में भी गए। रामेश्वर, कल्पधारा से होते हुए धारा पहुँचे। वहाँ अवधीय नाग नाथ के मंदिर में से नामदेव को धक्के मार के निकाला गया था।
क्या भक्त नामदेव दो हुए हैं?
भ्रम कि नामदेव दो हुए हैं:
मैकालिफ़ ने भक्त जी का जनम सन् 1270 और देहांत 1350 में बताया है। पूरनदास ने ‘जनमसाखी’ में जनम 1363 और देहांत 1464 में लिखा है। मैकालिफ़ लिखता है कि उनका देहांत पंढरपुर में हुआ। ‘जनमसाखी’ वाला कहता है कि नामदेव जी का देहांत पंजाब के ज़िला गुरदासपुर के गाँव घुमाण में हुआ। दोनों जगह भक्त जी की याद में ‘देहुरे’ बने हुए हैं। इससे कई सज्जन ये कहने लग पड़े हैं कि शायद भक्त नामदेव दो हुए हों और दोनों ही जाति के छींबे ही हों। ये शक पैदा करने वाले सज्जन जनम दोनों का ही बंबई प्रांत में मान रहे हैं।
भ्रमित करने वाली उलझन:
इन लोगों की राह में एक नई उलझन ये भी पड़ रही है जो इनके शक को और पक्का कर रही है। भक्त जी के सारे शबदों (अभंगा) का संग्रह जो महाराष्ट्र में मिलता है, और जिसका नाम ‘गाथा’ है उसकी बोली मराठी है। पर, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में नाम देव जी के जो शब्द दर्ज हैं उनमें से थोड़े ही हैं जिनमें मराठी के आम शब्दों का प्रयोग हुआ है, बाक़ी के शब्द भारत की साझी बोली के ही हैं। इन सज्जनों को ये मुश्किल बनी हुई है कि महाराष्ट्र में जन्मे-पले नामदेव ने ‘मराठी’ के अलावा यह दूसरी बोली कहाँ से सीख ली थी?
यहाँ हमने अब ये विचार करना है कि क्या नामदेव नाम के दो व्यक्ति हुए हैं . . .? एक वो जो महाराष्ट्र में ही रहा और दूसरा नामदेव पहले नामदेव जी का ही सिख, जो पंजाब आ के बसा।
रमते संतों-साधों से मेल:
ये एतराज़ कोई ख़ास वज़नदार नहीं कि चूँकि महाराष्ट्र में ‘मराठी’ बोली के अलावा किसी और बोली के पढ़ाने का प्रबंध नहीं था इस वास्ते नामदेव सारे भारत में समझे जा सकने वाली बोली कहीं से सीख नहीं सकता था। सतिगुरु नानक देव जी अपने गाँव के पाधे के पास बहुत थोड़ा समय ही पढ़े और मौलवी के पास भी बहुत कम। पर उन्होंने जब 1507 में पहली ‘उदासी’ आरम्भ की तो पूरे आठ साल में भारत का चक्कर लगाया, बंगाल, आसाम और मद्रास भी गए, सिंगलाद्वीप भी पहुँचे, वापसी में बम्बई प्रांत में से गुज़रे। यहीं तो उन्होंने भक्त नामदेव जी की सारी वाणी ली थी। अगर इन सारे प्रांतों के बाशिंदों के साथ सतिगुरु जी ने बातचीत नहीं करनी थी, उन्हें अपने विचार से अवगत नहीं कराना था, तो इतनी लम्बी और मुश्किल यात्राएँ करना, इतनी तकलीफ़ें बरदाश्त करना; ये सब कुछ व्यर्थ ही था। दरअसल बात ये है कि तलवंडी के साथ के जंगल में भारत से दूर-दूर के इलाक़ों में से जो साधु आते रहते थे, उनके साथ सतिगुरु जी को बातचीत, विचार करने का मौक़ा हमेशा मिला रहता था। इस तरह सहज-सुभाय ही भारत के बाक़ी प्रांतों की बोलियों से उनकी जान-पहचान होती गई। साधु लोग किसी एक जगह पर नहीं बैठे रहते। उनका धार्मिक उद्देश्य ही यही है कि जहाँ तक हो सके धरती का भ्रमण किया जाए। जैसे कि वे पंजाब में चक्कर लगाते हैं वैसे ही भारत के अन्य इलाक़ों में भी जाते हैं। ये क़ुदरती बात है कि बंदगी वाले बंदे इन साधु लोगों को भी मिलते रहते हैं। सो, इसी तरह महाराष्ट्र में रहते हुए भी नामदेव जी की भारत की अन्य बोलियों के साथ जान-पहचान होती गई होगी। ये बात उस वक़्त के अन्य साधुओं पर लागू होती है।
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब दर्पण, टीकाकार: प्रोफ़ेसर साहिब सिंह। अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईखेल से साभार)
संत नामदेव के हिंदी पदों की कुछ उदाहरण निम्नलिखित है:
पद 1:
दुध पीवोरे मेरे गोविंदराय॥
काला बछेरा कपीला गाय, दुध दुहावन नामा जाय॥
सुन्ने काटुरा दुधने भरीया, पिवौ नारायण आगे धरीया॥
पखान की मुरत दुध नहीं पीवत, शीर पछार पछार नामा रोवत॥
ऐसा भक्त मैं कबहू न पाया, नामदेव न देव हुसाया॥
व्याख्या:
इस पद में संत नामदेव भगवान कृष्ण की भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाते हैं। वे भगवान कृष्ण के लिए इतना प्रेम करते हैं कि वे उनके लिए दूध लेकर आते हैं और उन्हेंं दूध पिलाने के लिए बहुत उत्सुक होते हैं। वे भगवान कृष्ण की मूर्ति के सामने दूध रखकर रोते हैं क्योंकि मूर्ति दूध नहीं पीती है।
पद 2:
गज म्रिग मीन पतंग अलि, इकतु इकतु रोगि पचंदे।
माणस देही पंजि रोग, पंजे दूत कुसूतु करंदे।
आसा मनसा डाइणी, हरखु सोगु बहू रोग वधंदे।
मनमुख दूजै भाइ लगि, भंभलभूसे खाइ भवंदे।
सतिगुरु सचा पातिशाह, गुरमुख गाड़ी राहु चलंदे।
साध संगति मिलि चलणा, भजि गऐ ठग चोर डरंदे।
व्याख्या:
इस पद में संत नामदेव मनुष्य के शरीर में व्याप्त पाँच प्रकार के रोगों का वर्णन करते हैं। ये रोग हैं:
काम-कामना, इच्छा,
क्रोध-क्रोध, घृणा
लोभ-लालच, स्वार्थ
मोह-आसक्ति, मोह
अविश्वास-संदेह, अज्ञान
संत नामदेव कहते हैं कि ये रोग मनुष्य के जीवन को दुखमय बना देते हैं। इन रोगों से मुक्ति पाने के लिए हमें सच्चे गुरु के मार्गदर्शन में चलना चाहिए और सत्संग में रहना चाहिए।
जब देखा तव गावा, तर जन धीरुज पावा॥
नादि समाइलो रे सतगुर भेटिले देवा॥
जह झिलिमिल कारु दिसंता॥
तह अनहद सबद बजंता॥
जोति जोति समानी, मैं गुर परसादी जानी॥
रतन कमल कोठरी, चमकार बीजुल तही॥
नेरे नाही दूरि, निज आतमै रहिआ भरपूरि॥
जह अनहत सुर ऊजयारा, तह दीपक जलै घीया॥
गुर परसादी जानिआ, जनु नामा सहज समानिआ॥
(संत नामदेव)
पद की व्याख्या:
इस पद में संत नामदेव अपने गुरु के मिलन का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि जब उन्होंने अपने गुरु को देखा, तो उन्हेंं बड़ी शान्ति और स्थिरता मिली। उनके मन में सभी भ्रम और अज्ञान दूर हो गए। वे कहते हैं कि उनके गुरु ही सच्चे भगवान हैं।
पद के पहले दो चरण में संत नामदेव कहते हैं कि जब उन्होंने अपने गुरु को देखा, तो उन्हेंं बड़ी शान्ति और स्थिरता मिली। वे कहते हैं कि उनके मन में सभी भ्रम और अज्ञान दूर हो गए। वे कहते हैं कि वे अपने गुरु के मिलन से बहुत ख़ुश हैं।
पद के तीसरे और चौथे चरण में संत नामदेव कहते हैं कि उनके गुरु ही सच्चे भगवान हैं। वे कहते हैं कि उनके गुरु के पास अनहद शब्द बजता है। वे कहते हैं कि उनके गुरु के पास ज्योति ज्योति समान है। वे कहते हैं कि वे अपने गुरु के मिलन से बहुत धन्य हैं।
पद के पाँचवें और छठे चरण में संत नामदेव कहते हैं कि उनके गुरु के पास रतन कमल कोठरी है। वे कहते हैं कि उनके गुरु के पास चमकार बीजुल है। वे कहते हैं कि उनके गुरु के पास निज आतमै रहिआ भरपूरि है। वे कहते हैं कि उनके गुरु के पास अनहत सुर ऊजयारा है।
पद के सातवें और आठवें चरण में संत नामदेव कहते हैं कि उनके गुरु के मिलन से उन्हेंं बड़ी शान्ति और स्थिरता मिली है। वे कहते हैं कि वे अपने गुरु के मिलन से बहुत ख़ुश हैं। वे कहते हैं कि वे अपने गुरु के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर देते हैं।
माइ न होती बापु न होता करमु न होती काइआ॥
हम नहीं होते तुम नहीं होते कवनु कहांते आइआ॥
राम कोई न किसही केरा॥
जैसे तरुवर पंखि बसेरा॥
चंदू न होता सुरु न होता पानी पवनु मिलाइया॥
न होता बेदु न होता करमु कहाँ ते आइया॥
खेचर भूचर तुलसीमाला गुर परसादी पाइआ॥
नामा प्रणवै परम ततु है सतिगुर होइ लखाइआ॥
पद की व्याख्या:
इस पद में संत नामदेव कहते हैं कि हम सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। हम सभी एक ही परम तत्त्व से उत्पन्न हुए हैं। हमारे माता-पिता, हम स्वयं, और सभी अन्य प्राणी, सभी एक ही परम तत्त्व के अंश हैं।
पद के पहले दो चरण में संत नामदेव कहते हैं कि अगर हमारे माता-पिता नहीं होते, तो हम भी नहीं होते। अगर हमारे द्वारा किए गए कर्म नहीं होते, तो हम भी नहीं होते। वे कहते हैं कि हम सब एक दूसरे के कारण ही हैं।
पद के तीसरे और चौथे चरण में संत नामदेव कहते हैं कि भगवान राम भी किसी के नहीं हैं। वे सभी प्राणियों के लिए एक ही हैं। वे कहते हैं कि भगवान राम की तरह, हम सभी एक ही परम तत्त्व के अंश हैं।
पद के पाँचवें और छठे चरण में संत नामदेव कहते हैं कि अगर सूर्य और चंद्रमा नहीं होते, तो पानी और हवा नहीं मिलते। अगर वे नहीं होते, तो हम सब भी नहीं होते। वे कहते हैं कि सभी प्राणी एक दूसरे पर निर्भर हैं।
पद के सातवें और आठवें चरण में संत नामदेव कहते हैं कि अगर वेद और कर्म नहीं होते, तो हम सब भी नहीं होते। वे कहते हैं कि ये सब एक ही परम तत्त्व से उत्पन्न हुए हैं। वे कहते हैं कि हम सब एक ही परम तत्त्व के अंश हैं।
पद के नौवें और दसवें चरण में संत नामदेव कहते हैं कि हमें सच्चे गुरु की कृपा से ही इस परम तत्त्व का अनुभव होता है। वे कहते हैं कि हम सभी सच्चे गुरु की कृपा से एक ही परम तत्त्व में मिल सकते हैं।
जीवन-आदर्श सारे देश के लिए सांझा:
जो जीवन-आदर्श ये भक्तजन लोगों के सामने रखना चाहते थे और जिस कुर्माग के विरुद्ध आवाज़ उठा रहे थे, उसका सम्बन्ध सारे ही भारत के साथ पड़ रहा था। क़ुदरती तौर पर हरेक भक्त ने यही कोशिश करनी थी कि जहाँ तक हो सके ‘बोली’ वही बरती जाए जो तक़रीबन सारे ही भारत में समझी जा सके। सो जहाँ तक श्री गुरु ग्रंथ साहिब और भक्त नामदेव जी का सम्बन्ध है कोई ऐसा भ्रम करने की आवश्यकता नहीं है कि नामदेव जी के ये शब्द ‘मराठी’ के इलावा किसी और बोली में कैसे हो गए। इस बात में तो कोई शक नहीं कि नामदेव जी के शब्दों में ‘मराठी’ के शब्द मौजूद हैं। फिर ये भी बताया जाता है कि भक्त जी की ‘गाथा’ में कई शब्द ऐसे हैं अगर श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हुए शब्दों के साथ उनका मुक़ाबला करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि ये महाराष्ट्र की मराठी में से अनुवाद किए हुए हैं। पर ये जरूरी नहीं कि कोई दूसरा मनुष्य भक्त जी के शब्दों का अनुवाद करता।
उस समय के हालात के अनुसार:
उस समय के हालात के अनुसार इन बातों का सभी भक्त प्रचार कर रहे थे और नामदेव जी भी करते रहे, वह तीन चार ही थे: 1. वही नीच जाति के भेदभाव के विरुद्ध, 2. कर्मकांड का पाखंड खोलना, 3. मूर्ति पूजा से हटा के लोगों को एक परमात्मा की भक्ति की तरफ़ प्रेरित करना। नामदेव जी महाराष्ट्र में ये प्रचार करते रहे। जब बाहर अन्य प्रांतों में दौरा किया, तो भी यही बातें व यही प्रचार था। स्वतः ही मराठी बोली वाले व दूसरी बोली वाले शब्दों का भाव आपस में मिलता गया।
गुरु ग्रंथ साहिब में से गवाही:
जब हम भक्त नामदेव जी के बारे में श्री गुरु ग्रंथ साहिब में से मिल रही गवाही को ध्यान से विचारते हैं, तो यहाँ से दो नामदेव साबित नहीं हो सकते। भक्त कबीर जी और रविदास जी अपने वक़्त को अन्य प्रसिद्ध भक्तों का भी वर्णन करते हैं। प्रतीत होता है कि चौदहवीं व पंद्रहवीं सदी में सारे भारत के अंदर नीच जाति के लोगों पर सदियों से ब्राह्मणों के द्वारा हो रही अति की ज़्यादती के विरुद्ध एक बग़ावत सी हो गई थी। चारों तरफ़ से निर्भय व निडर लोग इस अत्याचार के ख़िलाफ़ बोल उठे और लगे-हाथ उन्होंने इस सारे ही भ्रम-जाल का पोल खोलना भी आरम्भ कर दिया। ये क़ुदरती था कि ये हम-ख़्याल, शेर-मर्द आपस में एक-दूसरे की हामी भी भरते। भक्त कबीर और रविदास जी नामदेव जी के बाद के वर्षों में हुए। सो, उन्होंने बेणी और त्रिलोच आदि भगतों का वर्णन करते हुए नामदेव जी का हवाला दिया है। पर उन्होंने सिर्फ़ एक ही नामदेव जी का ज़िक्र किया है, शब्द ‘नामा’ अथवा ‘नामदेव’ ‘एकवचन’ में ही बरता है।
यहाँ ये भी कहा जा सकता है कि पंजाब वाले नामदेव का भक्त कबीर और रविदास जी को शायद पता ही ना लग सका हो। महाराष्ट्र वाले भक्त नामदेव जी के बारे में ये बात पक्की है कि उनके शब्द गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं, क्योंकि मराठी बोली प्रत्यक्ष मिलती है, ख़ास तौर पर धनासरी राग के शब्द ‘पहिल पुरीऐ’ में। अगर कोई दूसरा नामदेव हुआ भी है, और उसके शब्द सतिगुरु जी ने दर्ज किए हैं, तो सतिगुरु जी को पक्की ख़बर होनी चाहिए कि नामदेव दो हैं। पर वे भी जहाँ-जहाँ वर्णन करते हैं, एक ही नामदेव का करते हैं। शब्द ‘नामदेव’ एक वचन में ही बरतते हैं। गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अरजन साहिब और भाट कलसहार; इन सबने नामदेव का वर्णन किया है, पर एक ही नामदेव का। सो, गुरु ग्रंथ साहिब में एक ही नामदेव की वाणी दर्ज है। वह कौन सा नामदेव? जो जाति का छींबा था, जिसे एक बार किसी मन्दिर में से निकाल दिया गया था, जिसको किसी सुल्तान ने गाय जीवित करने के लिए ललकारा था, और जिसने रोगी गाय का दूध निकाल के अपने गुरु-गोबिंद को पिलाया था।
संत नामदेव जी के कारण अनेक मराठी शब्द श्री गुरु ग्रंथ साहिब में प्रविष्ट हुए है। इसमें ‘बाई’ और ‘आई’ शब्द का समावेश हुआ है।
`मलै न लाछै, पारमलो, परमलीओ बैठो रे आई॥
आवन किनै न पेखिओ, कवनै जाणै, री बाई॥1॥
संत शिरोमणि नामदेव महाराज की बानी का रूप प्राचीन हिंदी का पहला रूप है। संत नामदेव जी की रचनाओं में व्याप्त सहज सरल नाम स्मरण की परंपरा का प्रभाव संत कबीर, संत मीराबाई, संत रैदास जैसे अनेक मध्यकालीन संतों की रचनाओं में पाया जाता है। भक्त परंपरा के सभी संत नामदेव जी को गुरु मानते थे।
संत कबीर तथा संत रैदास आदि सभी ने इनकी महिमा का गान किया है। भक्त रैदास कहते हैं:
नामदेव कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरे।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरि जीउ ते सभै सरै॥
(श्री गुरुग्रन्थ साहिब, पृ. 1106)
अमीर ख़ुसरो की मृत्यु (1325 ई.) के तीन वर्ष बाद पैदा हुए नामदेव की हिन्दी:
“माई न होती, बाप न होते, करम न होता काया
हम नहीं होते, तुम नहीं होते, कौन कहाँ से आया”
तीर्थयात्रा:
संत नामदेव जी ने भारत के अनेक धर्म स्थलों की यात्रा संत ज्ञानेश्वर बंधुओं के साथ मिलकर की थी। संत ज्ञानेश्वर का चरित्र उनकी ‘तीर्थावली अभंग’ रचनाओं में शब्दबद्ध किया है। 12 वीं शताब्दी की देसी हिंदुस्तानी सधुकड़्ड़ी भाषा में अनेक प्रांतीय भाषाओं का प्रभाव था। संत नामदेव जी बहुभाषीक थे। उन्होंने अनेक भारतीय भाषाओं में रचना की है। उदाहरण के स्वरूप निम्नलिखित 5 भाषाओं की गवलन देखें:
5 भाषाओं की गवलन में मराठी, गुजराती, कन्नड़, कोकणी, मुसलमानी दक्खनी
गौळणी ठकविल्या। गौळणी ठकविल्या। एक एक संगतीनें मराठी कानडीया।
एक मुसलमानी। कोकणी। गुजरणी अशा पांचीजणी गौळणी ठकविल्या॥ध्रु.॥
गौळणी सुंदरी। गौळणी सुंदरी। गेल्या यमुनेतीरीं। वस्त्रें फेडूनियां स्नान करिती नारी।
गोविंदानें वस्त्रें नेलीं कळंबावरी। स्नान करोनियां त्या आल्या बाहेरी॥1॥
लडोबा गोविंदा। लडोबा गोविंदा। निरवाणी आज। आडचाल्लो पडचाल्लो।
शीर फोडया न कोडो। मारी कन्हय्या पानी खेळ्या न खेळो॥२॥
देखेरे कन्हय्या। देखेरे कन्हय्या। मैं इज्यतकी बड़ी।
क़दम पकडुंगी। मैंयां कुटीजुडी। मेंरी चुनरी दे मेंरीले दुल्लडी॥३॥
देवकी नंदना देवकी नंदना। तू एक श्रीपती। उघडी हिंवाची तुज विनवूं किती।
पायां पडत्यें बा। मी येत्यें काकुळती। माझी साड़ी दे। घे नाकाचें मोतीं॥४॥
पावगा दाताला। पावगा दाताला। तू नंदाचा झिलो।
माकां फडको दी। मी हिंवान मेंलों। घे माझो कोयतो। देवा पायां पडलों॥५॥
ज्योरे माधवजी। ज्योरे माधवजी। में शरण थई।
तनकाकाकैपी। बाप दयाळ तूही। मारी साड़ी आपो। हातणीले कंकणी॥६॥
इतुकें एकुनी। इतुकें एकुनी। देव बोले हांसोनी। सूर्या दंडवत करा कर जोडुनी।
नामाविनवितो। म्हणे सारंगपाणीं। गौळ्या एक तू। धन्य तुझी करणी॥७॥
राष्ट्रभाषा की आज की समस्या एक तरह से नामदेव ने अपनी कृति से उसी समय हल कर दी थी। माघ शुद्ध द्वितीया को घुमाण में (गुरुदासपुर ज़िले में) एक मेला लगता है। इस नामदेव स्मारक को ‘गुरुद्वारा बाबा नामदेव जी’ कहते हैं। पंजाब में नामदेव संप्रदाय में ‘छीपा’ बुनकर, दर्जी जाति के लोग अधिक मिलते हैं। भागवत धर्म की पताका इस तरह पंढरपुर से पंजाब तक नामदेव ने फहराई। यह एक बहुत बड़ा कार्य है। उन दिनों यातायात के साधन नहीं थे। मुसलमानों के आक्रमणों से और शासन से राजनीतिक और सामाजिक जीवन क्षत-विक्षत और जर्जर हो गया था। इसलिए नामदेव के इस महान कार्य का बड़ा महत्त्व है।
आचार्य शुक्लजी के नामदेव विषयक ये वाक्य अत्यत महत्त्वपूर्ण है—महाराष्ट्र में नामदेव का नाम सबसे पहले आता है। मराठी अभंगों के अतिरिक्त इनकी हिन्दी रचनाएँ प्रचुर मात्रा में मिलती हैं। इन हिन्दी रचनाओं में विशेष बात यह पाई जाती है कि कुछ तो सगुण उपासना तो कुछ निर्गुण उपासना से सम्बन्धित हैं।
विजय नगरकर
प्रभात कॉलोनी, कलानगर, गुलमोहर रोड
सावेडी, अहिल्यानगर, महाराष्ट्र
पिन 414003
- श्री गुरु ग्रंथ साहिब दर्पण, टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह, अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईखेल से साभार
- हिंदी के जनपद संत, रचनाकार: नामदेव, प्रकाशन: मोतीलाल बनारसी दास, संस्करण: 1963
- हिन्दी निर्गुण-काव्य का प्रारम्भ और नामदेव की हिन्दी कविता, लेखक-डॉ. शं. के. आडकर, प्रकाशक रचना प्रकाशन ४५ए, खुल्दाबाद, इलाहाबाद-1
संत शिरोमणि नामदेव की वाणी में मराठी हिंदी का संगम
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