शुषा फ़ॉन्ट: ऑनलाइन हिंदी साहित्य की डिजिटल उड़ान का अनसुना इंजन!
आलेख | काम की बात विजय नगरकर1 Oct 2025 (अंक: 285, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
कल्पना कीजिए, 1990 के अंत और 2000 की शुरूआत का दौर। इंटरनेट अभी-अभी भारत में पंख फैला रहा था, लेकिन हिंदी? वो तो जैसे डिजिटल दुनिया की साइडलाइन पर खड़ी थी। वेबसाइट्स अंग्रेज़ी में चमक रही थीं, मगर हिंदी साहित्य–कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास–को ऑनलाइन लाना एक दूर का सपना लगता था। तभी, एक छोटा-सा फॉन्ट आया और सब बदल गया! जी हाँ, हम बात कर रहे हैं ‘शुषा फॉन्ट’ की, जिसने प्री-यूनिकोड युग में हिंदी को इंटरनेट पर जीवंत किया। ये सिर्फ़ अक्षरों का सेट नहीं था; ये हिंदी साहित्य के ऑनलाइन विस्तार का गुमनाम हीरो था। आइए, इस रोमांचक कहानी में डुबकी लगाते हैं, जहाँ एक फॉन्ट ने करोड़ों शब्दों को डिजिटल पंख दिए!
जन्म और जादू: शुषा का उदय
शुषा फॉन्ट का जन्म हुआ था हर्ष कुमार की मेहनत से, जो भारतीय रेलवे में काम करते हुए इस क्रांतिकारी टूल को विकसित किया। 1990 के मध्य में रिलीज़ हुआ ये फॉन्ट नॉन-यूनिकोड था, लेकिन इसका फोनेटिक सिस्टम कमाल का था—अंग्रेज़ी कीबोर्ड से ही हिंदी टाइप करो, जैसे ‘kavita’ से ‘कविता’ बन जाए! इससे पहले, हिंदी लिखना मतलब स्पेशल कीबोर्ड या जटिल सॉफ़्टवेयर। शुषा ने इसे इतना आसान बनाया कि कोई भी लेखक, कवि या ब्लॉगर मिनटों में सीख जाता।
लेकिन असली कमाल तो ऑनलाइन दुनिया में हुआ। उस दौर में यूनिकोड नहीं था, तो वेबसाइट्स पर हिंदी डिस्प्ले करना चुनौती थी। शुषा ने HTML टैग्स जैसे <FONT FACE=“Shusha“> से हिंदी टेक्स्ट को ब्राउजर्स में चमकाने का रास्ता खोला। नतीजा? हिंदी वेबसाइट्स का जन्म! कई शुरूआती हिंदी साइट्स ने शुषा को अपनाया, जिससे कविताएँ, कहानियाँ और साहित्यिक चर्चाएँ ऑनलाइन पहुँचीं।
सोचिए, बिना शुषा के, हिंदी ब्लॉग्स या ई-बुक्स का क्या होता? ये फॉन्ट ने हिंदी साहित्य को घर-घर पहुँचाया, ख़ासकर उन द्विभाषी यूज़र्स के लिए जो अंग्रेज़ी से हिंदी स्विच करना चाहते थे।
साहित्यिक विस्तार: शब्दों को इंटरनेट पर अवतार
शुषा का सबसे बड़ा योगदान था हिंदी साहित्य को डिजिटल बनाने में। 1990 के अंत और 2000 की शुरूआत में, कई हिंदी वेबसाइट्स शुषा पर निर्भर थीं।
उदाहरण के लिए, कविताओं की साइट्स जहाँ यूज़र्स अपनी रचनाएँ अपलोड करते थे, या साहित्यिक फ़ोरम जहाँ क्लासिक्स जैसे प्रेमचंद की कहानियाँ शेयर होतीं—सब शुषा की बदौलत। ये फॉन्ट ने ‘रोमन हिंदी’ से टाइपिंग को इतना सरल बनाया कि लेखक बिना टेक्निकल झंझट के क्रिएट कर पाते।
उस समय हिंदी कार्यशालाओं और सरकारी प्रोजेक्ट्स में शुषा ने राजभाषा को बढ़ावा दिया। लेखक अपनी किताबें एमएस वर्ड में टाइप करते, फिर वेब पर डालते। इससे हिंदी ई-लाइब्रेरीज़ का आधार पड़ा, जहाँ क्लासिक साहित्य जैसे ‘गोदान’ या ‘रश्मिरथी’ डिजिटल फ़ॉर्म में उपलब्ध हुआ। शुषा ने न सिर्फ़ टाइपिंग आसान की, बल्कि डिस्प्ले को भी, जिससे ऑनलाइन रीडिंग पॉपुलर हुई। परिणामस्वरूप, हिंदी साहित्य का विस्तार हुआ—गाँवों से शहरों तक, भारत से विदेशों तक।
ये था वो दौर जब हिंदी इंटरनेट पर ‘माइनॉर’ से ‘मेजर’ बनी!
चुनौतियाँ और विरासत: यूनिकोड का आगमन
बेशक, शुषा की अपनी सीमाएँ थीं। ये नॉन-यूनिकोड था, तो आधुनिक सिस्टम्स में कंपैटिबिलिटी इश्यूज आते। लेकिन आज भी कन्वर्टर्स जैसे शुषा-टू-यूनिकोड टूल्स (अनुनाद सिंह और नारायण प्रसाद द्वारा विकसित) पुराने टेक्स्ट को बचाते हैं।
यूनिकोड के आने के बाद मंगल जैसे फॉन्ट्स ने जगह ली, लेकिन शुषा की विरासत बाक़ी है—ये हिंदी डिजिटल साक्षरता का पिता है।
आज जब हम हिंदी ब्लॉग्स पढ़ते हैं या ऑनलाइन किताबें डाउनलोड करते हैं, याद कीजिए शुषा को। ये फॉन्ट ने साहित्य को बंधनों से मुक्त किया, और करोड़ों शब्दों को इंटरनेट की उड़ान दी। अगर आप हिंदी लेखक हैं, तो शुषा ट्राई कीजिए–पुरानी यादें ताज़ा हो जाएँगी, और समझ आएगा कि डिजिटल क्रांति कैसे छोटी शुरूआतों से होती है!
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