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संत तुकाराम का राजा रवि वर्मा द्वारा चित्र

यह सबसे पुराना चित्र है जो सन 1832 में वारकारी तुकाराम भक्त हैबतबाबा अरफालकर के हस्तलिखित ग्रंथ पर छपा था। ( वीणा लेकर कीर्तन करते हुए, खड़ी मुद्रा में।)

सुप्रसिद्ध दिग्दर्शक,चित्रकार सत्यजीत रे ने संत तुकाराम का चित्र विशेष रूप से डॉ भालचंद्र नेमाडे द्वारा लिखित तुकाराम मोनोग्राफ के कवर के लिए बनाया था। इसे 1975 में साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया था। संयोग से सत्यजीत रे नंदलाल बोस के छात्र थे। ( भजन करते हुए आसनस्थ मुद्रा, B/W)

भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट

महात्मा गांधी जी के विशेष अनुरोध पर शांतिनिकेतन के सुप्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस का चित्र।

आधुनिक संत तुकाराम मन्दिर

आधुनिक संत तुकाराम मन्दिर संत तुकाराम मूर्ति

आधुनिक संत तुकाराम मन्दिर संत तुकाराम मूर्ति पास से

जगद्‌गुरु संत तुकाराम महाराज संस्थान महाद्वार

जगद्गुरु संत तुकाराम

पंढरपुर स्थित विठ्ठल भगवान के वारकरी संप्रदाय के प्रमुख संतों में संत तुकाराम का नाम बहुत आदरपूर्वक लिया जाता है। संत तुकाराम को आदरपूर्वक 'तुकोबा' भी बोला जाता है जैसे विठोबा, चोखोबा। अंतिम शब्द 'बा' अर्थ आदर वाचक बाबा, बाप के अर्थ में जोड़ा जाता है। हर वर्ष आषाढ़ एकादशी को विठ्ठल भक्त पैदल यात्रा करते हैं जिसे वारकरी संबोधित किया जाता है। वारकरी सम्प्रदाय के घोष वाक्य में संत ज्ञानेश्वर के साथ संत तुकाराम का नाम किसी भी कीर्तन, प्रवचन अथवा धार्मिक कार्यक्रम में उद्घोषित किया जाता है। 

पुंडलिक वरदा हरी विठ्ठल श्री ज्ञानदेव तुकाराम। 
पंढरीनाथ महाराज की जय!

जब हिन्दुस्तान पर विदेशी शक्तियों का आक्रमण हुआ, मंदिर, पूजा स्थल को तोड़ा जा रहा था, मूर्ति ध्वस्त की जा रही थी, हज़ारों वर्षों की धर्म श्रद्धा पर कुठाराघात होने लगा था, तब महाराष्ट्र की भूमि पर भागवत धर्म की ध्वजा संत ज्ञानेश्वर, एकनाथ, नामदेव और तुकाराम ने जनमानस में फहरायी थी। 

संत कृपा झाली। इमारत फळा आली॥
ज्ञानदेवे घातला पाया। उभारिले देवालया॥
नामा तयाचा किंकर। तेणे केला हा विस्तार॥
जनार्दन एकनाथ। खांब दिला भागवत॥
तुका झालासे कळस। भजन करा सावकाश॥
बहेणी फडकते ध्वजा। निरुपण आले ओजा॥
(संत तुकाराम की शिष्या बहिणाबाई)

अर्थात्‌:

संत कृपा से भागवत धर्म भवन निर्मित हुआ। 
ज्ञानदेव ने नींव रखी, मंदिर स्थापित किया। 
नामदेव ने कंकर होकर विस्तार किया। 
जनार्दन एकनाथ हुए स्तंभ। 
तुकाराम हुए कलश। 
एकाग्र होकर शांत चित्त से भजन करें। 
बहिणा हुई ध्वज, प्रवचन हुआ प्रासादिक। 

संत तुकाराम को महाराष्ट्र की संत परंपरा में भागवत धर्म का कलश माना गया है। भक्त भगवान के दर्शन करने से पहले प्रथमतः कलश का दर्शन करते हैं। 

संत तुकाराम का जन्म पुणे ज़िले के देहु गाँव में सन्‌ 1608 में हुआ था। 

पिता का नाम बोल्होबा (बालोबाबावा) माता का नाम कनकाई है। उपनाम अंबिले (मोरे)। पूर्वजों से अपने परिवार में विट्ठल भक्ति, एकादशी का व्रत और पंढरी की आषाढ़ी-कार्तिकि वारी की विरासत मिली थी। सुखसम्पन्न किसान परिवार में महाजनी, साहूकारी और व्यापार उद्यम था। 

तुकाराम महाराज सुसंस्कृत और प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य थे। उनके साहित्य में संस्कृत, पतंजलि योग और प्राकृत ग्रंथों के अनेक उदाहरण मिलते हैं। 

परिवार में पूर्वजों द्वारा स्थापित पांडुरंग मंदिर के कारण उन्हें कम उम्र में ही वहाँ होने वाले दैनिक भजन, कीर्तन और पुराणों का संस्कार प्राप्त हुआ था। 

इतिहासकार लिखते है कि तुकाराम का प्रथम विवाह 14 वर्ष के काल में रखमाई से हुआ था। पहली पत्नी बहुत कमज़ोर और बीमार रहती थी। तुकाराम अपनी आत्मकथा अभंग (अभंग क्रमांक 1333) में कहते हैं कि अकाल के कारण उनकी पहली पत्नी और बेटे की मृत्यु भूख से हुई थी। उसके मृत्यु के उपरांत उनका दूसरा विवाह पुणे ज़िले के खेड़ के अप्पाजी गुलवे के अवलाई नाम की लड़की से संपन्न हुआ। तुकाराम के बड़े भाई सावजी अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद तीर्थ यात्रा पर गए और वापस नहीं लौटे। 

अतः सत्रह वर्ष की अल्पायु में ही व्यापार सहित समस्त लोकों का भार तुकाराम पर पड़ गया। 

1630-31 में महाराष्ट्र में भीषण अकाल पड़ा। व्यापार, उद्यम बंद हुआ। परिवार कर्ज़दार बन गया। लोगों से गाली-गलौज होने लगी। इसलिए उन्होंने भगवान के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। बचपन से ही अध्यात्म के संस्कार जागृत हुए और वे अध्यात्म के मार्ग पर सक्रिय हुए। पढ़ने की ललक शुरू हो गई। वे एकांत में रहने लगे। देहु के आसपास सह्याद्री के कई खूबसूरत पहाड़ हैं। उनके पास जाकर वे पठन-ध्यान-चिन्तन में लीन रहने लगे। वे देहू के उत्तर में भामनाथ या भामचंद्र पहाड़ी पर एक गुफा में बस गए। यहीं पर उन्होंने गीता, भागवत, ज्ञानेश्वरी, एकनाथी भागवत, नामदेव की गाथा, योग वशिष्ठ, रामायण, दर्शन आदि का अध्ययन किया। परिवार की मोह माया से दूर रहने लगे। उन्हें संतों और हरि भक्तों की संगति मिल रही थी। 

जिस तरह उत्तर भारत में संत कबीर की रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों, अंधश्रद्धा और ढोंग पर प्रहार किया गया, उसी तरह संत तुकाराम की रचनाओं में क्रांतिकारी और समाज को जागरूक करने का भाव पाया जाता है। 
संत तुकाराम की भक्ति रचनाओं में समृद्ध लोक भाषा की मिठास, अनुभवजन्य प्रसंग और गहन आध्यात्मिक विचार अत्यंत सरल, सहज भाषा में प्रकट होते हैं। उनकी रचनाओं की लोकप्रियता मौखिक परंपरा के अनुसार सभी भागवत धर्मीय वारकरी पंथ में दृष्टिगोचर होती है। तुकाराम कृत गाथा का मुख्य आधार सर्व साधारण आम जन की भाषा है। मराठी 'अभंग' का अर्थ वह काव्य जिसका कभी भंग नहीं होता जो चिरंजीव कालातीत रचना है। मराठी भक्ति साहित्य में अभंग की परंपरा संत तुकाराम द्वारा सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हुई है। 

समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंध श्रद्धा, जातिभेद, वर्ण अभिमान का सभी संतों ने विरोध किया है। संतों के विचारों का विरोध तत्कालीन ज्ञाति बांधव, सनातनी ब्राह्मणों ने किया है। संत तुकाराम के जीवन में उनके विरोधी मम्बाजी, रामेश्वर भट ने भी बाधा उत्पन्न की थी। एक किंवदंती के अनुसार रामेश्वर भट का कहना था कि तुकाराम जन्म से ब्राह्मण नहीं थे, इसलिए वेदों का ज्ञान देने का उन्हें अधिकार नहीं है। इसलिए उन्होंने गाथा इंद्रायणी नदी में विसर्जित करने का 'जल दंड' दिया था। माना जाता है कि 13 दिवस उपवास करने के बाद तुकाराम की विसर्जित गाथा स्वयं इंद्रायणी देवी ने पुनः सुपुर्द की थी। रामेश्वर भट कुछ दिनों के बाद संत तुकाराम के शिष्य बन गए। वे तब-से संत तुकाराम को 'जगद्गुरु' उपाधि से संबोधित करने लगे। 

संत तुकाराम की गाथा की लोकप्रियता सुनकर छत्रपति शिवाजी महाराज ने उनकी भेंट पुणे के एक कीर्तन कार्यक्रम के दौरान हुई। शत्रु की नज़र छत्रपति शिवाजी पर थी। जान जोखिम में डालकर उन्होंने संत तुकाराम से भेंट की। इस भेंट के दौरान उन्होंने संत तुकाराम को स्वर्ण मुद्रा, आभूषण आदि संपत्ति भेंट की। तब संत तुकाराम ने उस नज़राने को मृत्तिका समान मानकर सविनय पूर्वक नामंज़ूर किया। इस संबंध में उन्होंने लिखा है कि:

आता पंढरिराया। येथे मज गोविसी कासया॥
आम्ही तेणे सुखी। म्हणा विठ्ठल विठ्ठल मुखी॥
तुमचे येर ते धन। ते मज मृत्तिकेसमान॥

(पंढरीनाथ अब मुझे इस मोह में क्यों डाल रहे हो, हम तो विठ्ठल विठ्ठल नाम स्मरण में सुखी है। आपके लिए यह धन है, लेकिन मेरे लिए यह मृत्तिका समान है। )

 

तुकाराम गाथा का संकलन और संपादन

गाथा की रचना मौखिक परंपरा के अनुसार लोक मानस में रूढ़ हो गई थी। इस गाथा का संकलन करने का महान कार्य तुकाराम के शिष्य संताजी जगनाडे तेली ने किया है। 1787 में तुकाराम भक्त त्र्यम्बक कासार ने गाथा को शब्द बद्ध किया। 

गाथा की प्रथम मुद्रित आवृत्ति 'ज्ञान चंद्रोदय' ने 1844 में प्रकाशित की थी जिसमें 62 अभंगों को शामिल किया गया था। 1867 में शंकर पांडुरंग पंडित को 4500 अभंगों का संपादन का कार्य अँग्रेज़ अधिकारी अलेग्ज़ेण्डर ग्रैंट ने सौंपा था। 

1896 में कृष्णराव अर्जुन केलुस्कर लिखित 'तुकाराम बावाचे चरित्र' ग्रंथ 'सुबोध प्रकाशन छाप खाना' मुंबई में लक्ष्मणराव पांडुरंग नागवेकर ने प्रकाशित किया था। 

महाराष्ट्र सरकार ने गाथा का अधिकृत प्रकाशन पु मा लाड के संपादन में 1950 को किया था जिसे शासकीय अधिकृत गाथा मानी जाती है। 

हिन्दुस्तान अकादमी, इलाहाबाद ने हरि रामचंद्र दिवेकर लिखित हिंदी पुस्तक 'संत तुकाराम' 1950 प्रकाशित किया है। 

 

संत तुकाराम स्तुति

संत तुकाराम के कार्य और जीवनी के बारे में अनेक मराठी कवियों और संतों ने स्तुति रचनाएँ की है। तुकाराम के व्यक्तित्व के बारे में जानकारी हेतु इन स्तुति, प्रशंसा साहित्य का विशेष महत्व है। 

इसमें प्रमुख बहिनाबाई, कवि मोरोपंत, संत निळोबाराय, कवि अरुण कोलटकर, कवि दिलीप चित्रे, रंगनाथ स्वामी, मराठी शाहिर होनाजी बाळा, रेव्हरंड रानडे, 

Says Tuka by Dilip Chitre have been included in the The Longman Anthology of World Literature Volume C The Early Modern Period published by Pearson Longman, New York.

 

संतचरित्रकार महिपती ताहराबादकर (1715-1790)

मराठी के संत महिपती ने उत्तर भारत और महाराष्ट्र के 284 संतों का चरित्र काव्य लिखा है। संत महिपती ने उल्लेख किया है कि संत तुकाराम ने उन्हें स्वप्न दृष्टांत देकर आदेश दिया था कि मेरा संत चरित्र लेखन का अधूरा काम पूर्ण करें। उनके 'भक्त विजय' और 'भक्तलीलामृत' ग्रंथ संत तुकाराम चरित्र लिखा है। यह चरित्र अनेक दृष्टि से मानक माना जाता है। ईसाई धर्मगुरु रे.जस्टीन एडवर्डस एबोट ने मराठी पत्रिका 'ज्ञानामृत' हेतु महाराष्ट्र संत कवि माला के अंतर्गत संतचरित्रकार महिपती रचनाओं का अँग्रेज़ी में अनुवाद किया जो बाद में Stories of Indian Saints नाम से विश्व प्रसिद्ध हुआ। 

संत महिपती के तुकाराम चरित्र का अँग्रेज़ी अनुवाद सी ए किनकेड (C A Kincaid C.V.O.) ने अपनी पुस्तक 'Tales of the saints of Pandharpur' में किया है जो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित किया है। 

संत तुकाराम के मराठी अभंग आम जन में अत्यंत लोकप्रिय और मौखिक भक्ति की ज्ञानसंपदा है। मराठी भाषा को समृद्ध करने का महान कार्य तुकाराम की गाथा ने किया है। उनकी कुछ रचनाएँ सादर प्रस्तुत है:

 

आम्हा घरी धन शब्दांची रत्ने। 
शब्दांची शस्त्रे यत्न करू॥१॥
 
शब्दची आमुच्या जीवाचे जीवन। 
शब्दे वाटू धन जनलोका॥२॥
 
तुका म्हणे पाहा शब्दची हा देव। 
शब्देची गौरव पूजा करू॥३॥

अर्थात्‌:

हमारे घर शब्दों का धन और रत्न, 
करेंगे शब्दों के शस्त्र शब्दों का यत्न। 
 
शब्द ही आत्मा, हमारा जीवन
जन लोक को शब्द धन अर्पण। 
 
'तुका' कहे शब्द ही भगवान
शब्दों की गौरव पूजा अर्पण। 
 
****
 
अवघी भूते साम्या आली। देखिली म्या कै होती॥१॥
विश्वास तो खरा मग। पांडुरंग कृपेचा॥ध्रु.॥
 
माझी कोणी न धरो शंका। हो का लोका निर्द्वंद्व॥२॥
विश्वास तो खरा मग। पांडुरंग कृपेचा॥ध्रु.॥
 
तुका म्हणे जे जे भेटे। ते ते वाटे मी ऐसे॥३॥
विश्वास तो खरा मग। पांडुरंग कृपेचा॥ध्रु.॥

 
अर्थ: 

क्या ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है जब मुझे सभी जीवों के स्थान पर एक ही ईश्वर रूप का बोध होगा? ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर ही माना जा सकता है कि मुझे सही मायने में भगवान पांडुरंग की अनन्य कृपा प्राप्त हो गई है। 

जो भी मुझे मिले, उसके मन में मेरे बारे में कोई संदेह न हो। 

सुख-दुःख, भय, निराशा आदि की दृष्टि से समस्त विश्व मेरे प्रति उदासीन रहे। जब ऐसी स्थिति निर्माण होगी, तभी यह माना जा सकता है कि मुझ पर पांडुरंग की दैवी कृपा हुई है। 
 
***
 
वृक्ष वल्ली आम्हां सोयरीं वनचरें। 
पक्षी ही सुस्वरें आळविती॥
येणें सुखें रुचे एकांताचा वास। 
नाही गुण दोष अंगा येत॥
(संत तुकाराम)

 
वन के वृक्ष, लताएँ और समस्त प्राणी जगत हमें बहुत प्रिय हैं
पंछी भी बहुत मिठे सुरों में गीत गा रहे हैं
 
इसी एकान्त में सुख की अनुभूति है
हम किसी गुण दोष से दूर है
 
***
 
संत संग देई सदा
हेंचि दान देगा देवा। तुझा विसर न व्हावा॥
गुण गाईन आवडी। हेंचि माझी सर्व जोडी॥
न लगे मुक्ती आणि संपदा। संत संग देई सदा॥
तुका म्हणे गर्भवासीं। सुखें घालावें आम्हासी॥

 

***

 

अर्थ:

हे ईश्वर, मुझे सदैव संत संग देना, यही दान मुझे देना। तेरा कभी विस्मरण न हो, मैं तेरे गुण गाता रहूँगा। इसी से मेरा जीवन पूर्ण होगा। 

मुझे न मुक्ति चाहिए, न कोई संपदा। मुझे सदैव संत संग देना। 
तुका कहे, मुझे फिर एक बार माँ के गर्भ में स्थान देना। इससे सुख प्राप्त होगा। 
 
***
 
शिव छत्रपती शिवाजी महाराज के सैनिकों के लिए संत तुकाराम ने 'पाईक अभंग' की रचनाएँ की। इस अभंग द्वारा हिंदवी स्वराज्य निर्माण हेतु जागृति निर्माण की। निष्ठावान, प्रामाणिक सैनिकों की मानसिक शक्ति बढ़ाने में पाईक अभंगों का विशेष योगदान रहा है। 
 
उदाहरण स्वरूप
पाईक - अभंग ११-१
 
पाईकपणें जोतिला सिद्धांत। सुर धरी मात वचन चित्तीं॥१॥
पाइकावांचून नव्हे कधीं सुख। प्रजांमध्यें दुःख न सरे पीडा॥२॥
तरि व्हावें पाईक जिवाचा उदार। सकळ त्यांचा भार स्वामी वाहे॥३॥
पाइकीचें सुख जयां नाहीं ठावें। धिग त्यांनीं ज्यावें वांयांविण॥४॥
तुका म्हणे एका क्षणांचा करार। पाईक अपार सुख भोगी॥५॥
 
***

तुकाराम साहित्य के अभ्यासक सुप्रसिद्ध मराठी, अँग्रेज़ी अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कवि दिलीप चित्रे जी का कहना है कि तुकाराम, यक़ीनन मराठी भाषा के सबसे महान कवि हैं। तुकाराम की प्रतिभा के कुछ अंश, विचार तत्व में बाहरी दुनिया के आध्यात्मिक एनालॉग में बदलने की क्षमता है। मराठी साहित्य में तुकाराम का कद अँग्रेज़ी में शेक्सपियर या जर्मन में गोएथे के समकक्ष है। किसी भी अन्य मराठी लेखक की तुलना में तुकाराम का साहित्य निःसंदेह महान है। 

मराठी कविता विश्व एक शैली के रूप में तुकाराम के बिना अधूरी है। 
 
संत तुकाराम के बारे में महात्मा गाँधी जी के विचार

जब महात्मा गाँधी येरवडा कारावास में बंदी थे तब 15-10-1930 से 28-10-1930 कालावधि में उन्होंने कविश्रेष्ठ संत तुकाराम के 16 अभंगों (रचनाओं) का अँग्रेज़ी अनुवाद किया था। उन्हें संत तुकाराम के अभंग प्रिय थे, जो उनके दैनिक प्रार्थना में शामिल थे। 

नागपुर के डॉ. इंदुभूषण भिंगारे और कृष्णराव देशमुख ने ‘श्रीसंत तुकारामांची राष्ट्रगाथा’ संग्रह 1945 को प्रकाशित किया है। इस ग्रंथ की प्रस्तावना में महात्मा गाँधी जी ने लिखा है कि “तुकाराम मुझे बहुत प्रिय हैं।” 

महात्मा गाँधी जी के अनुरोध पर शांतिनिकेतन के सुप्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस ने इस ग्रंथ हेतु संत तुकाराम का चित्र तैयार किया था। 

गाँधीजी के निजी सचिव महादेवभाई देसाई ने अपनी डायरी में लिखा है कि महाराष्ट्र के कुछ समाज सुधारक लोग पंढरपुर में अछूतों के लिए विठ्ठल मंदिर खोलने के बारे में गाँधीजी से बात करने आए थे। महात्मा गाँधी जी ने सूचित किया था कि यह आँदोलन संत तुकाराम की भूमि से शुरू करें। 

सन 1922 में अहमदाबाद के नवजीवन ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित आश्रम भजनावली में तुकाराम के 15 अभंग शामिल हैं। महात्मा गाँधी जी के सुप्रसिद्ध तीन बंदर की परिकल्पना के पीछे संत तुकाराम जी का निम्नलिखित अभंग की प्रेरणा:

"पापाची वासना नको दावू डोळा त्याहुनी आँधळा बराच मी। 
निंदेचे श्रवण नको माझे कानी बधीर करून ठेवी देवा। 

अपवित्र वाणी नको माझ्या मुखा त्याजहुनी मुका बराच मी। 

अर्थात्‌:
 
हे भगवंत, मेरी आँखों के सामने पाप वासना का दर्शन मुझे मत दिखाना, बेहतर होगा कि मुझे अंधा बना दे। 
पर निंदा के शब्द मेरे कानों पर पड़ने से बेहतर होगा कि मुझे बहरा बना दें। 
मेरे मुख से कभी अपवित्र वाणी न निकले, बेहतर होगा कि मुझे गूँगा बना दें। 

महात्मा गाँधी जी ने 'राष्ट्रगाथा' पुस्तक पर अपनी भूमिका में लिखा था:

डॉ. इंदुभूषण भिंगारे ने संत तुकाराम की राष्ट्रगाथा का पहला संस्करण प्रकाशित किया था। वर्तमान संस्करण संशोधित है। मराठी का मेरा ज्ञान बहुत कम है। तुकाराम मुझे बहुत प्रिय हैं। लेकिन मैं बिना किसी प्रयास के उनके कुछ अभंगों को ही पढ़ सका। इसलिए मैंने डॉ. भिंगारे जी का चयन किया। उनका नाम कुंदरजी दीवान को सौंप दिया। जिन्होंने पूरी मेहनत से अभ्यास करके मेरी बात को समझ लिया। गाथा को एक उपयुक्त चित्र की आवश्यकता थी। डॉ. भिंगारे जी ने एक साधारण चित्र चुना था। इससे मुझे बहुत दुख हुआ। मैंने इसे प्रसिद्ध शांतिनिकेतन कलाकार श्री नंदलाल बोस के पास भेजा। उन्होंने मेरे (अनुदित) अभंगों के लिए कृपापूर्वक कुछ चित्र भेज दिए थे। मैंने उनमें से जो सबसे अच्छा सोचा उसे मैंने भिंगारे जी को भेजा। वही चित्र अब इस संस्करण में प्रकाशित किया जाएगा। मुझे आशा है कि यह संस्करण लोगों के सम्मान पात्र होगा। 

—एम. के. गाँधी
सेवाग्राम। 
10 जनवरी 1945

संत तुकाराम की रचनाओं का अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। तुकाराम की रचनाओं की जानकारी भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में वैश्विक स्तर पर प्रदान करने हेतु www.tukaram.com वेब साइट का निर्माण किया गया है। इस वेबसाइट के मुख्य संपादक श्री दिलीप धोण्डे है। तुकाराम के वंशज प्रो. डॉ. सदानंद मोरे और सुप्रसिद्ध मराठी, अँग्रेज़ी कवि दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे ने सहयोग प्रदान किया है। 

इस वेबसाइट पर हिंदी में महात्मा गाँधी जी ने राष्ट्रगाथा पुस्तक पर लिखी हुई प्रस्तावना और श्रीराम शिकारखाने व आनंदप्रकाश दीक्षित ने तुकाराम की रचनाओं का अनुवाद उपलब्ध है। बालगोपाल हेतु चित्र रूप अभंग दिए है। 

इसके अलावा अन्य भारतीय भाषाओं के साथ विदेशी भाषा अँग्रेज़ी में - उदय गोखले, एसप्रांतो- अनिरुध्द बनहट्टी, जर्मनी में - दिलीप चित्रे व पद्मश्री लोथार लुत्से, फ्रेंच में - गी प्वॉत्व्हँ, स्पॅनिश में - एल्सा क्रॉस, डच में - लिओ व्हॅन दर झाल्म और रूसी में - इरिना ग्लुशकोव्हा, अनघा भट व सिरगेइ सेरेयानी ने तुकाराम के अभंगों का अनुवाद किया है। 

संत साहित्य अभ्यासक, लेखक डॉ. अशोक कामत जी के गुरुकुल प्रकाशन पुणे द्वारा 'संत तुकाराम-अभंगगाथा ' के 3 खंड हिंदी में प्रकाशित हुए है। इस पुस्तक के लेखक प्रोफेसर डॉ. वेदकुमार वेदालंकार ने गाथा का हिंदी गद्य–पद्य अनुवाद व सटीक व्याख्या सहित प्रस्तुत किया है। 

 

संत तुकाराम के कुछ हिंदी दोहे

लोभी के चित धन बैठे, कामिनि के चित काम। 
माता के चित पूत बैठे, तुका के मन राम॥
 
तुका बड़ो न मानूँ, जिस पास बहुत दाम। 
बलिहारी उस मुख की, जिस ते निकसे राम
 
राम-राम कह रे मन, और सुं नहिं काज। 
बहुत उतारे पार आगे, राखि तुका की लाज
 
तुका दास तिनका रे, राम भजन नित आस। 
क्या बिचारे पंडित करो रे, हात पसारे आस

 

संत तुकाराम के हिंदी अभंग

भगवंत का चरित्र गायन करते समय अनेक मराठी संतों ने कुछ अभंग, रचनाएँ हिंदी में लिखी है। तीर्थक्षेत्र के कारण उत्तर भारतीय संतों की रचनाओं से प्रभावित होकर संत तुकाराम ने कुछ अभंग हिंदी में लिखे हैं। इन अभंगों पर ब्रज भाषा का प्रभाव दिखायी देता है। मीरा, कबीर, सूफ़ी संतों की भाषा और रूप को धारण करते हुए उन्होंने अपने हिंदी रचनाओं में मराठी हिंदी मिलीजुली भाषा का उपयोग किया है। 

 

कुछ हिंदी रचनाओं का अवलोकन करें:

 

मैं भुली घरजानी बाट। गोरस बेचन आयें हाट॥१॥
 
कान्हा रे मनमोहन लाल। सब ही बिसरूं देखें गोपाल॥ध्रु.॥
 
काहाँ पग डारूं देख आनेरा। देखें तों सब वोहिन घेरा॥२॥
 
हुं तों थकित भैर तुका। भागा रे सब मनका धोका॥३॥
 

हरिबिन रहियां न जाये जिहिरा। कबकी थाडी देखें राहा॥१॥
 
क्या मेरे लाल कवन चुकी भई। क्या मोहिपासिती बेर लगाई॥ध्रु.॥
 
कोई सखी हरी जावे बुलावन। बार हि डारूं उसपर तन॥२॥
 
तुका प्रभु कब देखें पाऊँ। पासीं आऊँ फेर न जाऊँ॥३॥


भलो नंदाजीको डिकरो। लाज राखीलीन हमारो॥१॥
 
आगळ आवो देवजी कान्हा। मैं घरछोडी आहे ह्मांना॥ध्रु.॥
 
उन्हसुं कळना वेतो भला। खसम अहंकार दादुला॥२॥
 
तुका प्रभु परवली हरी। छपी आहे हुं जगाथी न्यारी॥३॥

वारकरी संप्रदाय में मान्यता है कि संत तुकाराम सदेह वैकुंठ की ओर प्रस्थान कर गए थे। यह दिन था शके 1571, फाल्गुन वद्य द्वितीया (9 मार्च 1650)। 
इस दिन को 'तुकाराम बीज' के नाम से मनाया जाता है। इसी दिन भक्तों से विदा होते समय संत तुकाराम ने भावुक होकर कहाँ था:
 
आम्ही जातो आपुल्या गावा। आमचा राम राम ध्यावा॥
तुमची आमची हे चि भेटी। येथुनियां जन्मतुटी॥
आतां असों द्यावी दया। तुमच्या लागतसें पायां॥
येतां निजधामीं कोणी। विठ्ठल विठ्ठल बोला वाणी॥
रामकृष्ण मुखी बोला। तुका जातो वैकुंठाला। 
 
अर्थात्‌:

 
हम अपने गाँव जा रहे है, सभी को मेरा राम राम। अब इतना ही सहवास, जन्म का बंधन टूटेगा। आपकी स्नेह बना रहे, चरणस्पर्श। निजधाम आते ही अब वाणी बोले विठ्ठल विठ्ठल। मुख से बोलो रामकृष्ण, तुका करें वैकुंठ गमन। 

संदर्भ -

  1. जाधव, रा. ग. आनंदाचा डोह, वाई, १९७६.
  2. लाड, पु. म. संपा. श्री. तुकारामबाबांच्या अभंगांची गाथा (महाराष्ट्र शासन), मुंबई, १९७३.
  3. 3.डॉ जोशी, लक्ष्मणशास्त्री, संपादक मराठी विश्वकोश, महाराष्ट्र सरकार
  4. http://tukaram.com/
  5. संत तुकाराम-अभंगगाथा, लेखक- डॉ वेदकुमार वेदालंकार, गुरुकुल प्रकाशन, शिव श्री, 258 सहजीवन, पर्वती, पुणे -411009
  6. भक्त विजय, संत महिपती, प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर

जगद्गुरु संत तुकाराम

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टिप्पणियाँ

शैली 2022/04/01 02:04 PM

भारतीय पाठ्यक्रम ऐसा है कि हमें मुगलों, फ्रेंच और ब्रिटिश के बारे में अधिक पता है, भारत के बारे में बहुत थोड़ा सा, उत्तर प्रदेश में रहने के कारण मेरी जानकारी तुकाराम के बारे में बहुत सूक्ष्म थी, लेख पढ़ कर ज्ञान वर्धन हुआ, लगता है कांग्रेस सरकार ने भारतीय बच्चों के मानसिक विकास के साथ बड़ा धोखा किया. आभार एवं बधाईयाँ इतने पूर्ण लेख के लिए

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