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भाषा माझी माता

मूळ हिंदी कविता: भाषा मेरी माँ; कवयित्री: डॉ. शैलजा सक्सेना 
  
माझी  भाषा शोधीत आहे
माझ्यातील माणसाचे तत्व
 
भाषेला आई म्हणतात
तिला हजार डोळे आहेत!
हे माझ्या आईने मला सांगितले होते 
की 
तिला सर्व काही माहित आहे,
ती माझी नस  अन्  नस ओळखते!!
 
मला वाटते 
आमची भाषा सुद्धा आईच आहे
आमच्यातील  ती नस अन्  नस ओळखते,
ती ओळखते 
की
कधी आमच्यात 
आनंदाचे झरे पाजरू लागतात
केव्हा
आम्ही शिवीने अंधारून नाराज होतो
केव्हा
आम्ही उगवत्या सूर्या बरोबर जागे होतो
केव्हा रात्री सोबत झोपी जातो!!
 
आई ओळखून आहे 
केव्हा आमचे गाणे आत्म्यातून गुंजू लागते अन् शरीराच्या वासनेने गाऊ लागते,
ती ओळखते 
आमच्या कवितेत प्रेमाचे पारदर्शी पाणी
किती आहे
अन् 
चमत्काराची कहाणी किती आहे!!
 
आई ओळखून आहे 
आम्ही किती  ऋचा गात आहोत
अन् 
केव्हा तिला तोडून मोडून आपल्या साच्यात तिला जबरदस्तीने बसवत आहोत!!
 
आई ओळखून आहे
केव्हा 
आम्ही तिच्या छातीवर पाय देऊन पुढे जात आहोत 
आणि
केव्हा 
आम्ही तिच्यासमोर अपराध स्वीकार करीत आहोत!!
 
आई ओळखून आहे 
केव्हा 
आम्ही तिला आपल्या छंद अलंकारात गात आहोत
अन् 
तिच्या पवित्र रूप कल्पनेत तारा छेडीत आहोत!!
 
आई सर्व काही ओळखून आहे 
आम्ही
 तिच्या श्वासाबरोबरच श्वास घेत आहोत, तिच्या सोबतच रडत-हसत आहोत,
 ती आम्हाला जवळ घेते ,सांभाळते
 आणि प्रत्येक युगात दोन पावले
 पुढे मार्ग आक्रमण करण्याची शक्ती देते!!
 
सत्य हेच आहे की
तिला हजारो डोळे आहेत
ती आम्हाला पाहणे शिकवते 
आणि 
आपल्याला शोधायला,
त्यातच आमचे अस्तित्व गवसले आहे!!
 
खरंच ती आमची आई आहे
 जिच्यामध्ये आम्ही वाढतो
आमचे पालनपोषण होते
अन् 
तिच्या पासून निघणारी आमची यात्रा
आमच्या सत्वा पर्यंत पोहचते.
 

♦     ♦    ♦

भाषा मेरी माँ

 

मराठी अनुवाद:  भाषा माझी माता; अनुवादक: विजय नगरकर

 

मेरी भाषा ढूँढती है
मुझ में मनुष्यता के तत्त्व!
 
माँ कही जाती है भाषा,
तो हज़ारों आँखें हैं उसकी!
यह मेरी माँ ने कहा था
कि वह सब जानती है
मेरी नस नस पहचानती है,
मुझे लगता है,
हमारी भाषा माँ भी
पहचानती है हमारी नस-नस।
 
वह जानती है
कि
कब हम उसमें उल्लास से फूटते हैं
कब
गालियों में रूठते हैं
कब
उगने लगते हैं भोर से,
कब रात से डूबते हैं।
माँ पहचानती है,
कब हमारे गान
आत्मा से निकले हैं
कब
शरीर की वासना से,
कि हमारी कविताओं में
कितना प्रेम का पारदर्शी पानी है,
कितनी चमत्कार की कहानी है,
माँ जानती है
कब हम उसे ॠचाओं सा गाते हैं
और कब उसे
तोड़ मरोड़ कर अपने खाँचे में
ज़बरदस्ती बिठाते हैं,
माँ जानती है
जब बढ़ जाते हैं हम, उसकी छाती पर पाँव रख कर
जब हम झुकते हैं उसके आगे
अपने अपराध स्वीकार कर।
माँ जानती है
जब हम उसे सजाते हैं
अपने छंदों, अलंकारों से,
गीत गाते हैं,
उसके पवित्र रूप के कल्पना की तारों से।
माँ सब जानती है,
हम उसी में साँस लेते हैं
रोते हैं, हँसते हैं
वो हम को समेटती है, सँभालती है
और हर युग में दो क़दम आगे बढ़ाती है।

सच ही है,
उसकी हज़ारों आँखें होती हैं,
वह हमें देखना सिखाती है
और अपने को पाना,
उसी में हमने अपने को जाना।
 
सच ही वो माँ है,
जिसमें हम पलते हैं, बढ़ते हैं,
उस से हो कर, उस में,
अपने तक चलते हैं!!

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