मन का अपना दर्पण
काव्य साहित्य | कविता राजनन्दन सिंह15 Sep 2020
वह शीशा
जिसमें हम स्वयं को देखते हैं
स्वयं को सँवारते हैं
वस्तुतः उसमें
हम स्वयं नहीं दिखते
हमारा मुखड़ा दिखता है
हम अपना मुख सँवारते हैं
एक दर्पण
मन के भीतर है
मन की ऊँचाइयों पर
कोमल निर्मल स्वच्छ
कई नदी कई वन कई रेगिस्तान
पार करने के बाद
कई पर्वतों के ऊपर
एक रहस्यमयी
गुप्त शून्याकाश में
पर्वतों की फिसलन भरी
कठिन चढ़ाई
लाँघते हुए वहाँ पहुँचने पर
एक असीम सृष्टि है
सूक्ष्मातिसूक्ष्म
बहुआयामी
पर वह
किसी उपग्रह कैमरे का
लेंस नहीं है
वह दर्पण है
मन का भीतरी दर्पण
भौतिक सूक्ष्म सूक्ष्मातिसूक्ष्म
मन कण अणु परमाणु
जहाँ सब दृष्टिगोचर हैं
साँस थामे वहाँ ध्यान से
चुपचाप एकाग्रचित बैठना
स्वयं को ढूँढना
स्वयं को देखना
स्वयं को सँवारना
स्वयं को साधना
और एकाग्रता बनाए रखना
सावधान
स्वयं को देखना
एक हर्षातिरेक है
एकाग्रता न टूटे
ध्यान रहे
वरना अदृश्य हो जाएगा
मन का दर्पण
और पुनः उस हर्षातिरेक को
फिर से चढ़नी होगी
वही कठिन चढ़ाई
फिर से करना होगा
वही सब कुछ
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