लोकतंत्र
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी विजय नगरकर15 Oct 2022 (अंक: 215, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
मूल लेखक: हेरंब कुलकर्णी (मराठी)
मराठी से हिन्दी अनुवाद: विजय नगरकर
उस क्रूर रियासतदार के ज़ुल्म से ज़िलों में सभी किसान त्रस्त थे। फ़सल काटकर चुराने वाले उनके गुंडे, बहू-बेटियों को सताने वाले उनके मवाली लोगों से आम जनता परेशान थी।
जनता ने बग़ावत की। राज्य में मतदान हुआ। रियासतदार लोकतंत्र की राह से गुज़र कर चुनाव जीत गया।
अब उनके गुंडे खेती से फ़सल काटकर चुराते नहीं, बल्कि किसान स्वयं उनके दफ़्तर जाकर कर अदा करने लगे हैं। वे अब बहू-बेटियों को उठाकर नहीं ले जाते हैं, बल्कि उन्हें नक्सली मानकर बाक़ायदा रात भर जेल में बंदी बनाकर उन पर बलात्कार किया जाता है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
60 साल का नौजवान
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | समीक्षा तैलंगरामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…
(ब)जट : यमला पगला दीवाना
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | अमित शर्माप्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सामाजिक आलेख
साहित्यिक आलेख
सांस्कृतिक आलेख
पुस्तक समीक्षा
काम की बात
स्मृति लेख
आप-बीती
पुस्तक चर्चा
लघुकथा
कविता
अनूदित कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
ऐतिहासिक
रचना समीक्षा
अनूदित आलेख
हास्य-व्यंग्य कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं