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पसायदान : विश्व प्रार्थना

संत ज्ञानेश्रर जी ने ज्ञानेश्वरी ग्रंथ अर्थात "सटीक भावार्थ दीपिका" पूर्ण करने के उपरांत ईश्वर को जो प्रार्थना लिखी थी, उसे 'पसायदान' से मराठी विश्व में ख्याति प्राप्त हुई है। अत्यंत कष्टदायी जीवन बिताने पर गीता ग्रंथ पर सटीक विवरण प्राकृत मराठी में लिखा। संत ज्ञानेश्वर के पिता जी श्री विठ्ठलपंत कुलकर्णी ने गृहस्थाश्रम से संन्यास लिया था। उनके परिवार और छोटे बच्चों की जानकारी मिलते ही उनके गुरु ने पुनः गृहस्थाश्रम स्वीकारने का आदेश दिया। काशी से लौटकर वे परिवार में शामिल हुए। संत ज्ञानेश्वर को संन्यासी के पुत्र के नाम से जाति से बहिष्कृत किया गया। पैठण की ब्रह्म सभा ने उन्हें जाति से बहिष्कृत किया। उन्होंने सनातन धर्म की ज्योत प्रज्वलित करके आम लोगों में ज्ञान गंगा प्रवाहित की। तत्कालीन आसान प्राकृत भाषा में गीता का ज्ञान प्रवाहित किया जो वर्षों से संस्कृत भाषा की मर्यादा में बँधा हुआ था। संत ज्ञानेश्वर संतों में क्रांतिकारक संत थे जिन्होंने दीन-दुखी आम लोगों के लिए धार्मिक कार्य किया। मराठी के प्रथम आद्य कवि, अनुवादक, समीक्षक, मार्गदर्शक संत ज्ञानेश्वर के चरणों पर पसायदान का हिंदी अनुवाद सविनय सादर प्रस्तुत है। मैं अपनी अल्प-बुद्धि से यह अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ–


विश्वरचयिता ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ
मेरे वाक यज्ञ से संतुष्ट होकर
मुझे अनुग्रहित करके प्रसाद प्रदान करें (1)
 
दुष्टों की दुर्भावना का अंत हो,
सत्कर्म के प्रति दुष्टों की आस्था बढ़े
विश्व में मित्र भाव प्रवाहित होकर
सभी जीवों में मित्रता बढ़े (2)
 
पापी के मन का अज्ञान रूपी अंधकार दूर हो
विश्व में स्वधर्म रूपी उषा काल हो
सभी जीवों की मंगल मनोकामनाएँ पूर्ण हो (3)
 
सर्वत्र मंगल वृष्टि से
सकल विश्व को पुलकित करनेवाले 
ईश्वरनिष्ठ संत
सभी जीवों पर कृपा करें (4)
 
वे सभी सुसंवादी संत कल्पतरु समान
 उद्यान हैं
चेतनारूपी चिंतामणि रत्नों के पुर हैं
अमृत स्वर की गर्जना करनेवाले समुद्र हैं (5)
 
निष्कलंक पूर्णिमा के चंद्र और
ताप रहित सूर्य के समान संत सज्जन
सभी जीवों के मित्र हो जाएँ (6)
 
त्रिलोकों में सर्व सुख सम्पन्न पूर्ण होकर
विश्व के आदि पुरुष की सेवा करें (7)
 
यह ग्रंथ जिनका जीवन है
वे इस विश्व के दृश्य और अदृश्य 
भोग पर विजय प्राप्त करें (8)
 
इति विश्वेश्वर गुरु श्री निवृत्तिनाथ 
आशीर्वाद देकर बोले
यह प्रसाद तुझे प्राप्त हो
यह वर पाकर ज्ञानदेव सुखी हो गया (9)
 

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